विदर्भ-मराठवाड़ा में बबूल के जंगल निगले गए

राजस्व विभाग की आपत्ति, सुप्रीम कोर्ट के आदेश की अवहेलना

अमरावती /दि.20 – राजस्व विभाग ने मनमाने तरीके से वन भूमि को विभिन्न उपयोगों की आड़ में बांट दिया है. इसका असर विदर्भ और मराठवाड़ा के बबूल के जंगलों पर पड़ा है. लाखों हेक्टेयर बबूल के जंगल निगल लिए गए हैं.बबूल, जो एक बहुमूल्य पौधा है, अब विलुप्ति की ओर बढ़ रहा है.
1895 से 1988 तक विदर्भ, बरार और मराठवाड़ा में बबूल वर्किंग सर्किल को कार्ययोजना में शामिल किया गया.आरक्षित वनों की वैधानिक स्थिति के बावजूद, मध्य भारत और बरार में लाखों हेक्टेयर वन भूमि पर वन भूमि का कब्ज़ा कर लिया गया. वन संरक्षण अधिनियम 1980 के प्रभावी होने और राजस्व विभाग के नाल प्रभाग को हस्तांतरित होने के बावजूद की गई कार्रवाई का विदर्भ और मराठवाड़ा के मूल वनों पर विनाशकारी प्रभाव पड़ा है.
ज़िलाधिकारी ने पूर्व मंत्री को अकोला शहर के पास पोटुर-मेदभी वाशिम रोड पर बाभली वन भूमि एक फार्महाउस के लिए दे दी थी.तत्कालीन अमरावती ज़िले में बडनेरा-अंजनगांव बारी सड़क पर बबूल वन को नाममात्र की अनुमति के साथ शैक्षिक उद्देश्यों के लिए काट दिया गया था. 1966 और 1988 के बीच, उप संरक्षकों, जिन्हें कार्य मंडल में कार्यकारी अधिकारियों द्वारा भूमि आवंटित की गई थी, ने वन मंत्री से लेकर वन सचिव, उप सचिव से अवर सचिव और प्रभागीय अधिकारी, फिर मुख्य वन संरक्षक, मुख्य वन संरक्षक तक के वरिष्ठ अधिकारियों की सहमति से इसे वितरित किया.यह स्पष्ट है कि संसद में पारित वन संरक्षण अधिनियम 1980 के प्रावधानों के साथ-साथ वन संरक्षण नियम 1981-2003, 2014 और 2025 का शासक वर्ग और अधिकारियों द्वारा उल्लंघन किया गया था.बबूल एक औषधीय पौधा है और कभी विदर्भ और मराठवाड़ा में विशाल बबूल के जंगल थे. हालांकि यह एक तथ्य है कि यह विलुप्त हो गया है.

* सेवानिवृत्त वन अधिकारी की राष्ट्रपति से शिकायत
सर्वोच्च न्यायालय ने 12 दिसंबर, 1926 को टी. एन. गोदावर्मन मामले में अपने आदेश के माध्यम से ’वन’ शब्द की परिभाषा स्पष्ट की थी और इसके दायरे को बनाए रखा था.हालांकि, मंत्री, मुख्य सचिव, वन सचिव, संयुक्त सचिव, अवर सचिव और प्रकोष्ठ अधिकारी पिछले 30 वर्षों से इस आदेश की अनदेखी कर रहे हैं, जिसके परिणामस्वरूप लाखों हेक्टेयर आरक्षित, संरक्षित, झाड़ीदार और अवर्गीकृत निजी वन भूमि सर्वोच्च न्यायालय, केंद्रीय अधिकारिता समिति और केंद्र सरकार की स्वीकृति के बिना गैर-वनीय उद्देश्यों के लिए आवंटित की जा रही है. सेवानिवृत्त वन अधिकारी हेमत छाजेड़ ने 15 सितंबर, 2025 को राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू और सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश भूषण गवई को एक शिकायत भेजी है.

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