‘भ्रष्टाचारी’ शिक्षा संस्थाएं और शिक्षक
एक सप्ताह से ब्रिजलाल बियाणी शिक्षा संस्था को लेकर शिक्षा के बाजारीकरण की चर्चाएं चल रही है. यूं तो ब्रिजलाल बियाणी शिक्षा संस्था विदर्भ में एक नामांकित व लब्ध प्रतिष्ठित शिक्षा संस्था है तथा जब भी कक्षा 10 वीं व 12 वीं की बोर्ड परीक्षाओं के नतीजे घोषित होते है, तो सबसे पहले मीडिया का ध्यान बियाणी शिक्षा संस्था द्वारा संचालित शालाओं व बियाणी कॉलेज से उत्तीर्ण होने वाले परीक्षार्थियों की ओर जाता है तथा उस वक्त बियाणी शिक्षा संस्था के सफल विद्यार्थियों से संबंधित खबरे कॉलम भर-भरकर प्रकाशित होती है. परंतु इस समय बियाणी शिक्षा संस्था को लेकर जिस तरह की खबरें सामने आ रही है, महान स्वाधिनता सेनानी व समाजसेवी ब्रजलाल बियाणी द्वारा स्थापित इस शिक्षा संस्था के उजले माथे पर एक तरह से कलंक लग गया है. इन खबरों की वजह से अन्य शिक्षा संस्थाएं भी अब एक तरह से संदेह के घेरे में कही जा सकती है. खुद बियाणी शिक्षा संस्था इस वक्त कई सवालों के कटघरे में है.
बियाणी शिक्षा संस्था का सदस्य रहने वाले प्रशांत राठी ने संस्था में प्राध्यापक का पद रिक्त रहने की बात कहते हुए एक व्यक्ति से 25 लाख रुपए में सौदा तय किया था. जिसमें से 15 लाख रुपए की रकम भी ली. लेकिन संबंधित अभ्यार्थी को नौकरी नहीं दी. बल्कि संबंधित व्यक्ति द्वारा रकम एवं नौकरी को लेकर तगादा लगाये जाने पर उक्त व्यक्ति का अपहरण करते हुए उसे बंधक बनाकर उसके साथ निर्ममतापूर्वक पिटाई की. इस काम में प्रशांत राठी ने कुछ गुंडा टाईप के लोगों की मदद भी ली. जिसका सीधा मतलब है कि, प्रशांत राठी और उन गुंडातत्वों के बीच बेहद मजबूत ‘नेक्सस’ रहा होगा. खुद प्रशांत राठी का पूर्व इतिहास बेहद दागदार रहा है. क्योंकि प्रशांत राठी किसी समय मैन्ड्रेक्स नामक नशे की गोलियों के कारोबार के साथ जुडा हुआ था और अमरावती में विनित ऑर्गेनिक्स नामक कारखाने में मैन्ड्रेक्स की गोलियों का उत्पादन करते हुए उन्हें पाकिस्तान के रास्ते विदेशों में तस्करी के जरिए भेजा करता था. इस मामले में प्रशांत राठी को करीब 12 साल की जेल भी हुई थी. जाहीर है कि, इतने लंबे समय तक जेल के भीतर रहते हुए प्रशांत राठी के कई असामाजिक तत्वों के साथ मधुर संबंध बन ही गये होंगे. जिनका उपयोग अब प्रशांत राठी द्वारा अपने पैसों के दम पर अपने फायदे के लिए किया जाता होगा.
यहीं पर पहला सवाल उपस्थित होता है कि, आखिर प्रशांत राठी जैसा दागदार व सजायाफ्ता व्यक्ति शिक्षादान का पवित्र कार्य करने वाली बियाणी शिक्षा संस्था में क्या कर रहा है और उसे संस्था के सभासदों व पदाधिकारियों द्वारा इस शिक्षा संस्था की कार्यकारिणी में बतौर सदस्य कैसे शामिल किया गया है. कहीं ऐसा तो नहीं कि, संस्था के पदाधिकारी रहने वाले कुछ लोग प्रशांत राठी की इन्हीं ‘खुबियों’ का फायदा उठाते हुए संस्था की आड में खुद जमकर चांदी काटना चाह रहे थे. इसके साथ ही दूसरा सवाल यह भी उपस्थित होता है कि, चूंकि पुंडलिक जाधव के साथ मारपीट और महल्ले नामक दम्पति से नौकरी के नाम पर 15 लाख रुपए की धन उगाही का यह कोई पहला व अकेला मामला नहीं हो सकता, बल्कि इससे पहले भी बियाणी शिक्षा संस्था में कई पदों पर नियुक्तियां होती रही है, तो क्या यह मान लिया जाये कि, प्रत्येक नियुक्ति में इसी तरह से पैसों का लेन-देन होता रहा है और क्या यह नहीं हो सकता कि, इससे पहले भी कई लोगों से पैसा लेने के बावजूद उन्हें नौकरी देने की बजाय उनके साथ कोई झांसेबाजी नहीं की गई होगी. ध्यान देने वाली बात है कि, फ्रेजरपुरा में पुंडलिक जाधव द्वारा दर्ज कराई गई शिकायत से पहले सिटी कोतवाली पुलिस थाने में दो लोगों द्वारा शिकायत दर्ज कराते हुए आरोप लगाया गया था कि, प्रशांत राठी ने उनके साथ 5-5 लाख रुपए की जालसाजी की थी. हालांकि इस मामले में पुलिस थाना स्तर पर ही ‘समझौता’ कराते हुए मामले को रफा-दफा कर दिया गया था, तो सवाल उपस्थित होता है कि, आज अमरावती पुलिस द्वारा इस मामले में जिस तरह की गंभीरता दिखाई जा रही है, ठीक उसी तरह की गंभीरता इससे पहले दर्ज दो मामलों में क्यों नहीं दिखाई दी. यदि ऐसा हुआ होता, तो शायद बियाणी शिक्षा संस्था में नौकरी को लेकर चल रहे पैसों के इस खेल का पहले ही पर्दाफाश हो चुका होता.
यहां यह कहना बिल्कुल भी अतिशयोक्तिपूर्ण नहीं होगा कि, पैसा लेकर नौकरी देने का मामला केवल बियाणी शिक्षा संस्था में ही नहीं चलता, बल्कि सरकार से अनुदान प्राप्त करने वाली लगभग सभी शिक्षा संस्थाओं में यह बेहद आम बात है. जहां पर चपराशी, लिपिक, ग्रंथपाल, शिक्षक अथवा प्राध्यापक जैसे पद पर नियुक्ति पाने के लिए अच्छी खासी मोटी रकम अभ्यार्थियों को अदा करनी पडती है. साथ ही कई बार तो किसी एक पद पर नियुक्ति के लिए बोली वाली स्थिति बन जाती है और जिस अभ्यर्थी द्वारा सबसे अधिक रकम देने का प्रस्ताव दिया जाता है, उसे संस्था में नौकरी मिलती है. पश्चात नियुक्ति मिलने के बाद अभ्यार्थियों द्वारा बडे गर्व के साथ खुलेआम बताया जाता है कि, उन्होंने इतने-इतने रुपए में नौकरी हासिल की है. यदि शिक्षा के क्षेत्र में नौकरी के लिए पैसा ही सबसे बडा मापदंड है, तो फिर शिक्षा से संबंधित मेरीट का क्या महत्व रह जाता है? ऐसी सभी शिक्षा संस्थाओं से यह सवाल पूछा जा सकता है कि, क्या पैसों के दम पर शिक्षक या प्राध्यापक बनने वाले लोग वाकई अपने पेशे और संस्था के प्रति इमानदार रहते होंगे और पूरे समर्पण भाव से विद्यार्थियों को पढाते-लिखाते होंगे? क्योंकि संस्था ने तो उन्हें नौकरी दी नहीं है, बल्कि उन्होंने संस्था को पैसा देकर खुद के लिए नौकरी खरीदी है और उनका सबसे पहला लक्ष्य तो संस्था को अपने द्वारा दिया गया पैसा वापिस निकालना है, ताकि उसके बाद खुदके द्वारा किये गये ‘निवेश’ पर पूरी जिंदगी ‘आकर्षक रिटर्न’ हासिल किया जा सके. ऐसे में बच्चों के शैक्षणिक भविष्य का क्या, यह अपने आप में सबसे बडा सवाल है.
ऐसे में यह कहना भी कतई गैरवादी नहीं होगा कि, ऐसी अनुदानित शिक्षा संस्थाओं की तुलना में गैरअनुदानित व निजी शिक्षा संस्थाएं ज्यादा बेहतर है. जहां पर आज भी शिक्षकों के पढाने-लिखाने से संबंधित मेरीट पर ज्यादा ध्यान दिया जाता है, ताकि विद्यार्थियों व संस्था का रिजल्ट बेहतर रहे. वहीं अनुदान के दम पर ‘गब्बर’ हो चुकी शिक्षा संस्थाओं के नाम का ही वजन इतना अधिक भारी होता है कि, वहां पर प्रवेश लेने के लिए विद्यार्थियों की कतारे लगी होती है. जिनमें कई विद्यार्थी तो ऐसे होते है, जो बोर्ड परीक्षाओं में बेहतरीन प्रदर्शन करते हुए शानदार अंक लेकर आये होते है तथा पढने-लिखने में पहले ही तेजतर्रार रहने वाले ऐसे विद्यार्थी आगे चलकर भी बेहतरीन प्रदर्शन करते है. जिनके दम पर ऐसी शिक्षा संस्थाओं का और भी नाम होता है. वहीं ऐसी बडी नामधारी शिक्षा संस्थाओं में पढना एक तरह का स्टेटस सिम्बल भी होता है. जिसके चलते अंकों के मामले में कमजोर किंतु पैसों के मामले में दमदार रहने वाले अभिभावक अपने पाल्यों को हर कीमत पर इन शिक्षा संस्थाओं में ही दाखिला दिलाना चाहते है. यहीं से मैनेजमेंट कोटा का खेल शुरु होता है और इस कोटे के जरिए ऐसी संस्थाओं के पदाधिकारी जमकर ‘दाम’ कमाते है.
ऐसे में पूरे मामले को देखकर सीधा मतलब निकाला जा सकता है कि, ऐसी अनुदानित शिक्षा संस्थाओं द्वारा दोनों हाथों से चांदी काटी जाती है. एक तरफ तो शिक्षा संस्था में नौकरी देने के नाम पर लाखों रुपयों का ‘नजराना’ स्वीकार किया जाता है. वहीं दूसरी ओर संस्था द्वारा संचालित स्कूल व कॉलेज में एडमिशन देने के लिए डोनेशन भी वसूला जाता है. मजे की बात यह है कि, ऐसा डोनेशन वसूल करने के पीछे तर्क दिया जाता है कि, इस रकम से संस्था का विकास किया जाएगा, जबकि मजे की बात यह है कि, सरकार द्वारा ऐसी संस्थाओं में कार्यरत रहने वाले शिक्षकों व शिक्षकेत्तर कर्मचारियों हेतु वेतन अनुदान देने के साथ-साथ उन्हें समय-समय पर शैक्षणिक व मूलभूत सुविधाओं के विकास हेतु भी सहायता राशि प्रदान की जाती है. साथ ही वरिष्ठ महाविद्यालयों को तो केंद्रीय विश्वविद्यालय अनुदान आयोग से भी अच्छी खासी रकम अनुदान के तौर पर मिलती है. इसके बावजूद विगत दो-तीन दशकों के दौरान किसी भी शिक्षा संस्था के चेहरे-मोहरे में कोई विशेष बदलाव होता दिखाई नहीं दिया. ऐसे में सवाल है कि, नौकरी व एडमिशन की एवज में लिये जाने वाले डोनेशन तथा विभिन्न स्त्रोतों से मिलने वाले अनुदानों से आखिर किसका विकास हो रहा है?
यहां यह भी खास बात है कि, तमाम शिक्षा संस्थाओं का प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष तौर पर राजनीति के साथ सीधा संबंध होता ही है. साथ ही ज्यादातर शिक्षा संस्थाएं तो खुद राजनेताओं व जनप्रतिनिधियों द्वारा ही चलाई जाती है. जिसके चलते प्रशासन भी ऐसी शिक्षा संस्थाओं के संचालकों के समक्ष पानी भरता नजर आता है. जिसके चलते उपर से बडे-बडे आदर्शों की बात करते हुए अंदर से नैतिकता की गठरी बांधकर उसे हाशिए पर रख देने का काम ज्यादातर शिक्षा संस्थाओं मेें बडे ही धडल्ले के साथ होता है. ऐसे में यह सवाल पूछा जा सकता है कि, आखिर ऐसी शिक्षा संस्थाओं में पढने वाले बच्चों के जरिए हम भविष्य के लिए किस तरह की पीढी का निर्माण कर रहे है और सबकुछ खुली आंखों से दिखाई देने के बावजूद भी आखिर शिक्षा संस्थाओं में हो रहे भ्रष्टाचार को रोकने के लिए आखिर कब ठोस व कारगर कदम उठाए जाएंगे. मजे की बात यह है कि, ऐसी अनुदानित शिक्षा संस्थाओं में शिक्षकों व शिक्षकेत्तर कर्मचारियों का वेतन तो एक तरह से सरकार अदा करती है. लेकिन इन शिक्षकों व शिक्षकेत्तर कर्मचारियों के मालिक उस शिक्षा संस्था के संचालक होते है, जो अपनी संस्था में नियुक्ति करने के लिए संबंधितों से पहले ही अच्छा खासा पैसा भी वसूल कर चुके होते है. ऐसे में सवाल पूछा जा सकता है कि, जब सरकार को ही वेतन अदा करना है तथा शैक्षणिक व मूलभूत सुविधा के लिए भी सहायता राशि देनी है, तो फिर शिक्षा संस्था संचालकों की जरुरत ही क्या है. बल्कि सरकार खुद ही इन शिक्षा संस्थाओं का संचालन क्यों नहीं करती तथा ऐसी शिक्षा संस्थाओं में शिक्षकों व प्राध्यापकों की नियुक्ति का मामला अपने हाथ में लेकर ऐसी नियुक्तियों के लिए एमपीएससी के जरिए परीक्षा आयोजित क्यों नहीं करती, यदि ऐसा होता है, तो कम से कम नियुक्तियों की आड में होने वाले भ्रष्टाचार पर लगाम जरुर लगाई जा सकती है.