अमरावती में मजाक बनकर रह गई है महायुति व महाविकास आघाडी
मनपा चुनाव में दिख रही राजनीतिक दलों के बीच ‘अजब प्रेम की गजब कहानी’

* सभी की ‘अपनी-अपनी ढपली, अपना-अपना राग’ वाली स्थिति
* भाजपा-शिंदे सेना के बीच युति को लेकर अब तक नहीं बनी बात
* विधायक रवि राणा के चलते विधायक खोडके गुट चल रहा युति से अलग
* महाविकास आघाडी के तीनों घटक दल लगा रहे अपना-अपना सूर
* कांग्रेस, शिवसेना उबाठा व शरद पवार गुट के बीच कोई तारतम्य नहीं
* तीनों दल अपनी-अपनी सुविधा के लिहाज से प्रभाग स्तर पर कर रहे आघाडी की चर्चा
* कहीं रहेंगे साथ-साथ, तो कहीं एक-दूसरे के खिलाफ, ‘मैत्रीपूर्ण लढत’ की ली जा रही आड
अमरावती/दि.27 – आगामी महानगरपालिका चुनाव को लेकर अमरावती की राजनीति में इन दिनों अजीबो-गरीब समीकरण देखने को मिल रहे हैं. राजनीतिक दलों के बीच चल रही खींचतान ने चुनावी माहौल को गंभीर कम और मज़ाक ज़्यादा बना दिया है. महायुति और महाविकास आघाड़ी-दोनों ही गठबंधन फिलहाल ‘सभी की अपनी-अपनी ढपली, अपना-अपना राग’ वाली स्थिति में फंसे नज़र आ रहे हैं.
यदि हम महायुति की बात करें तो भाजपा और शिंदे गुट की शिवसेना के बीच अब तक सीट बंटवारे को लेकर कोई ठोस सहमति नहीं बन पाई है. अंदरूनी मतभेद खुलकर सामने आ रहे हैं. विधायक रवि राणा के कारण विधायक खोडके गुट का युति से अलग चलना महायुति की मुश्किलें और बढ़ा रहा है. वहीं दूसरी ओर महाविकास आघाड़ी में भी हालात बेहतर नहीं हैं. कांग्रेस, शिवसेना (उद्धव ठाकरे गुट) और शरद पवार गुट-तीनों घटक दलों के बीच किसी तरह का तालमेल दिखाई नहीं दे रहा है. हर दल अपनी राजनीतिक सुविधा के अनुसार प्रभाग स्तर पर अलग-अलग आघाड़ी की चर्चा कर रहा है. स्थिति यह है कि कहीं तीनों दल साथ मिलकर चुनाव लड़ने की बात हो रही है, तो कहीं एक-दूसरे के खिलाफ प्रत्याशी उतारने की तैयारी है. कई प्रभागों में ‘मैत्रीपूर्ण लढत’ की आड़ लेकर आपसी प्रतिस्पर्धा को सही ठहराने की कोशिश की जा रही है.
यहां यह कहना कतई अतिशयोक्तिपूर्ण नहीं होगा कि, अमरावती महानगरपालिका चुनाव से पहले जो राजनीतिक परिदृश्य उभर रहा है, वह यह साफ कर देता है कि शहर में गठबंधन अब रणनीति नहीं, बल्कि मजबूरी और भ्रम का पर्याय बन चुके हैं. महायुति और महाविकास आघाड़ी-दोनों ही मोर्चों पर न तो नेतृत्व स्पष्ट है, न ही नीति और न ही नीयत. परिणामस्वरूप चुनावी रणभूमि में उतरने से पहले ही ये गठबंधन जनता की नजरों में मज़ाक बनते जा रहे हैं. भाजपा और शिंदे गुट की शिवसेना के बीच तथाकथित युति काग़ज़ों और मंचों तक ही सीमित दिखाई दे रही है. जमीनी स्तर पर सीटों का बंटवारा अब भी अधर में है. भाजपा जहां संगठन और सत्ता की ताकत के दम पर अधिक प्रभागों पर दावा ठोक रही है, वहीं शिंदे गुट न्यूनतम सीटों से कम पर समझौते को तैयार नहीं है.
इस मुद्दे को लेकर यह भी कहा जा सकता है कि, महायुति के दो प्रमुख घटक दलों के बीच चल रही इस खींचतान में विधायक रवि राणा की भूमिका निर्णायक नहीं, बल्कि बाधक बनती जा रही है. उनके राजनीतिक रुख के चलते विधायक खोडके गुट का युति से दूरी बनाए रखना यह दर्शाता है कि महायुति अंदर से कितनी बिखरी हुई है. अगर यही हाल रहा तो महायुति चुनाव से पहले ही आत्मघाती स्थिति में पहुंच सकती है.
उधर दूसरी ओर महाविकास आघाड़ी की स्थिति इससे भी अधिक विरोधाभासी है. कांग्रेस, शिवसेना (उद्धव ठाकरे गुट) और शरद पवार गुट-तीनों दल अपने-अपने राजनीतिक अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं. ऐसे में साझा रणनीति की उम्मीद करना खुद को धोखा देने जैसा है. कांग्रेस जहां पुराने जनाधार को बचाने के लिए अकेले दम पर चुनाव लड़ने की मानसिकता में है, वहीं शिवसेना उबाठा गुट ‘मराठी अस्मिता’ के नाम पर अपने पारंपरिक इलाकों में किसी भी तरह की समझौतेबाजी से बचना चाहता है. शरद पवार गुट सीमित ताकत के बावजूद निर्णायक बनने की कोशिश में हर प्रभाग को सौदेबाज़ी का मंच बना रहा है.
महाविकास आघाडी के मामले में सबसे दिलचस्प और चिंताजनक पहलू यह है कि आघाड़ी की राजनीति अब सिद्धांतों से उतरकर पूरी तरह सुविधा आधारित हो गई है. जहां जीत की संभावना दिखती है, वहां साथ-साथ चुनाव लड़ने की बात हो रही है, और जहां समीकरण अनुकूल नहीं, वहां ‘मैत्रीपूर्ण लढत’ का सहारा लेकर खुलेआम टकराव की तैयारी है. यह स्थिति मतदाताओं के लिए भ्रम पैदा करने वाली है. एक ही दल के नेता अलग-अलग प्रभागों में विरोधी और सहयोगी-दोनों भूमिकाओं में नज़र आएंगे.
अमरावती महानगर पालिका की सत्ता को हासिल करने के लिए राजनीतिक दलों के बीच चल रही तमाम तरह की उठापटक और येन-केन प्रकारेण मनपा की सत्ता में आने की जद्दोजहद के बीच शहर के ज्वलंत मुद्दों, जैसे जलापूर्ति, साफ-सफाई, स्वच्छ व दुरुस्त सड़कें, अतिक्रमण, करों का बोझ, इन सब पर किसी भी गठबंधन के पास ठोस रोडमैप नहीं है. पूरा फोकस टिकट, प्रभाग और आपसी वर्चस्व पर सिमट कर रह गया है. ऐसे में यह सवाल लाज़िमी है कि मनपा चुनाव जनता के लिए है या सिर्फ नेताओं के राजनीतिक भविष्य के लिए. ऐसे में यह भी कहा जा सकता है कि, अमरावती का मनपा चुनाव इस बार विकास की राजनीति से ज़्यादा स्वार्थ, असुरक्षा और अस्तित्व की लड़ाई का प्रतिबिंब बनता जा रहा है. यदि यही हालात रहे तो आने वाला चुनाव केवल प्रत्याशियों का नहीं, बल्कि गठबंधनों की विश्वसनीयता पर जनमत संग्रह साबित होगा. कुल मिलाकर अमरावती मनपा चुनाव में गठबंधन की राजनीति फिलहाल भ्रम, असमंजस और स्वार्थी समीकरणों के भंवर में उलझी हुई है. आने वाले दिनों में यह देखना दिलचस्प होगा कि ये तथाकथित आघाड़ियां और युतियां वास्तव में ज़मीनी स्तर पर साथ आती हैं या फिर चुनावी रण में एक-दूसरे के आमने-सामने नज़र आती हैं.





