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फसल मंडी में किसानों को मताधिकार का मामला फिर लटका

अपने ही दल के नेताओं के विरोध के चलते सरकार का यू-टर्न

मुंबई/दि.9- सहकारी संस्थाओं में कांग्रेस व राष्ट्रवादी कांग्रेस के एकाधिकार को हटाने के लिए फसल मंडियों के चुनाव में किसानों को सीधे मतदान का अधिकार देने का निर्णय शिंदे-फडणवीस सरकार द्वारा लिया गया था. लेकिन सहकार क्षेत्र से वास्ता रखनेवाले अपने ही दल के नेताओं द्वारा किये जाते प्रखर विरोध को देखते हुए इस फैसले पर अमल को फिलहाल प्रलंबित रखने का निर्णय राज्य सरकार को लेना पडा है. ऐसे में यह मामला फिलहाल अधर में लटक गया है.
बता दें कि, बाजार समितियों के चुनाव में गांव की सेवा सहकारी सोसायटी के संचालक तथा ग्राम पंचायत सदस्यों को मतदान का अधिकार रहता है और अमूमन ग्रामीण क्षेत्र से वास्ता रखनेवाली सोसायटियों व ग्राम पंचायतोें में हमेशा ही कांग्रेस व राष्ट्रवादी कांग्रेस का ही बोलबाला व दबदबा रहता आया है. जिसके चलते फसल मंडी के संचालक मंडल में भी कांग्रेस व राष्ट्रवादी कांग्रेस का ही प्रभुत्व दिखाई देता है. जिसे खत्म करने हेतु भाजपा-सेना युती सरकार के कार्यकाल दौरान बाजार समिती के चुनाव में मतदान का अधिकार फसल मंडी के साथ व्यवहार करनेवाले सभी किसानों को देने का निर्णय तत्कालीन मुख्यमंत्री देवेेंद्र फडणवीस द्वारा लिया गया था. पश्चात इसी फैसले के अनुसार कई फसल मंडियों के चुनाव भी हुए. लेकिन इस चुनाव पध्दति में काफी अधिक पैसा व समय खर्च होता था. जिसे देखते हुए पिछली महाविकास आघाडी सरकार ने इस फैसले को रद्द कर दिया. परंतु अब राज्य में सत्ता परिवर्तन होते ही उपमुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस ने एक बार फिर बाजार समिती के चुनाव में किसानों को सीधे मतदान करने का अधिकार देने की घोषणा की. जिसे लेकर विगत 14 जुलाई को हुई मंत्रिमंडल की बैठक में निर्णय भी लिया गया कि, जिसके पास कम से कम 10-आर जमीन है और जिसने विगत पांच वर्षों के दौरान कम से कम तीन बार संबंधित बाजार समिती में अपनी कृषि उपज की बिक्री की है, ऐसे किसानों को फसल मंडी के चुनाव में मतदान करने का अधिकार रहेगा. वहीं अब ग्राम पंचायत सदस्यों व सेवा सहकारी सोसायटी के संचालकों का मताधिकार खत्म हो जायेगा. इस निर्णयानुसार पणन कानून में सुधार करने का अध्यादेश निकालने तथा पावस सत्र में विधेयक पेश करने की घोषणा सरकार द्वारा की गई थी. सरकार के इस फैसले के जहां एक ओर किसानों द्वारा स्वागत किया जा रहा है, वहीं दूसरी ओर खुद सरकार के भीतर ही इस फैसले का विरोध होना शुरू हो गया है, क्योंकि सहकार क्षेत्र से वास्ता रखनेवाले सत्ता पक्ष से जुडे कई वरिष्ठ नेता ही इस फैसले का प्रखर विरोध कर रहे है. यहीं वजह है कि, दो माह का समय बीत जाने के बावजूद यह मामला फाईलों में ही अटका पडा है.
इस संदर्भ में पणन विभाग के सुत्रों से मिली जानकारी के मूताबिक नई सरकार ने सस्ती लोकप्रियता के चक्कर में किसी भी तरह की जांच-पडताल किये बिना बडी जल्दबाजी में यह निर्णय तो ले लिया, लेकिन अब इस फैसले का खुद भाजपा व शिंदे गुट द्वारा विरोध किया जा रहा है. विशेष उल्लेखनीय है कि, राज्य में कुल 307 बाजार समितियां है, जिसमें से नवी मुंबई, नासिक, पुणे, कोल्हापुर, लासलगांव व नागपुर जैसी कुछ गिनी-चुनी फसल मंडियां ही आर्थिक रूप से सक्षम है और शेष 50 फीसद से अधिक बाजार समितियां आर्थिक रूप से काफी कमजोर है. जिनके कार्यक्षेत्र में हजारों किसान है. जिन्हें निवार्चन प्रक्रिया में शामिल करते हुए चुनाव करवाना इन बाजार समितियों के लिए काफी खर्चे और घाटेवाला सौदा साबित हो सकता है, क्योंकि मतदाता सूची और मतपत्रिकाएं तैयार करने में ही अच्छा-खासा खर्च हो सकता है. वहीं एक-एक मतदाता से संपर्क करने हेतु चुनाव लडनेवाले प्रत्याशियोें को भी काफी अधिक पैसा, समय और श्रम खर्च करना पडेगा. जिसकी वजह से फसल मंडियों के चुनाव काफी अधिक महंगे व खर्चिले हो जायेंगे. जिसके चलते शिंदे-फडणवीस सरकार के इस फैसले का खुद सरकार में शामिल सहकार क्षेत्र के नेताओं द्वारा विरोध किया जा रहा है.

* इस वजह से अटका फैसला
सहकार क्षेत्र से वास्ता रखनेवाले कई भाजपा नेताओं का यह कहना रहा कि, बाजार समितियों को नई पध्दति से चुनाव करवाने पर काफी अधिक पैसा खर्च करना पडेगा. जिससे फसल मंडियों पर नाहक ही आर्थिक बोझ पडेगा. अत: इस पध्दति से चुनाव पर होनेवाले खर्च का बोझ सरकार ने उठाना चाहिए. वहीं पणन विभाग का कहना है कि, बाजार समितियों से राज्य सरकार को कोई राजस्व प्राप्त नहीं होता. अत: बाजार समिती के चुनाव पर सरकार कोई खर्च क्यो करे. ऐसे में दोनों ओर से हो रहे विरोध को देखते हुए फिलहाल इस फैसले पर अमल नहीं करने का निर्णय मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे द्वारा लिया गया है. जिसके चलते विगत दो माह से यह फैसला फाईलों में अटका पडा है और 283 बाजार समितियों का चुनाव घोषित होने के बावजूद किसानोें को मतदान से वंचित रहना पड रहा है.

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