यह एक सामान्य व्यवस्था होनी चाहिए कि देश की समूची आबादी की पहुंच अच्छी शिक्षा तक हो और वह देश के विकास में अपनी भूमिका निभाए. मगर विकासशील देशों में विकास के अन्य मोर्चों पर काम करते हुए शिक्षा को शायद प्राथमिकता सूची में अहमियत नहीं मिल पाती. स्वाभाविक ही इसका असर सभी पक्षों पर पड़ता है और उसकी गुणवत्ता प्रभावित होती है. कानूनन से होना यह चाहिए कि सरकार हर स्तर पर सर्वेक्षण करा कर स्कूलों की जरूरत को चिह्नित करे और जरूरतमंद आबादी के लिए स्कूल और अच्छी शिक्षा-दीक्षा सुनिश्चित करे. मगर संसाधनों की कसौटी पर प्राथमिकता सूची में वाजिब जगह न मिल पाने की वजह से इस दिशा में वक्त पर पहल नहीं की जाती. नतीजतन, बाद में तस्वीर और बिगड़ती जाती है और कई बार चालू स्कूलों को भी बंद करने की नौबत आती है.
राज्यसभा में केंद्र सरकार ने एक सवाल के जवाब में बताया कि पिछले चार साल के दौरान देश भर में इकसठ हजार से ज्यादा सरकारी स्कूल बंद हो गए. हालांकि इसके साथ ही सरकार ने यह भी बताया कि पिछले तीन सालों में सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले विद्यार्थियों की तादाद में एक करोड़ तेईस लाख की बढ़ोतरी हुई. यह अपने आप में एक विचित्र बात है कि जिस अवधि में विद्यार्थियों की संख्या बढ़ी, उसी बीच भारी संख्या में स्कूल बंद हुए. सवाल है कि आखिर वे कौन-सी स्थितियां थीं कि विद्यार्थियों की बढ़ती तादाद की जरूरतों के मद्देनजर जहां स्कूल बढ़ने चाहिए थे, वहां उनकी संख्या कम हुईं. क्या यह मान लिया गया कि जितने विद्यार्थी सरकारी स्कूलों में नामांकित हैं, उनकी जरूरतों के मद्देनजर पर्याप्त स्कूल हैं? अनेक मौकों पर ऐसी खबरें आती रही हैं कि ज्यादातर स्कूलों में क्षमता से अधिक विद्यार्थी हैं और कक्षाओं में शिक्षक-विद्यार्थी अनुपात में भारी असंतुलन है. इन वजहों से स्कूलों में पढ़ाई-लिखाई की गुणवत्ता गंभीर रूप से प्रभावित होती है.
स्कूलों को बंद करने के पीछे आमतौर पर वजह यह बताई जाती है कि उस जगह पर उसकी जरूरत नहीं थी. यह संभव है कि एक जनप्रतिनिधि या सामुदायिक मांग के आधार पर किसी जगह स्कूल तो खोल दिए जाते हैं, मगर वहां पर्याप्त विद्यार्थी दाखिला नहीं ले पाते. मगर एक ही समय में विद्यार्थियों की संख्या में इजाफा हो रहा है और दूसरी ओर स्कूल बंद किए जा रहे हों, तो उसे कैसे देखा जाएगा. दरअसल, पिछले करीब ढाई सालों में कोविड महामारी से बचाव के तर्क पर जब पूर्णबंदी लागू हुई, तो उसकी वजह से देश में बड़ी संख्या में लोगों की आर्थिक स्थिति बुरी तरह प्रभावित हुई. मजबूरन बहुत सारे परिवारों ने निजी स्कूलों का खर्च नहीं जुटा पाने के चलते अपने बच्चों को वहां से हटा लिया और उनका दाखिला सरकारी विद्यालय में कराया. स्वाभाविक ही इन स्थितियों का दबाव मौजूदा सरकारी स्कूलों पर बढ़ा, जहां विद्यार्थियों की संख्या में काफी बढ़ोतरी हुई.
इसके समांतर आज भी यह सवाल अपनी जगह कायम है कि देश भर के सरकारी स्कूलों में शिक्षकों के लाखों पद खाली पड़े हैं. ऐसे में यह एक जटिल स्थिति है कि विद्यार्थियों की बढ़ती संख्या, घटते स्कूल और शिक्षकों की कमी के बीच गुणवत्ता आधारित या अच्छी शिक्षा कैसे मुहैया कराई जाएगी. यह ध्यान रखने की जरूरत है कि किसी भी देश के विकास की बुनियाद इस बात पर टिकी होती है कि वहां शिक्षा की सूरत कैसी है और इसे लगातार बेहतर करने की दिशा में सरकारें क्या कदम उठा रही हैं.