अमरावती

परिवार एक बड़े समाज का भाग हैं तथा विश्व परिवार की सबसे बड़ी इकाई है : श्री माताजी

सहजयोग में माताजी का कथन

अमरावती /दि.11- मानव की भावनात्मक खोज उसे परिवार के सृजन और परिवार के सदस्य के रूप में अपनी अभिव्यक्ति करने तक ले गई। परंतु आधुनिक काल में परिवार नामक संस्था पुरानी बात हो गई है. जो संस्था कभी एकसूत्र में बाँधे रखने का कार्य करती थी आज उसका नियन्त्रण मानव और उनके समाज पर समाप्त हो गया है. इस संस्था के पतन से सामाजिक अव्यवस्था के अतिरिक्त कुछ प्राप्त नहीं हुआ. मानव अति की अवस्था में जीवित रहता है. उनके या तो अति स्व-केन्द्रित परिवार हैं या वे परिवारहीन हैं. अति की दिशा में की गई खोज झूले की तरह अस्थिर करने का कार्य करती है. मानव को केवल इतना ही महसूस नहीं करना चाहिये कि केवल कोमल बच्चों की बढ़ोतरी के लिए ही परिवार अत्यन्त आवश्यक है, उसे यह भी समझना है कि परिवार एक बड़े समाज का भाग है तथा विश्व परिवार की सबसे बड़ी इकाई है. नन्हें बच्चों को परिवार का सुरक्षित आश्रय देने के स्थान पर मनुष्य ने अजीब, कामुक एवं स्वच्छन्द सम्बन्धों का सृजन कर लिया है जिनमें इन बच्चों का पालन-पोषण करना होता है. ये विकृत सम्बन्ध मानव द्वारा स्वच्छन्द समाज की स्थापना के फलस्वरूप हैं. इसका परिणाम स्पष्ट है कि बच्चों को माँ के प्रेम और पिता की सुरक्षा के अभाव में जन्म से ही असुरक्षा भाव के साथ जीना पड़ता है जो व्यस्क पारिवारिक जीवन को त्याग कर पितृत्व और मातृत्व की जिम्मेदारियों से भाग खड़े होते हैं वे अत्यन्त शुष्क व्यक्तित्व और स्वार्थी बन जाते हैं. वे ऐसे समूह बनाते हैं जिनमें निराशा बहुत बड़े परिमाण (स्तर) तक पहुँच जाती है. वे जोड़े जो बच्चे न उत्पन्न करने का निर्णय लेते हैं वे शून्य सम और सनकी बन जाते हैं. क्योंकि उनके जीवन का कोई उद्देश्य ही नहीं रह जाता. बच्चे यदि माता-पिता के प्रेम के अवतरण होंगे तो माता-पिता के उत्क्रान्ति मार्ग की बाधा बनने वाले विनाशकारी गुण शांत हो सकते हैं. परन्तु इसकी अपेक्षा स्वतन्त्रता के नाम पर ये लोग ऐसे समूह बनाते हैं जिनमें निराशा ज्वालामुखी की शक्ति की तरह खड़ी हो जाती है. ऐसे लोग चाहे माता-पिता बनने की पुरानी परम्परा की या नियन्त्रणकारी सामाजिक नियमों की निंदा करते रहें, परन्तु समाज की बाह्य रूप रेखा को बदल कर वे कुछ भी प्राप्त नहीं कर सकते. ऐसे लोग अन्ततः कहीं के नहीं रह जाते. वृक्ष जब अपने साधनों से अधिक बढ़ने का प्रयत्न करता है, तो इसके लिए अपने जीवन का स्रोत खोजना आवश्यक हो जाता है, अन्यथा इसका नष्ट होना अवश्यम्भावी है. मानव सभ्यता ने अपनी बाह्य अभिव्यक्ति और अनुभव में इतनी उन्नति कर ली है कि यह पूरी तरह से असमानुपात (असंतुलन) में चली गई है. अपने स्वभाव की बहिर्मुखी अभिव्यक्ति पर स्वयं को पूरी तरह से केन्द्रित करने के बाद अब इसका अन्तर्मुखी होना या
जीवन के आन्तरिक स्वभाव की ओर मुड़ना आवश्यक हो गया है.
इस संकट काल में सहजयोग का आविष्कार परमात्मा के सर्वव्यापक प्रेम का आशीर्वाद है. यह उस तकनीक का परमेश्वरी प्रतिपादन (व्याख्या) है, जो पूरी मानव जाति के उद्धार को कार्यान्वित करेगा, क्योंकि सहजयोग स्वत: उद्धार की तकनीक है. यह प्रकृति से सम्बन्धित है और साक्षात परमात्मा इसके साक्षी हैं. मानव ने अपना सृजन स्वयं नहीं किया और न ही वह अपना रूपरेखाकार है. अतः भविष्य को भी वही (परमात्मा) कार्यान्वित कर सकता है जिसने ये सारे कार्य किए हैं.
सहजयोग परमात्मा से एकाकारिता का सरल मार्ग है. इसमें आत्मसाक्षात्कार प्राप्ति के पश्चात् सत्य की पहचान व चयन अत्यंत सुगम हो जाता है तथा जीवनशैली संतुलित होने से जीवन आनंदमय हो जाता है.

Related Articles

Back to top button