अमरावतीलेख

अमर शहीद संत कंवरराम साहब का 138 वीं जयंती महोत्सव

सिंध शब्द का उल्लेख आते ही सूफी संतों, फकीरों व अनगिनत साधुओं की यादें उभरती है. क्योंकि सिंध संतों की भूमि रही है. ऐसे में अनेक संतों में से एक संत थे. जो भक्ति से परिपूर्ण दयावान त्यागी व कर्मयोगी थे. जिनका नाम है अमर शहीद संत कंवरराम साहब जी. संत कंवरराम का जन्म 13 अप्रैल 1885 को वैसाखी के दिन सिंध प्रांत में सखर जिले के मीरपुर माथेलो तहसील के जरवार गांव में हुआ. इस शुभ घडी में सूर्य- किरणे लालायमान हो गई. पानी में तरंगे उठने लगी. वातावरण सुंगधित हो उठा. हवाएं झूमने लगी. पक्षी चहचहाने लगे, भंवरे गुनगुनाने लगे. इस सुंदर बालक की माता का नाम श्रीमती तीर्थबाई व पिता बनने का सौभाग्य श्री ताराचंद को प्राप्त हुआ.
सिंध के परमसंत श्री खोतारामजी ने बालक का नाम रखा कंवर-कंवर का अर्थ कंबल अर्थात कमल का फूल. संत ने भविष्यवाणी की कि जिस तरह कमल का फूल कीचड में खिलकर भी अलिप्त रहता है. उसी तरह यह बालक भी संसार में निर्मल होगा और पूरे विश्व को सेवा प्रेम भक्ति की सुंगध से महकाएगा.
एक बार जरवार गांव में संत संतरामदास जी का कीर्तन हो रहा था. उसी समय बालक कंवर ने वहां से गुजरते हुए चने (कोहर ) बेचने के लिए मधुर स्वर में ध्वनि लगाई है. श्री संतजी ने यह मधुर ध्वनी सुनी तो उन्होंने तुरंत सेवाधारियों ने कहकर बालक को बुलाया और संगत के सामने गाने का आग्रह किया. बालक के मधुर सुरीले स्वरों को मधुरता व अर्न्तभाव ने श्री संतजी के हदय को द्रवित कर दिया. श्री संतजी ने सारे चने लेकर संगत में बांट दिए. बालक ने श्री संतजी से पैसे न लेकर सारे चने उनके चरणों में भेंट कर दिए. तब से बालक रोहडी दरबार के शिष्य बन गए. बालक संत साहब के अध्यात्म पूंजी के उत्तराधिकारी बन गए.
श्री संत कंवराम साहब अत्यंत सादेे व सरल स्वभाव के थे. वे सफेद खादी की धोती, कुर्ता, कंधे पर गमछा सिर पर गोल टोपी या पगडी, पैरों में जेसलमेरी जूती धारण कर जब कीर्तन करते तो उनके पहनावे में संत तुकाराम संत नामदेव की झलक दिखती थी. गायन के समय प्रभुभक्ती में लीन होकर महाप्रभु चैतन्य का दर्शन कराते थे.
उनकी दिव्य कंचन काया में अनोखी आकर्षण शक्ति थी. हदय में मधुरता का झरना था. मुख से मधुर व नम्र बोल फूल की तरह निकलते थे. गायन में दर्द व तडप थी. उनकी मधुर व बुलंद आवाज अंधेरे में खामोशी को चीरते हुए मीलों तक सुनाई देती थी. लोग भांप जाते थे कि निकट ही किसी गांव में संत कंवररामजी की भक्ति का आयोजन है.
ऐसे ही एक बार श्री संत कंवरराम साहब जी शिकारपुर के शाही बाग में भक्ति (भगत) सत्संग कीर्तन कर रहे थे. पास पडोस में ही किसी महिला का बालक का स्वर्गवास हो गया . किसी ने सलाह दी कि श्री संत कंवराराम साहब की भगत चल रही है. उनकी गोद में बच्चा दे- दो संत कृपा करेंगे. महिला ने चुपचाप अपना बच्चा लोरी सुनाने के लिए संतजी की गोद में दे दिया. महिला के अलावा संगत इस बात से अंजान थी कि बच्चा मृत है. संतजी ने मृत बच्चे को देखा तो ईश्वर से प्रार्थना की कि प्रभु मेरी लाज आपके हाथ में है. अगर मैंने बच्चा ऐसे ही लौटाया तो महिला कहेगी कि बच्चा संत के हाथों में आकर मर गया. संतजी ने ऐसी करूणा पुकार की बच्चा जीवित होकर रोने लगा. यह चमत्कार देखकर महिला संतजी के चरणों में गिर पडी और उनसे क्षमा मांगने लगी. उसने सारी संगत को अपने मृत बच्चे की जानकारी दी. कैसे श्री संतजी ने उसे बच्चा वापस दिया है. उनकी कृपा हुई है. सारी संगत ने संतजी की जय-जयकार कर आकाश को हाथों में उठा लिया.
ऐसे अनेक प्रसंग उनके जीवन में जुडे हुए है. वे दया के सागर, दीन दुखियों, कैदियों विकलांगों के मसीहा थे. उनकी हर जरूरत पूरी करने के लिए उनकी झोली में जो मिलता वह सब को बांटकर झोली खाली कर देते व मालिक का शुक्राना मानते थे.
इन गुणों से वे हिंदुओं में प्रसिध्द व गौरवशाली संत बन गये थे. उनके विरोधी एक हठधर्मी पीर ने हिंदुओं से बदला लेने के लिए अपने अनुयायियों को उकसाया व संतजी को प्रतिशोध का केंद्र बनाया.
1 नवंबर 1939 का दिन मानवता का इतिहास में अति कलंकित व दु:खी रहा. श्री संतजी भाई गोविंदरामजी के दरबार में बर्सी में भजन कीर्तन के पश्चात किसी प्रेेमी के घर बालक का नामकरण करने पहुंचे. वहां भोजन करते समय उनके हाथ से कौर छूट गया. श्री संतजी ने मन ही मन प्रभु लीला को समझते हुए उनकी कृपा का स्मरण किया व भोजन की थाली एक ओर रख दी.
अपनी भजन मंडली के साथ रात 10 बजे रूक स्टेशन पर पहुंचे. वहां पर दो बंदूकधारियों ने उन्हें प्रणाम किया और अपना कार्य पूर्ण होने के लिए आशीर्वाद मांगा. त्रिलोकदर्शी श्री संतजी ने उन्हें प्रसाद में अंगूर दिए और कहा कि अपने पीर मुर्शीद को याद करो. कार्य अवश्य पूरा होगा.
श्री संतजी रेलगाडी में सवार हो गए. बंदूकधारी भी उसी डिब्बे में सवार हो गए. गाडी चलते ही अंधेरे में निशाना बनाकर बंदूकधारियों ने श्री संतजी पर गोलियां दाग दी.
हरे राम कहते हुए श्री संत कंवरराम साहबजी ब्रम्हलीन हो गए. सिंध की पावन भूमि एक महात्मा सूफी संत के पवित्र खून से रंग दी गई. पूरे सिंध में हाहाकार मच गया. उनके शहीद होने की खबर पूरे, सिंध- हिंद में कोने-कोने में आग की तरह फैल गई. सर्वधर्म समभाव का ध्वज फहरानेवाले मसीहा ने प्राण त्याग दिए. यह खबर सुनते ही स्कूल, कॉलेज, आफीस, बाजार सभी बंद हो गए. चारों तरफ नर-नारी बच्चे, हिंदू-मुसलमान बिलख-बिलख मातम मनाने लगे. अपने प्रियजन अपने आत्मीय के लिए रो रहे थे. सिंध में दीपावली का पर्व नहीं मनाया गया. ऐसे अमर शहीद संत कंवरराम साहब को उनके पुण्यतिथि पर पूरे विश्व में कार्यक्रम आयोजित कर श्रध्दा व प्रेम भक्ति से उनकी पुण्यतिथि मनाई जाती है. 26 अप्रैल 2010 को भारत के राष्ट्रपति द्बारा उनकी स्मृति में राष्ट्रपति भवन में डाक-टिकिट जारी की गई. ऐसे सतपुरूष को संपूर्ण राष्ट्र का शत-शत नमन!

– नारायण हेमनानी,
सचिव पूज्य पंचायत, बडनेरा-9421787103

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