अमरावती

मेलघाट में थके हुए हाथियों की सुश्रृषा का रखा जाता है ध्यान

साल में एक बार महिने भर दिया जाता है विश्राम

* सेवाकरी करते है पूरी देखभाल
परतवाडा/दि.4– टाइगर प्रोजेक्ट के तहत वन एवं वन्य जीवों की सुरक्षा के साथ पर्यटन में अहम भूमिका निभाने वाले थके हुए हाथी के पैरों को सुश्रृषा लक्षवेधक है. हर साल हाथियों के पैरों की सुश्रृषा की जाती है. थके हुए पैरों को साल में एक बार शीतकाल में महिने भर लंबी छुट्टी दी जाती है. इस विश्राम दौरान उनसे कोई काम करवाया नहीं जाता. तेल, गरम पानी, और अलग-अलग वनौषधि का उपयोग कर पैर की सिकाई की जाती है. इसे चोपिंग कहा जाता है. काम करते समय थकने वाले पैरों को पडी दरारें भरने के लिए तथा पैरों को मजबूत व निरोगी रखने के लिए लगतार 15 दिनों तक चोपिंग किया जाता है. इस विश्राम दौरान हाथियों को स्वास्थ्यवर्धक, शक्तिवर्धक आहार भी दिया जाता है.
इन काम करने वाले हाथियों को रोजाना सरकार आहार उपलब्ध कराती है. एक हाथी को एक दिन में 10 किलो आटा, एक किलो गुड, एक पाव तेल, और एक पाव नमक यह राशन सरकार देती है. रोजाना शाम में तेल, नमक, आटा एकत्रित कर उसकी कुल 10 रोटियां बनाई जाती है. इनमें से 9 रोटी गुड के साथ भोजन में दी जाती है. तथा सुबह के नाश्ते एक रोटी निकालकर रखी जाती है. शाम के भोजन में और सुबह के नाश्ता में रोटी के साथ गुड देना ही पडता है. गुड के बिना हाथी रोटी खाते ही नहीं. मध्य भारत की पहली हाथी सफारी मेलघाट व्याघ्र प्रकल्प अंतर्गत कोलकास को है. यहां पर हाथी सफारी के लिए राजस्थान, गुजरात सहित अन्य राज्य के पर्यटक आते है. इसके अलावा स्वदेशी सहित विदेशी सैलानियों का भी हाथी सफारी आकर्षण रहा है. हाथी सफारी के निमित्त चंपाकली, लक्ष्मी, जयश्री, और सुंदरमाला नामक चार मादा हाथी पर्यटकों को सेवा दे रही है. वन व वन्यजीवों की सुरक्षार्थ सेवा दे रही है. सफारी दौरान उनके थकने वाले पैरों की वन व वन्यजीव अधिकारी और कर्मचारियों द्वारा विशेष देखभाल व सुश्रृषा की जाती है.

मेलघाट व्याघ्र प्रकल्प अंतर्गत हाथी दत्तक मिलता है. 21 हजार 500 रुपए में एक महिने के लिए हाथी गोद ले सकते है. हाथी की देखभाल का जिम्मा उठाने वाले को इन्कम टैक में 80 जी अंतर्गत छूट मिलती है. हाथी दत्तक लेने के बाद पालकत्व स्वीकारने वाले पालक हाथी को अपने घर नहीं ले जा सकते. लेकिन दत्तक अवधि में वह हाथी संबंधित पालक के नाम से पहचाना जाता है.

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