जब तक आसक्ति का नाश नहीं, तब तक धर्म की शुरुआत नहीं

आज का चिंतन- पूज्य गुरुवर्य सेजलबाईजी म.सा.

अमरावती/दि.25 पूज्य सेजलबाई म.सा. ने बडनेरा में चल रहे चातुर्मास प्रवचन में कहा कि मानव भव मिलने के बाद अगर भव रमणा को रोकना है, तो एक शब्द पकड़कर जीने की जरूरत है, और वह शब्द है अनासक्ति, अनासक्ति क्या है? जब संसार के अंदर रहते हुए, सांसारिक क्रियाओं को, अनासक्त भाव से रहते हैं, तब आत्मा के अंदर पड़ी हुई चेतना उ्ध्वागामी बनती है और आत्मा धर्म में स्थित होती है.
उन्होंने कहा कि जीव संसार के अंदर रहते हुए, सारी क्रियाओं में तो आसक्ति रखता ही है, लेकिन जब धर्म की क्रिया में भी आसक्ति रखेंगे तो काम कैसे बनेगा? जितने भी महापुरुष इस युग में हुए हैं, उन्होंने अनासक्त भाव का निरंतर अभ्यास किया है. वृत्ति से प्रवृत्ति में आए हैं और देव गुरु धर्म में श्रद्धा रखते हुए सभी क्रियाओं को अनासक्त भाव से करते हुए आत्मा का उद्धार किया है. धर्म की क्रिया के अंदर जब हम अनासक्त भाव रखते हैं, तो धीरे-धीरे सांसारिक क्रिया में भी अनासक्ति का भाव जगा पाते हैं, और जब निरंतर अनासक्ति के भाव के अंदर रहते हैं तो शून्य भाव में आ जाते हैं और आत्मा का उदय होने लगता है.
पूज्य म.सा. ने आगे कहा कि अनासक्त भाव लाने के लिए तीन चीजें जरूरी है. समझण, श्रद्धा और स्वीकार. जब जीव बहिर्मुखी कार्यों को अनासक्त भाव से करेगा तभी अंतर्मुखी बनेगा, तभी वह आसक्ति से अनासक्ति के भाव में आ पाएंगे. अनासक्ति का भाव लाने के लिए द्रव्य का छोड़ना जरूरी नहीं है, लेकिन अनासक्ति के भाव में रहना जरूरी है. उल्लेख आता है भरत चक्रवर्ती का, जो चक्रवर्ती होते हुए भी संसार में रहते हुए भी, अनासक्त भाव में रहे, वैराग्य के भाव में रहे. ऐसे ही अगर संसार मे हम अनासक्त भाव के नौका का सहारा लेंगे, समय-समय पर कर्मों को डिलीट करेंगे, नित्य अनासक्ति के भाव के नाव के अंदर बैठे रहेंगे तो संसार से तर जाएंगे.
संसार में रहते हुए हमें अनासक्त भाव को जगाने के लिए निरंतर पुरुषार्थ करना है, अगर हमारी कोई चीज खो जाती है, टूट जाती है, या खराब हो जाती है तो भी हमारे भाव क्षण में बदल जाते हैं, हमें चीजों से इतना राग है तो अनासक्त भाव को कैसे जगा पाएंगे? मानव शरीर हर चीज में आसक्त है, हमारी जीभ, हर रस को चखने के लिए आसक्त रहती है, मन हर नए कपड़े देखते ही उसको पहनने में आसक्ति रखता है, कान हमेशा दूसरों के विषय सुनने के लिए आसक्त रहते हैं, नाक हमेशा अच्छी सुगंध की पोषण में लगा रहता हैं. जब तक हम हम, हमारी पांच इंद्रियों को आसक्त भाव से, अनासक्त भाव में नहीं लाएंगे तब तक धर्म की क्रियाओं को भी आसक्ति के भाव से ही करेंगे. जब तक आसक्ति में जिएंगे तब तक हमारी उत्पत्ति निश्चित है,और भवभ्रमणा भी निश्चित है.
पूज्य सेजलबाई म. सा. ने अंत में कहा कि जीव संसार के अंदर अनादि काल से, आसक्ति के कारण भ्रमण कर रहा है, जब तक वह संसार की आसक्ति से दूर होकर, भगवान में आसक्त नहीं होगा, पुरुषार्थ नहीं करेंगे तब तक भवभ्रमणा भी निश्चित नहीं रुकेगा.
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