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मीडिया की वजह से लोकतंत्र नहीं है, बल्कि लोकतंत्र की वजह से मीडिया है

वरिष्ठ पत्रकार डॉ. उदय निरगुडकर का कथन

* एक दिवसीय पत्रकार कार्यशाला में किया मार्गदर्शन
* ‘आज की पत्रकारिता’ विषय पर दिया व्याख्यान
अमरावती/दि.18- अमूमन मीडिया क्षेत्र से जुडे लोगों में यह गुमान होता है कि, वे मानो लोकतंत्र के पहरेदार है और उनकी वजह से ही लोकतंत्र टिका हुआ है. जबकि हकीकत में स्थिति बिल्कूल इससे उलट है. क्योंकि मीडिया की वजह से लोकतंत्र नहीं है, बल्कि लोकतंत्र है, इस वजह से मीडिया का अस्तित्व है. अन्यथा दुनिया के जिन देशों में लोकतंत्र नहीं है, वहां मीडिया और मीडिया कर्मी किस हाल में है. इसे देख लिया जाना चाहिए. ऐसे में जिस तरह लोकतंत्र में मीडिया को सम्मान दिया जाता है, उसी तरह मीडिया की भी जिम्मेदारी बनती है कि, लोकतांत्रिक व्यवस्था और लोकतांत्रिक व्यवस्था के जरिए चुनी गई सरकार का सम्मान किया जाए. इस आशय का प्रतिपादन आईबीएन लोकमत और जी-24 तास के पूर्व संपादक डॉ. उदय निरगुडकर द्बारा किया गया.
संगाबा अमरावती विद्यापीठ के जनसंपर्क विभाग, जिला मराठी पत्रकार संघ और श्रमिक पत्रकार संघ व्दारा संयुक्त रुप से आज 19 अगस्त को विद्यापीठ परिसर स्थित डॉ. के. जी. देशमुख सभागार में ‘आजची पत्रकारिता’ विषय पर कार्यशाला का आयोजन किया गया था, जिसके उद्घाटन सत्र को संबोधित करते हुए वरिष्ठ पत्रकार डॉ. उदय निरगुडकर ने उपरोक्त प्रतिपादन किया. विद्यापीठ के कुलगुरु डॉ. प्रमोद येवले की अध्यक्षता में आयोजित इस उद्घाटन सत्र में बतौर प्रमुख अतिथि दैनिक लोकमत मुंबई के सहयोगी संपादक यदु जोशी, यशदा पुणे के संचालक राजीव साबडे, विवि के कुलसचिव डॉ. तुषार देशमुख, जिला मराठी पत्रकार संघ के अध्यक्ष व अमरावती मंडल के संपादक अनिल अग्रवाल एवं श्रमिक पत्रकार संघ के अध्यक्ष गोपाल हरणे तथा सिनेट सदस्य गिरीष शेरेकर उपस्थित थे.
इस समय अपने संबोधन में डॉ. निरगुडकर ने आगे कहा कि, आजादी पूर्व काल का दौर अलग था और उस दौर की पत्रकारिता भी काफी अलग थी. परंतु अब हालात काफी बदल चुके है. अत: पत्रकारिता के तरीके व तेवर में भी मौजूदा दौर के लिहाज से बदलाव होने चाहिए. क्योंकि पहले की तुलना में आज पत्रकारिता का क्षेत्र काफी अधिक लागत वाला क्षेत्र हो गया है. आज किसी भी अखबार के अंक की एक प्रतिलिपी 20 रुपए की पडती है. जिसे महज 5 रुपए में बेचना होता है. ऐसे मेें लागत खर्च निकालने हेतु विज्ञापनों का सहारा लेना ही पडता है. साथ ही पाठकों की पसंद पर खरा उतरने के लिए 12 व 16 पन्ने का बहुरंगी अखबार भी निकालना होता है. जिसमें कई सकारात्मक व सार्थक खबरों के साथ चटपटी व मसालेदार खबरों को भी स्थान देना ही पडता है. इसके अलावा इन दिनों सबसे बडी चुनौती यह भी है कि, लोगों में वाचन संस्कृति तेजी से कम हो रही है. और आज का युवा वर्ग तो अगले दिन के अखबार का इंतजार करने की बजाय अपने मोबाइल व टैब पर फटाफट खबरे देखना चाहता है. ऐसे में शायद हम अपने वाचकों को शायद वह सब नहीं दे पा रहे है. जो वाचक को उम्मीद होती है. इसके अलावा सबसे बढी त्रासदी यह भी है कि, पहले अखबारों के वाचक हुआ करते थे और इन दिनों वाचक की बजाय ग्राहक होने लगे है. इसके अलावा प्रिंट मीडिया को इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से भी कडी प्रतिस्पर्धा का सामना करना पड रहा है और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में खुद ही काटे की टक्कर चल रही है. क्योंकि हर किसी को बिना आगे पीछे सोचे केवल खबर ब्रेक करने और सबसे पहले ब्रेकिंग न्यूज देने की जल्दबाजी पडी हुई है. इस चक्कर में इस बात का विचार ही नहीं किया जा रहा कि, अगर गलती से कोई भ्रामक खबर दे दी जाती है, तो उसका आगे चलकर क्या असर हो सकता है.
सोशल मीडिया के इस दौर पर तंज कसते हुए डॉ. उदय निरगुडकर ने कहा कि, मौजूदा दौर में भी चौक-चौराहों पर खाली फुकट बैठकर दूसरों को नसीहत देने वाले लोग बहोत है. जिनमें से कुछ लोग तो सीधे देश के प्रधानमंत्री को भी नसीहत देने में आगे-पीछे नहीं देखते. भले ही खुद उन्होंने अपनी निजी जिंदगी में कोई बडा काम न किया हो, या कोई सफलता हासिल न की हो, लेकिन ऐसे लोग प्रधानमंत्री को यह सलाह देते मिल जाएगे कि, देश में सरकार कैसी चलानी चाहिए. वहीं देश में आज भी 35 फीसद लोग ऐसे है, जो कभी अखबार नहीं पढते. वहीं 45 फीसद लोग ऐसे में जो टीवी नहीं देखते. इसके अलावा टीवी देखने वाले लोगों में से ज्यादातर लोग अध्यात्म वाले चैनल, कार्टून और फिल्म सहित मनोरंजन वाले कार्यक्रम देखते है. ऐसे लोगों को न्यूज चैनलों पर खबर देखने से कोई वास्ता नहीं रहता. लेकिन ऐसे लोग भी अखबारों व समाचार चैनलों के साथ-साथ सरकारों को सलाह देने में सबसे आगे दिखाई देते है. ऐसे लोग अखबारों व चैनलों को फटाक से बताते है कि, क्या दिखाना और छापना चाहिए तथा सरकार ने किस तरह से काम करना चाहिए. ऐसे दौर में आज की पत्रकारिता को वाकई चुनौतिपूर्ण कहा जा सकता है. जिसकी वजह से मौजूदा दौर के पत्रकारों की जिम्मेदारी काफी अधिक बढ जाती है. इन सभी बातों को ध्यान में रखते हुए मौजूदा दौर के पत्रकारों में इस मुगालते को अपने दिमाग से बाहर निकाल देना चाहिए कि, मीडिया की वजह से देश में लोकतंत्र चल रहा है. बल्कि इस बात को जल्द से जल्द समझ लेना चाहिए कि, चूंकि देश में लोकतंत्र है, इसीलिए मीडिया का अस्तित्व भी है. अपनी इस बात को उदाहरण सहित समझाते हुए डॉ. उदय निरगुडकर ने इशारों ही इशारों में आपातकाल के दौर की याद भी दिलाई और कहा कि, आजादी पश्चात जब इस देश में कुछ समय के लिए लोकतंत्र को बंधक बना लिया गया था, तब मीडिया को सेंसरशीप के जिस दौर से गुजरना पडा था. उसे देखते हुए समझा जा सकता है कि, देश में जब तक लोकतंत्र सुरक्षित है, तभी तक मीडिया और अभिव्यक्ति की आजादी का अधिकार भी सुरक्षित है. अन्यथा जिन-जिन देशों में लोकतंत्र की बजाय राजशाही या तानाशाही वाला शासन चल रहा है, वहां पर मीडिया और मीडिया कर्मियों की क्या स्थिति है. इसका आकलन यहीं बैठे-बैठे बडी आसानी से किया जा सकता है.
उद्घाटन सत्र में प्रास्ताविक विद्यापीठ के जनसंपर्क अधिकारी डॉ. विलास नांदुरकर, अतिथि परिचय जिला मराठी पत्रकार संघ के अध्यक्ष व दैनिक अमरावती मंडल के संपादक अनिल अग्रवाल तथा संचालन व आभार प्रदर्शन श्रमिक पत्रकार संघ के अध्यक्ष गोपाल हरणे ने किया. इस एक दिवसीय कार्यशाला में शहर सहित जिले के तहसील क्षेत्रों से बडी संख्या में पत्रकारबंधु उपस्थित थे.

लोक विद्यापीठ सर्वाधिक प्रभावी ः यदू जोशी
आपमें सामर्थ्य कितना है और बोलते कितना हो, इस बात का ध्यान सभी ने रखना चाहिए. किसी भी खबर का पहलू एक नहीं रहता, पत्रकारिता में यहीं देखा जाता है. खबर करते समय दोनों पहलूओं को देखना जरुरी होता है. लेकिन सोशल मीडिया जो केवल जानकारी का प्रसार करता है, खुद का मुकाबला करने के लिए प्रिंट और इलेक्ट्रिक मीडिया को साथ आना जरुरी है. प्रिंट मीडिया ध्यान का प्रसार करता है. इस कारण आज भी चैनल से अधिक विश्वसनीय अखबार है. पत्रकारिता में हर क्षेत्र का अभ्यास जरुरी है. जो विद्यापीठ नहीं दे सकता, वह लोक विद्यापीठ में रहकर मिलता है, ऐसा प्रतिपादन लोकमत के सहयोगी संपादक यदू जोशी ने किया. वे ‘सोशल मीडिया व प्रसार माध्यम’ पर बोल रहे थे. उन्होंने कहा कि पत्रकारिता में विश्वसनीयता जरुरी है.
यदू जोशी ने आगे कहा कि सोशल मीडिया के बाद भी अन्य मीडिया का भी इस क्षेत्र में प्रवेश होगा, लेकिन इससे हमें भयभीत होने की आवश्यकता नहीं है. जोशी ने उदाहरण देते हुए कहा कि उन्होंने अखबार के माध्यम से अण्णाभाऊ साठे आर्थिक विकास महामंडल का 385 करोड़ रुपए का घोटाला उजागर किया था. इस कारण उन्हेंं जेल काटनी पड़ी थी, लेकिन उस खबर के कारण 55 अधिकारी सेवा से बर्खास्त किए गए थे. जिस दिन आप कामयाब होंगे, उस दिन आपको लोग मंच पर बुलाकर भाषण देने कहेंगे. लोगों के बीच रहने वाला ही पत्रकार टीक सकता है. विद्यापीठ में पढ़ने वाला पत्रकार यह सब सीख सकता है, इस बात का उन्हें पता नहीं है. इस दूसरे सत्र का संचालन रविंद्र लाखोडे ने तथा प्रमुख वक्ता यदू जोशी का परिचय सीनेट सदस्य तथा तरुण भारत के जिला प्रतिनिधि गिरीश शेरेकर ने किया. आभार प्रदर्शन गौरव इंगले ने किया.


* पत्रकारिता का क्षेत्र गुजर रहा सर्वाधिक चुनौतिपूर्ण दौर से
इस आयोजन के दौरान कार्यशाला में उपस्थित अतिथियों का परिचय देते हुए जिला मराठी पत्रकार संघ के अध्यक्ष तथा दैनिक अमरावती मंडल के संपादक अनिल अग्रवाल ने अपने संबोधन में कहा कि, पत्रकारिता का क्षेत्र हमेशा ही चुनौतियों से भरा हुआ कार्यक्षेत्र रहा है. यहां पर हर दिन एक नई चुनौति का सामना करना पडता है. परंतु मौजूदा दौर में मीडिया को सोशल मीडिया नामक जिस चुनौती का सामना करना पड रहा है. उसका हाल फिलहाल कोई समाधान दिखाई नहीं देता. क्योंकि मीडिया की तरह सोशल मीडिया पर नियंत्रण रखने के लिए कोई संहिता या व्यवस्था नहीं है. ऐसे में जब तक किसी अखबार द्बारा किसी खबर की पुष्टि करते हुए समाचार को तत्थ्यपूर्ण ढंग से प्रकाशित किया जाता है. तब तक सोशल मीडिया पर खबर का नाम देते हुए भ्रामक खबरे या अफवाहें देश सहित दुनिया में फैलकर आग लगा चुकी होती है. ऐसे में बेहद जरुरी है कि, हमें अपने पेशे के लिए पहले से कहीं अधिक सजग व सतर्क रहना होगा. इसके साथ ही संपादक अनिल अग्रवाल ने पत्रकारों, विशेषकर ग्रामीण क्षेत्र के पत्रकारों की सुरक्षा पर अपनी चिंता जताते हुए कहा कि, इन दिनों लोगों की सहनशीलता बेहद कम हो गई है. राजनीति व सार्वजनिक क्षेत्र में सक्रिय रहने वाले लोग अब अपने खिलाफ कोई खबर तो दूर, एक व्यंग्य तक बर्दाश्त नहीं कर सकते और अपने खिलाफ कोई खबर प्रकाशित होने पर किसी पत्रकार के उपर हमला करने या करवाने से भी नहीं चुकते. ऐसे में पत्रकारों को चाहिए कि, वे अपनी जिम्मेदारी के प्रति सजग रहने के साथ-साथ अपने और अपने परिवारों की सुरक्षा को लेकर भी सतर्क रहे. साथ ही जिस तरह से आज इस कार्यशाला के आयोजन हेतु दो पत्रकार संगठनों ने एक साथ आकर अपनी एकजूटता प्रदर्शित की है. उसी तरह पत्रकार सुरक्षा कानून के प्रभावी अमल के लिए भी सभी पत्रकार संगठनों ने अपनी एकजूटता दिखानी चाहिए.

* ग्रामीण क्षेत्र के पत्रकारों की जिम्मेदारी सबसे अधिक
– यशदा के संचालक राजीव साबडे का कथन
इस एक दिवसीय कार्यशाला के तीसरे सत्र में ‘ग्रामीण क्षेत्र की पत्रकारिता व भाषा संवर्धन’ विषय पर अपना व्याख्यान देते हुए भारतीय प्रेस परिषद के पूर्व सदस्य तथा यशदा (पुणे) के संचालक राजीव साबडे ने कहा कि, ग्रामीण क्षेत्र की पत्रकारिता को आज भी सही अर्थों में सच्ची पत्रकारिता कहा जा सकता है. क्योंकि ग्रामीण क्षेत्र के पत्रकारों के काम करने का दायरा बेहद सीमित होता है और वे गांव देहात में लगभग सभी से परिचित और सबकी पहुंच के भीतर होते है. ऐसे में गांव स्तर पर स्थानीय हितों को ध्यान में रखते हुए ग्रामीण क्षेत्र के पत्रकारों द्बारा जनसमस्याओं को उजागर करने की चुनौती पूर्ण की जाती है. साथ ही कई बार इसके लिए खतरा भी उठाया जाता है. ऐसे में कहा जा सकता है कि, ग्रामीण क्षेत्र के पत्रकारों के कंधे पर पत्रकारिता की काफी बडी व महत्वपूर्ण जिम्मेदारी होती है. इसके साथ ही राजीव साबडे ने भाषा के महत्व को अधोरेखित करते हुए कहा कि, इसी समय ग्रामीण क्षेत्र के संवाददाताओं द्बारा अपनी खबर को कागज पर लिखकर जिला कार्यालय के पास भेजा जाता था. जिसे सहायक संपादकों द्बारा अखबारी भाषा में सुधारकर संपादीत किया जाता था. परंतु मौजूदा दौर सूचना व तकनीकी वाला दौर है और आज मोबाइल के जरिए हर किसी के पास इमेल व वॉट्सएप जैसे साधन भी उपलब्ध है. ऐसे में ग्रामीण क्षेत्र के पत्रकारों को चाहिए कि, वे टूटी-फूटी भाषा का प्रयोग करने की बजाय अपनी भाषा को व्याकरण के स्तर पर शुद्ध करें. ताकि उनके द्बारा भेजी गई खबर को कापी करते हुए जस का तस प्रकाशित किया जा सके. क्योंकि कई बार संपादन करने के चक्कर में खबर का मूलभाव कहीं घूम हो जाता है.
पत्रकारिता के क्षेत्र में ग्रामीण पत्रकारिता के महत्व को विशद करते हुए राजीव साबडे ने कहा कि, पूरी दुनिया में भारत अकेला एक ऐसा देश है, जहां पर कई तरह की संस्कृतियां है और विभिन्न तरह की भाषाएं पढी, लिखी व बोली जाती है. ऐसे में भाषाई पत्रकारिता का अपना एक महत्व है और प्रादेशिक भाषाओं में पत्रकारिता करने वाले पत्रकारों, अखबारों व इलेक्ट्रॉनिक न्यूज चैनलों की काफी बडी जिम्मेदारी बनती है. क्योंकि उनकी आवाज गांव की गलियों से लेकर दिल्ली में सत्ता के गलियारों तक सुना जाता है. ऐसे में अपनी जिम्मेदारी को पहचानकर ग्रामीण क्षेत्रों के पत्रकारों में सच्ची पत्रकारिता करने के साथ ही अपनी मातृभाषा के संवर्धन पर भी ध्यान देना चाहिए. साथ ही बिना किसी राजनीतिक दबाव में आए व्यापक जनहित में गांव से संबंधित समस्याओं को उजागर करने का काम करना चाहिए.

शुरुआत में अतिथियों का सत्कार
पत्रकार कार्यशाला के शुभारंभ अवसर पर अतिथियों के हाथों दीप प्रज्वलन किया गया. पश्चात मराठी पत्रकार संघ के अध्यक्ष व दै. अमरावती मंडल के प्रधान संपादक अनिल अग्रवाल के हाथों डॉ. उदय निरगुडकर का सत्कार किया गया. इसी तरह विद्यापीठ के कुलसचिव डॉ. तुषार देशमुख के हाथों कुलगुरु डॉ. प्रमोद येवले तथा कुलगुरु डॉ. येवले के हाथों लोकमत मुंबई के सहयोगी संपादक यदू जोशी, डॉ. उदय निरगुडकर व यशदा के राजीव साबले का शाल व स्मृति चिन्ह प्रदान कर सत्कार किया गया. इसी तरह विद्यापीठ के जनसंपर्क अधिकारी विलास नांदूरकर ने राजीव साबले, मराठी पत्रकार संघ के सचिव प्रमोद घवडे ने सीनेट सदस्य गिरीश शेरेकर का पुस्तक प्रदान कर स्वागत किया.

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