अमरावती

फिल्में सामाजिक परिवर्तन का प्रभावी माध्यम

देवेंद्र प्रभुणे का प्रतिपादन

* लोकमान्य तिलक व्याख्यान माला का दूसरा पुष्प
अमरावती/दि.28 – व्यावसायिक फिल्मों ने भले ही प्रेक्षकों की वासना को प्रोत्साहित करने का प्रयास किया है लेकिन आजादी के पहले से ही फिल्में सामाजिक परिवर्तन की प्रभावी माध्यम साबित हुई हैं. इस आशय का प्रतिपादन यवतामल के सुख्यात वक्ता देवेंद्र प्रभुणे ने किया. वे नगर वाचनालय द्बारा स्व. गो.गे.राठी सभागार में आयोजित लोकमान्य तिलके व्याख्यान माला के दूसरे पुष्प में बोल रहे थे. अध्यक्षता पुस्तकालय के सचिव रवि पिंपलगांवकर ने की.
समाज पर सिनेमा के प्रभाव विषय पर प्रभुणे ने आगे कहा कि, सिनेमा प्राचीन काल से भारतीयों के जीवन का एक अभिन्न अंग रहा है. यहां हर क्षेत्र के सिनेमाई लोग देखे जा सकते हैं. यह भी महसूस किया जाता है कि, फिल्म शायद वह माध्यम है जो भारत को एक साथ बांधती है. भारत में साहित्य को उच्च दर्जा प्राप्त है, जबकि फिल्मों को निम्न दर्जा प्राप्त है. लेकिन साहित्य को समझने के लिए पढने-लिखने में सक्षम होना अनिवार्य है. यह शर्त फिल्मों के लिए लागू नहीं होती है. इसलिए फिल्म अपने आप में और प्रभावशाली हो गई है. 1913 ेमें दादासाहब फालके ने पहली मूक फिल्म राजा हरिशचंद्र का निर्माण किया. इस पहली फिल्म का उद्देश्य सामाजिक जागरुकता पैदा करना था. दादासाहब ने सामाजिक शिक्षा, सार्वजनिक शिक्षा और सामाजिक जागरुकता के उद्देश्य से फिल्मों का निर्माण किया है. 1920 की रुसी क्रांति के बाद, लेनिन ने फिल्मों का राष्ट्रीयकरण किया, यानि फिल्मों को सरकार के नियंत्रण मेें ला दिया. क्योंकि लेनिन ने महसूस किया कि, फिल्म सभी क्षेत्रों के लोगों को प्रभावित करने का एक प्रभावी माध्यम है. यहां तक कि स्वतंत्रता पूर्व युग के भारतीय फिल्म निर्माताओं ने भी स्वतंत्रता प्राप्त करने के उद्देश्य से सामाजिक मन के परिवर्तन के लिए अपनी फिल्मों का निर्माण किया है. जो विदेशों से उच्च शिक्षित और शिक्षित थे, उन्होंने सामाजिक जागरुकता के लिए भारत में फिल्म निर्माण व्यवसाय शुरु किया और एक अन्य पेशेवर समूह यानि पारसी नाटककारों द्बारा फिल्म निर्माण दर्शकों की भावनाओं, वासनाओं को भडकाने और सिर्फ लाभ कमाने और तिजोरी भरने के लिए किया गया था. बेशक, जो बुरा है, उसका परिणाम जल्दी होता है और जो अच्छा है, उसका परिणाम थोडी देरी से होता है.
समय के साथ फिल्म पेशेवरों और दर्शकों की जरुरतें भी बदलीं. पोशाक, हेयर स्टाइल, व्यवहार ने दर्शकों को व्यावसायिक फिल्मों से प्रभावित किया. लेकिन इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि, सामाजिक जागरुकता के लिए प्रयास करने वाले निर्माताओं का भारतीय समाज पर दूरगामी प्रभाव पडने की बात से इंकार नहीं करने की बात भी प्रभुणे ने अपने व्याख्यान के अंत में कहीं.
व्याख्यानमाला में शैलेंद्र जयवंत, बालासाहब यादगिरे, श्रीकृष्ण चिमोटे, विनायक खोलकुटे, अशोक जोशी, सर्जेराव गलफट, संतोष जयस्वाल, पांडुरंग ताजने, प्रकाश चुने, राजेंद्र कोल्हेकर, गोविंद पोतदार, नामदेव गुल्हाणे, प्रभाकर देशमुख, दीपक कौंडण्य, जगदिश सायसिकमल, विनोद ठाकरे, प्रकाश डबाले, संजय पाटने, गजानन धानोरकर और अन्य गणमान्य उपस्थित थे.

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