‘भाउला खिसे नाही’, चुनावी चटपट हुई शुरु
कार्यकर्ताओं व समर्थकों की अब नेताओं को लेकर चलने लगी चर्चा
अमरावती/दि.23 – विधानसभा चुनाव की धामधूम शुरु होते ही चुनाव लडने के इच्छुक प्रत्याशियों के आसपास कार्यकर्ताओं व समर्थकों का जमावडा लगना शुरु हो गया है. इसमें से कुछ कार्यकर्ता व समर्थक ऐसे भी है, जो चुनाव का समय नजदीक आते ही ‘खर्चा-पानी’ प्राप्त होने की आस में प्रत्याशियों के पास खींचे चले आते है. इसके अलावा और भी कई ऐसे घटक होते है, जिन्हें चुनाव के समय प्रत्याशियों से अच्छी खासी कमाई हो जाने की उम्मीद रहती है. लेकिन चुनाव के अलावा अन्य पूरा समय अपने नेताओं के साथ बने रहने वाले उनके खासमखास कार्यकर्ताओं द्वारा ऐसे लोगों को चुनाव के समय यह कहते हुए ‘टरकामाइसिन’ दिया जा रहा है कि, ‘भाउला खिसाच नाही आहे’ यानि हमारे भाउ की पैंट-शर्ट में जेब मतलब पैसा ही नहीं है, तो तुम्हे कहां से दे, ऐसा जवाब मिलने वाले नेताओं को लेकर इस समय उनके चुनावी कार्यकर्ताओं व समर्थकों में अच्छी खासी चुनाव चटर-पटर भी शुरु हो गई है.
उल्लेखनीय है कि, किसी जमाने में राजनीति को जनता के प्रति सेवाभाव, विकास की सोच व आम लोगों की भलाई के साथ अपनी विचारधारा को लेकर आगे बढने का बेहतरीन माध्यम माना जाता था. इस देश में पूर्व प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री व अटलबिहारी बाजपेयी सहित जयप्रकाश नारायण, राममनोहर लोहिया व जॉर्ज फनॉर्टीस के साथ ही कई ऐसे अनगिनत नेता हुए जिन्होंने राजनीति को जनसेवा का माध्यम माना और वे हमेशा ही अपनी राजनीतिक विचारधारा के साथ भी जुडे रहे, लेकिन पिछले 25-30 वर्षों के दौरान राजनीतिक परिदृश्य पूरी तरह से बदल गया है और अब राजनीति केवल हर तरह का जोडतोड करते हुए सत्ता प्राप्त करने का साधन बन चुकी है. सत्ता हासिल करने हेतु अब राजनीतिक पार्टियों में सेंध लगाई जा रही है और विचारधारा से कोई वास्ता नहीं रहने वाले नेताओं द्वारा एक दल छोडकर दूसरे व तीसरे दल में जाते हुए पाला बदला जा रहा है. हालात यहां तक है कि, राजनेताओं द्वारा कपडे बदलने की तर्ज पर राजनीतिक पार्टियां बदली जा रही है. जिसके चलते राजनीति से सेवा का शब्द और भाव कब नदारद हो गया, यह पता ही नहीं चला. येन-केन प्रकारेण तथा साम-दाम व दंड-भेद की नीति को अपनाकर सत्ता हासिल करने की प्रवृत्तिवाले इस दौर में अब चुनाव भी बेहतरीन प्रबंधन, करोडों रुपयों के खर्च और झूठे वादों के सहारे लडे व जीते जाने लगे है. साथ ही इस दौर का एक अनुभव यह भी है कि, अब चुनाव भी वहीं जीतता है, जिसके पास चुनाव के समय करोडों रुपए का खर्च करने की ताकत हो, इसीलिए अब चुनाव आते ही नेताओं की चुनावी बजट और उनके खर्च करने की क्षमता को लेकर जबर्दस्त चर्चाएं शुरु होती है तथा चुनाव में करोडों का खर्च करने वाले प्रत्याशियों के पीछे ही समर्थकों की अच्छी खासी भीडभाड रहती है और ऐसे नेता ही चुनाव भी जीत जाते है.
इस समय भी विधानसभा चुनाव को लेकर चल रही धामधूम के बीच दबे स्वरों में खुलेआम बोला व बताया जा रहा है कि, फलाफला नेता ने चुनाव में खर्च करने के लिए कितने बजट व खर्च की तैयारी कर रखी है. लेकिन इसके बावजूद अमरावती जिले के आठों निर्वाचन क्षेत्र में कई ऐसे भी प्रत्याशी है, जिनके बारे में चर्चा है कि, ‘भाउ के पास जेब ही नहीं है’ यह मुद्दा एक तरह से उन उम्मीदवारों के लिए नाकारात्मक असर भी पैदा करता दिखाई दे रहा है. क्योंकि अगर भाउ के पास जेब ही नहीं रहेगी, तो फिर उनके पास कार्यकर्ता भी कहा से आएंगे. बता दें कि, जिले की 8 में से अमरावती, अचलपुर, बडनेरा व दर्यापुर इन 4 सीटों पर चुनाव लडने जा रहे कुछ प्रमुख दावेदारों के बारे में आम कार्यकर्ता खुले तौर पर उनके पास जेब नहीं रहने की बात कहते देखे जा रहे है. जबकि उन संंबंधित उम्मीदवारों के कट्टर समर्थक अपने नेताओं को यह कहते हुए बचाव कर रहे है कि, जनसेवा को ही सबकुछ मानने वाले उनके भाउ ने जब राजनीति में कुछ कमाया ही नहीं, तो वे बांटेेंगे कहां से. जिस पर आम कार्यकर्ताओं व समर्थकों द्वारा मजाक उडाने वाले अंदाज में कहा जा रहा है कि, सबको मालूम है भाउ ने पूरा जीवन जमकर चांदी काटी है और लबालब जेबे भरी है. ऐसे में अब अगर 5 साल बाद हम अपना हिस्सा मांग रहे है, तो हमें जेब खाली रहने की बात क्या बतायी जा रही है. ऐसे में अब चुनावी खर्चा-पानी मिलने को लेकर प्रत्याशियों की कट्टर समर्थकों व ‘इलेक्शन सीजनल’ समर्थकों में प्रत्याशियों की जेब के खाली अथवा भरी रहने को लेकर अच्छी खासी चुनावी चटपट चल रही है. जिसे आम लोग बडे चटखारे लेकर सुन रहे है और एक-दूसरे को सुना भी रहे है.