मानवभव मिलने के बाद चार बातें अतिदुर्लभ
बडनेरा में चातुर्मास के लिए पधारे गहन वक्ता-पू. गुरुवर्य सेजलबाई म.सा. का कथन
अमरावती/दि.14– मानव भव मिलने के बाद भी चार चीजें अति दुर्लभ बताई गई है. पूर्ण पंचइंद्रिय की प्राप्ती, आर्यक्षेत्र में जन्म, जैन कुल में जन्मना और जिनवाणी सुनने का मौका मिलना. इसलिए मानव भव को रत्नत्रय कहा जाता है.
पूज्य सेजल म.सा. ने अपने प्रवचन में कहा कि, देवता भी जिसके लिए तरसते है ऐसा अमूल्य मानवभव हम सभी को मिला है. हम सभी ने संसार को, परिवार को, धन वैभव को बड़ी कुशलता के साथ संभाला है, अनंत बार जन्म लेकर अनंतोभव इसमें लगा दिये है, लेकिन विचारणीय बात है क्या हमने आत्मा को कभी संभाला है? स्वयं को संभाला? हम सभी प्रमाद, व्यसन, पाप, इंद्रियों, इंद्रियों के पोषण इन सबके गुलाम बनकर रह गये है. आत्मा के स्वभाव को भूलकर इन्द्रियजनित काम-भोग, हास, परिहास, रति आदि सुख की प्राप्ती के लिए जीव दिन-रात, भाग दौड़ में लगा है. स्वयं के आत्मा की चिन्ता न करते हुए पुद्गलों की अभिलाषा के आगे आत्मा की आवाज को दबा दिए है. यह जीव की कितनी दयनीय दशा है ? संसार के मुट्ठी भर सुख के लिए, आत्मा को कितना धोखा दिया है, आत्मा को निरंतर भटका रहे है. भगवती सूत्र के अंदर बताया गया है दुनिया भर की समस्त संपत्ती भी इकट्ठा करले तो वह देवों के एक तिलक के जितना भी मुल्यवान नहीं है, ऐसे देव भी मानव भव को दुर्लभ मानते है, उन्हें अपने सारे भोगविलास काटे के समान लगते है ऐसे देवता जिनकुल में जन्म लेने के लिए भीख माँगते है, ऐसा मुल्यावन भव, अपूर्वसमय, शुभघडी, हमे प्राप्त हुई है, विचार करना पुरुषार्थ करना है अपने अनंती भटकाव को रोकने का उपाय करना है.
इधर आंध्रकुमार बंदुमती को राग के आसक्त होकर संयम लेने की धारणा करते है. बंधुमती को धर्म मे अगाध श्रद्धा, धर्म का प्रभाव इतना गाड़ा की कहती है स्वामी आप मेरे राग के कारण, मेरी बिमारी के कारण संयम की धारणा मत किजिए, आप संयम नहीं ले पायेंगे, ये आपके दुरगति का कारण बनेगा, किंतु सामाईक भावक धारणा धार लेते हैं, बंदुमती तो धीरे-धीरे स्वस्थ हो रही है, खाना बना रही है, चलने फिरने लगी है, आगे की बात अवसर देखकर सामने आयेगी. उधर गौतम स्वामी का पहला भव मंगल सेठ. मंगल सेठ सारी संपत्ती को ओसिरा दिये है धर्म में लग गए है तप भी चालू है, औषध करते है उसमें उन्हें बुखार आ जाता है, धीरे धीरे शरीर की अस्वस्थता को जानकर संथारा लेते है सिर्फ पानी का आगार रखा है, दिन बितते जा रहे है मंगल सेठ समझ गए है की काया नश्वर है माटी का पुतला है निरंतर धर्म में लीन है, दान करते हैं, असाता मे भी समभाव रखते है, और समभाव के आते ही आत्मा अपने स्वभाव मे आ जाती है. हमे भी धर्म में रहते हुए सिद्धू, की और बढ़ना है. साधन के पिछे दौड़ते दौड़ते कही हम सभी से साधना न छुट जाये क्योकी अगर साधना छुट गई, पीछे रह गई तो यह भव भी रिक्त रह जायेगा, सुना रह जाएगा, खाली हाथ आये थे, खाली हाथ चले जायेगे, क्षणिक तृष्णा के लिए शुभ अवसर को खो देगे, आत्मा से परमात्मा बनने का लक्ष चुक जाएगा’ संसार कभी सुख देने वाला नही होता है और धर्म कभी दुःख देते नहीं है. संसार से भव तिरता नहीं है और धर्म संसार से, भवसे, दोनो से तिरा देता है.समझने की बात है इस देह में जब तक जीव है, धर्माचरण करके इस जीवन को सार्थक बनानेवाला व्यक्ति को कभी भी पश्चाताप नहीं करना पड़ता है. यह जीवन धर्म मे रहते हुए, पुरुषार्थ कर करते हुए, स्वतः सुखरूप बन जाता है. अर्चना मनोज गांग ने प्रवचन की यह विस्तृत जानकारी दी.