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आखिर बार-बार क्यों उछल रहा है सुलभा खोडके का नाम?

कांग्रेस छोडकर कोई दूसरी राह पकडने की जमकर क्यों चल रही चर्चाएं

अमरावती/दि.16 – इस समय राज्य की राजनीति मेें जबर्दस्त उथल-पुथल मची हुई है. विशेष तौर पर जबसे दो बार मुख्यमंत्री और कांग्रेस प्रदेशाध्यक्ष जैसे पद पर रह चुके कांग्रेस के वरिष्ठ नेता अशोक चव्हाण ने कांग्रेस छोडकर भाजपा में प्रवेश किया है, तब से और भी कई कांग्रेसी नेताओं व विधायकों के पाला बदलने की खबरें तेज हो गई हैं. इसी के तहत अमरावती की कांग्रेस विधायक सुलभा खोडके द्वारा भी जल्द ही कांग्रेस छोडकर कोई दूसरी राह पकड लेने की चर्चाएं काफी तेज है. जबकि सुलभा खोडके बार-बार यह दोहरा रही हैं कि, वे कांग्रेस के प्रति पूरी तरह से निष्ठावान है और आगे भी कांग्रेस में ही बनी रहेंगी. लेकिन बावजूद इसके चर्चाएं थम नहीं रहीं. ऐसे मेें यह सवाल उपस्थित हो रहा है कि, आखिर सुलभा खोडके का नाम बार-बार क्यों उछल रहा है और उनके कांग्रेस छोडकर कहीं ओर चले जाने को लेकर कयास क्यों जताये जा रहे हैं. ऐसे में सुलभा खोडके तथा उनके पति संजय खोडके की पार्श्वभूमि के साथ ही उनके अब तक के राजनीतिक सफर पर नजर डालना बेहद जरुरी हो जाता है.
यह भी देखना जरुरी है कि, खोडके के पास फिलहाल क्या राजनीतिक विकल्प है और कौनसा विकल्प उनके पास बेहद मजबूत है. उनके अजीत पवार गुट वाली राकांपा अथवा भारतीय जनता पार्टी में जाने की जमकर चर्चाएं चल रही है. लेकिन संजय खोडके ऐसी चर्चाओं को सिरे से नकार चुके है.
* कांग्रेस में रहकर भी कांग्रेस से अलग हैं सुलभा खोडके
उल्लेखनीय है कि, यद्यपि सुलभा खोडके फिलहाल अमरावती से कांग्रेस विधायक हैं. लेकिन उनकी कांग्रेस विधायक यशोमति ठाकुर, पूर्व विधायक डॉ. सुनील देशमुख व वीरेंद्र जगताप, कांग्रेस शहराध्यक्ष बबलू शेखावत, कांग्रेस जिलाध्यक्ष बबलू देशमुख एवं शहर में कांग्रेस की राजनीति पर अच्छी खासी पकड रखने वाले पूर्व महापौर विलास इंगोले सहित शहर एवं जिले के किसी भी कांग्रेसी नेता से पटरी नहीं बैठती. स्थिति यहां तक है कि, विगत दिनों अमरावती में जब कांग्रेस का विभागीय सम्मेलन हुआ था और पार्टी के प्रदेश प्रभारी रमेश चेनीथल्ला अमरावती आये थे, तो उस बैठक में भी कांग्रेस विधायक रहने के बावजूद सुलभा खोडके को आमंत्रित नहीं किया गया था. वहीं अब राज्यसभा चुनाव को लेकर पार्टी द्वारा बुलाई गई विधायकों की बैठक में खुद विधायक सुलभा खोडके यह कहते हुए शामिल नहीं हुईं कि, उन्हें अपने बेटे की शादी के संबंधित खरीददारी करनी है. यानि एक तरफ तो स्थानीय कांग्रेस पदाधिकारियों द्वारा विधायक सुलभा खोडके को अपने द्वारा आयोजित किसी भी बैठक मेें नहीं बुलाया जाता. वहीं प्रदेशस्तर पर बुलाई जाने वाली बैठक में आमंत्रित किये जाने के बावजूद विधायक सुलभा खोडके शामिल नहीं होती. जिसका सीधा मतलब है कि, विधायक सुलभा खोडके जहां स्थानीय तौर पर पार्टी से अलग-थलग पडी हुई है. वहीं दूसरी ओर वे खुद पार्टी से कुछ हद तक नाराज भी हैं.
* खोडके दम्पति का इतिहास भी रहा उथल-पुथल भरा
यहां यह भी याद किया जा सकता है कि, विधायक सुलभा खोडके के पति संजय खोडके ने जब से सरकारी नौकरी को छोडकर राजनीति का दामन थामा, तब से वे राष्ट्रवादी कांग्रेस के साथ हैं और शुरु से ही राकांपा नेता अजीत पवार के कट्टर समर्थक हैं. यहीं वजह है कि, जब अजीत पवार ने पार्टी में बगावत की, तो संजय खोडके ने शरद पवार की बजाय अजीत पवार का ही साथ दिया और आज वे अजीत पवार गुट वाली राकांपा की ओर से विधानसभा समन्वयक भी हैं. याद यह भी किया जा सकता है कि, संजय खोडके के साथ-साथ उनकी पत्नी सुलभा खोडके भी करीब 15 वर्षों तक राकांपा में ही सक्रिय थीं और उन्होंने बडनेरा विधानसभा निर्वाचन क्षेत्र से राकांपा के टिकट पर तीन बार विधानसभा चुनाव लडा था. जिसमें से अपने पहले चुनाव में सुलभा खोडके राकांपा से विधायक निर्वाचित हुई थीं. वहीं उन्हें अगले 2 चुनाव में हार का सामना करना पडा. इसके उपरान्त खोडके दम्पति के लिए वर्ष 2014 का लोकसभा चुनाव काफी उलटफेर वाला रहा. जब राकांपा सुप्रीमो शरद पवार ने नवनीत राणा को अमरावती संसदीय सीट से राकांपा के टिकट पर लोकसभा का प्रत्याशी बनाया, जिसके खिलाफ संजय खोडके ने बगावती बिगुल फूंका था और खोडके दम्पति को राकांपा से निष्कासित कर दिया गया था. उस समय खोडके दम्पति ने वर्‍हाड विकास मंच की स्थापना की थी, जो काफी कम समय तक चला, क्योंकि इसके बाद खोडके दम्पति ने कांग्रेस में प्रवेश कर लिया था और तब से सुलभा खोडके कांग्रेस में ही हैं. वहीं उनके पति संजय खोडके वर्ष 2019 का लोकसभा का चुनाव आते-आते एक बार फिर राष्ट्रवादी कांग्रेस में वापिस चले गये.
* पवार परिवार के साथ नजदीकी किसी से छिपी नहीं
– अजीत की वजह से ही मिली थी अमरावती सीट पर कांग्रेस की टिकट
खोडके दम्पति और पवार परिवार की नजदीकीयां किसी से छिपी नहीं है तथा इस तथ्य से भी कोई इंकार नहीं कर सकता कि, सुलभा खोडके को अमरावती विधानसभा क्षेत्र से कांग्रेस की टिकट भी शरद पवार और अजीत पवार की वजह से ही मिली थी, क्योंकि कांग्रेस व राकांपा के बीच एक-एक सीट की अदला-बदली हुई थी और अमरावती सीट को कांग्रेस के कोटे में छोडने के साथ ही पवार चाचा-भतीजे ने यहां पर अपने खासमखास रहने वाले खोडके को टिकट दिलाते हुए एक तरह से एक ही तीर से दो निशाने साधे थे. यहां पर इस बात को भी नहीं भूला जा सकता कि, वर्ष 2019 के विधानसभा चुनाव पश्चात जब राज्य में महाविकास आघाडी की सरकारी बनी थी, तब भी कांग्रेस के मंत्रियों व विधायकों की बजाय विधायक सुलभा खोडके तत्कालीन उपमुख्यमंत्री तथा वित्त व नियोजन मंत्री अजीत पवार के ही बेहद नजदीक रही और उन्होंने अपने द्वारा हासिल की गई तमाम विकास निधि का पूरा श्रेय कांग्रेस की बजाय राकांपा नेता अजीत पवार को ही दिया था. लेकिन जून 2022 में शिवसेना नेता एकनाथ शिंदे द्वारा शिवसेना में की गई बगावत के बाद राज्य में राजनीतिक हालात पूरी तरह से बदल गये और शिंदे गुट व भाजपा का समावेश रहने वाली महायुति की सरकार बन गई. वहीं इसके बाद राकांपा नेता अजीत पवार भी अपने कई विधायकोें के साथ महायुति के सरकार में शामिल हो गये. ऐसे में अब संजय खोडके तो अजीत पवार के साथ सरकार में शामिल हैं. वहीं उनकी पत्नी सुलभा खोडके कांग्रेस विधायक होने के नाते विपक्ष में है. लेकिन हर कोई जानता है कि, सुलभा खोडके केवल कहने भर के लिए ही कांग्रेस में हैं तथा राकांपा, विशेषकर अजीत पवार के साथ उनका जुडाव किसी से छिपा नहीं.
* इस बार कांग्रेस में सामने रहेंगी कई चुनौतियां
चूंकि अमरावती विधानसभा क्षेत्र में विधायक सुलभा खोडके की कांग्रेस के एक भी स्थानीय नेता व पदाधिकारी से पटरी नहीं बैठती और कई बार दोनों पक्षों के बीच विरोधाभास भी जमकर उजागर हुए है. साथ ही साथ कांग्रेस शहराध्यक्ष पद के लिए बबलू शेखावत की दावेदारी का भी संजय खोडके द्वारा पुरजोर विरोध किया गया था. ऐसे में बबलू शेखावत के साथ-साथ पूर्व महापौर विलास इंगोले और अप्रत्यक्ष तौर पर पूर्व मंत्री व विधायक यशोमति ठाकुर भी खोडके दम्पति के खिलाफ हो गये हैं. जिनकी चुनौतियों से खोडके दम्पति को पार पाना होगा. इसके साथ ही यहां पर एक बात और भी गौर करने लायक है कि, अमरावती विधानसभा क्षेत्र पर इस बार कांग्रेस की ओर से पूर्व विधायक डॉ. सुनील देशमुख द्वारा भी अपना सशक्त दावा किया जा रहा है. डॉ. देशमुख इससे पहले वर्ष 1999 एवं वर्ष 2004 में दो बार कांग्रेस प्रत्याशी के तौर पर विधायक का चुनाव जीत चुके हैं, जिनकी टिकट वर्ष 2009 के चुनाव में कट गई थी. पश्चात उन्होंने वर्ष 2014 का चुनाव भाजपा प्रत्याशी के तौर पर जीता था तथा वर्ष 2019 के चुनाव में भी डॉ. सुनील देशमुख भाजपा की ओर से ही प्रत्याशी थे, जिन्हें कांग्रेस प्रत्याशी सुलभा खोडके के हाथों हार का सामना करना पडा था. चुनाव हारने के कुछ ही समय उपरान्त डॉ. सुनील देशमुख के समर्थकों सहित कांग्रेस में लौट आये थे. जाहिर है कि, वे एक बार फिर अमरावती विधानसभा क्षेत्र से कांग्रेस की टिकट मिलने हेतु खम जरुर ठोकेंगे और स्थानीय स्तर पर कांगे्रस में डॉ. देशमुख की पकड व स्वीकार्यता को देखते हुए यह माना जा सकता है कि, उनकी दावेदारी में दम भी रहेगा. इन्हीं तमाम बातों के मद्देनजर मौजूदा बदले हुए राजनीतिक हालात में विधायक सुलभा खोडके द्वारा पाला बदले जाने की संभावना को हवा मिल रही है. लेकिन सबसे बडा सवाल यह है कि, यदि विधायक सुलभा खोडके द्वारा पाला बदला भी जाता है, तो वे किस राजनीतिक दल का दामन थामेंगी.
* भाजपा मेें जाना खोडके के लिए हो सकता है घाटे का सौदा
– मुस्लिम वोटों के साथ ही मराठा वोट भी छिटक सकते हैं हाथ से
यदि फिलहाल चल रहे राजनीतिक कयासों को माना जाये, तो अनुमान जताया जा सकता है कि, विधायक सुलभा खोडके द्वारा भाजपा में प्रवेश किया जा सकता है. परंतु ऐसा करना एक तरह से विधायक सुलभा खोडके सहित संजय खोडके के लिए आत्मघाती कदम साबित हो सकता है. क्योंकि विगत कुछ वर्षों के दौरान खोडके दम्पति ने अमरावती शहर में मुस्लिम समूदाय के बीच अपनी अच्छी खासी पकड बनाई है और अमरावती विधानसभा क्षेत्र में मुस्लिम मतदाताओं की संख्या हमेशा से ही निर्णायक रहती आयी है. साथ ही मुस्लिम समुदाय कभी भी भाजपा के पक्ष में मतदान करने का समर्थक नहीं रहता. यह बात वर्ष 2009 से लेकर अब तक हुए सभी लोकसभा व विधानसभा चुनावों के नतीजों और मतदान के आंकडों को देखकर कही जा सकती है. यहां यह कहना भी अतिशयोक्ति नहीं होगा कि, वर्ष 2019 के विधानसभा चुनाव में खुद सुलभा खोडके ने भी मुस्लिम वोटों के दम पर ही तत्कालीन विधायक व भाजपा प्रत्याशी डॉ. सुनील देशमुख को पराजित किया था तथा एकमुश्त पडने वाले मुस्लिम वोटों की वजह से ही डॉ. सुनील देशमुख को वर्ष 2009 के विधानसभा चुनाव में भी हार का सामना करना पडा था. जबकि वे उस समय दो बार के विधायक रह चुके थे. ऐसे में यदि सुलभा खोडके द्वारा कांग्रेस छोडकर भाजपा का दामन थामा जाता है, तो स्वाभाविक तौर पर उनके हाथ से उनके तमाम मुस्लिम मतदाता छिटककर दूर हो जाएंगे.
इसके साथ ही भाजपा में जाने पर खोडके दम्पति के साथ से मराठा व कुणबी लॉबी भी छिटक सकती है. क्योंकि मराठा व कुणबी हमेशा से कांगे्रस व राकांपा के परंपरागत वोटर रहे है. ऐसे में यदि कांग्रेस की ओर से पूर्व विधायक डॉ. सुनील देशमुख या फिर विलास इंगोले की दावेदारी आती है, तो स्वाभाविक तौर पर मराठा व कुणबी वोटों के साथ-साथ मुस्लिम वोटों का समर्थन देशमुख अथवा इंगोले के साथ रहेगा. जिसके चलते सुलभा खोडके के लिए भाजपा में राजनीतिक राह आसान नहीं रहेगी.
* भाजपा में डॉ. देशमुख की तरह हश्र होने का भी खतरा
यहां पर यह भी नहीं भूला जा सकता कि, स्थानीय स्तर पर अन्य दलों के नेतृत्व को खत्म करने के संदर्भ में भाजपा की अपनी एक रणनीति काम करती है तथ इस तथ्य से भी कोई अनजान नहीं है कि, वर्ष 2014 में डॉ. सुनील देशमुख को भाजपा में लाकर विधायक निर्वाचित करने के बाद वर्ष 2019 के विधानसभा चुनाव में खुद भाजपा के ही कई पदाधिकारियों ने डॉ. सुनील देशमुख की जीत में अडंगा डालते हुए उनकी हार का रास्ता खोला था. जिसका फायदा तब कांग्रेस प्रत्याशी रहने वाली सुलभा खोडके को मिला था. यदि सुलभा खोडके द्वारा आज कांग्रेस छोडकर भाजपा की राह पकडी जाती है, तो आगे चलकर उनका भी पूर्व विधायक डॉ. सुनील देशमुख की तरह हश्र होने की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता.
* राकांपा व शिंदे गुट मेें नहीं कोई विशेष संभावना
वहीं यदि सुलभा खोडके द्वारा कांग्रेस छोडकर अजीत पवार के गुट वाली राकांपा में प्रवेश किया जाता है, तो उन्हें इसका भी कोई विशेष फायदा होता दिखाई नहीं देता. क्योंकि अमरावती शहर में राष्ट्रवादी कांग्रेस का अब पहले जैसा अस्तित्व और प्रभाव नहीं बचा.वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव से पहले अमरावती शहर में राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी की अपनी एक अलग ही ताकत हुआ करती थी, तब एक ही गुट रहने वाली राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी का नेतृत्व अमरावती शहर में खोडके दम्पति द्वारा ही किया जाता था और खोडके दम्पति के नेतृत्व में कांग्रेस ने मनपा की सत्ता भी हासिल की थी. साथ ही जिला परिषद में भी राकांपा का अस्तित्व हुआ करता था. परंतु वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव पश्चात अमरावती में राकांपा एक बार जो बिखरी, तो आज तक पहले की तरह संगठित नहीं हो पायी. वहीं अब राकांपा में दोफाड हो चुकी है, जिसने रही-सही कसर भी पूरी कर दी है और अमरावती में इस समय अजीत पवार गुट वाली राकांपा की ओर से संजय खोडके के अलावा अन्य कोई चेहरा ही नहीं. ऐसे में राकांपा में जाकर भी सुलभा खाडके को एक तरह से जमीनीस्तर से ही शुरुआत करनी पडेगी. इसके अलावा यदि सुलभा खोडके द्वारा शिंदे गुट वाली शिवसेना में जाने के बारे में सोचा जाता है, तो वहां भी कमोवेश यहीं स्थिति है. क्योंकि शिंदे गुट वाली शिवसेना का भी अमरावती में कोई खास अस्तित्व नहीं है.
* शहर में खोडके की अपनी स्वतंत्र कांग्रेस
इन तमाम संभावनाओं को देखते हुए फिलहाल सुलभा खोडके के लिए कांग्रेस ही सबसे मुफिद राजनीतिक दल दिखाई दे रहा है. परंतु स्थानीय स्तर पर कांग्रेसियों के बीच अपनी स्वीकार्यता नहीं रहने के चलते खुद विधायक सुलभा खोडके कांग्रेस में असहज दिखाई दे रही है. हालांकि कांग्रेस में रहते हुए विधायक सुलभा खोडके ने कांग्रेस व राकांपा के कुछ पदाधिकारियों व समर्थकों का अपने आसपास दायरा बनाते हुए अपने लिए एक स्वतंत्र व मिलीजुली कांग्रेस स्थानीय स्तर पर बना रखी है. जिसमें उन्हें उनके पति व राकांपा नेता संजय खोडके का भी पूरा साथ व सहयोग मिलता है. परंतु उस छोटे से गुट के दम पर विधानसभा चुनाव की वैतरणी पार करना फिलहाल संभव दिखाई नहीं देता. ऐसे में अब यह देखना दिलचस्प होगा कि, अपने राजनीतिक भविष्य के लिए विधायक सुलभा खोडके द्वारा क्या निर्णय लिया जाता है और उनके इस निर्णय मेें उनके पति व राकांपा नेता संजय खोडके की क्या भूमिका रहती है. इस बात की ओर सभी लोगों की बडी उत्सुकता के साथ निगाहें लगी हुई हैं.
* अजित पवार की बात टालना संभव नहीं, वे जो कहेेंगे वहीं होगा
यद्यपि सुलभा खोडके विगत कुछ वर्षों से कांग्रेस में हैं, लेकिन उनका पलडा हमेशा ही राकांपा की ओर झुका रहा. इस बात से कोई इंकार नहीं किया जा सकता. साथ ही संजय खोडके तो पूरी ताकत के साथ अजीत पवार के समर्थन में डटे हुए है. जानकारी तो यह भी सामने आयी है कि, विधान परिषद में राज्यपाल नामित विधायकों के लिए जिन 12 लोगों के नामों की सूची तैयार की गई थी, उसमें अजीत पवार गुट की ओर से संजय खोडके का भी नाम शामिल था. यानि अजीत पवार की भी संजय खोडके पर पूरी मेहर नजर है. ऐसे में खोडके दम्पति के लिए अजीत पवार की बात को टालना बिल्कुल भी संभव नहीं है. जिसके चलते यह तय है कि, अजीत पवार जैसा कहेंगे, उसी हिसाब से खोडके दम्पति द्वारा आगे के लिए निर्णय लिया जाएगा. ऐसे में अब यह देखना दिलचस्प होगा कि, आखिर खोडके के राजनीतिक भविष्य के लिए अजीत पवार द्वारा क्या तय किया जाता है.
* 4 साल से यश खोडके सक्रिय, पर फिलहाल चुनाव लडने की संभावना नहीं
यहां यह भी विशेष उल्लेखनीय है कि, खोडके दम्पति के सुपुत्र यश खोडके भी विगत 4 वर्षों से राजनीति में सक्रिय है और राष्ट्रवादी युवक कांग्रेस में जमकर काम भी कर रहे है. जिनकी सक्रियता को देखते हुए यह माना जा रहा है कि, खोडके दम्पति द्वारा अपनी अगली पीढी के लिए अभी से ही राजनीतिक जमीन तैयार की जा रही है. परंतु इस बात की संभावना बेहद कम है कि, यश खोडके को इसी बार विधानसभा चुनाव के मैदान में उतारा जाये. यदि ऐसा होता है, तो इसे एक जल्दबाजी वाला फैसला कहा जा सकता है.
* निर्णय व तैयारियों के लिए समय बेहद कम
बता दें कि, आगामी दो-ढाई माह में लोकसभा के चुनाव होने वाले है. जिसके साढे तीन या चार माह बाद ही विधानसभा के चुनाव होंगे. यानि इस समय विधानसभा चुनाव होने में 8-9 माह का समय बचा हुआ है, जिसे पाला बदलकर नये सिरे से तैयारियां करने के लिहाज से बेहद कम समय कहा जा सकता है. वहीं यदि विधायक सुलभा खोडके द्वारा आज ही इस बारे में कोई निर्णय ले लिया जाता है, तो उनके विरोध में रहने वाले कांग्रेस के स्थानीय नेताओं के लिए मैदान अभी से खुला हो जाएगा. क्योंकि उस स्थिति में विधायक सुलभा खोडके की कांग्रेस में दावेदारी खत्म हो जाएगी. इन तमाम हालात को देखते हुए कहा जा सकता है कि, विधायक सुलभा खोडके के लिए कुलमिलाकर स्थिति ‘इधर कुआं, उधर खाई’ वाली हो चुकी है. ऐसे में विधायक सुलभा खोडके सहित उनके पति संजय खोडके द्वारा क्या निर्णय लिया जाता है तथा खोडके दम्पति के लिए उनके नेता अजीत पवार द्वारा क्या निर्देश जारी किया जाता है. इस ओर सभी की निगाहें लगी हुई हैं.

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