अमरावती

कहीं हम भूल तो नहीं गए उनको…

अमरावती/दि.15– आज देश को आजाद हुए 75 वर्ष पूरे हो गए हैं. लाखों स्वाधीनता सेनानियों व्दारा किए गए संघर्ष एवं अनेकों क्रांतिकारियों व्दारा दिए गए बलिदान के चलते 15 अगस्त 1947 को देश ब्रिटीश दासता की जंजीरों से मुक्त हुआ था. ऐसे में उन स्वाधीनता सेनानियों एवं क्रांतिकारियों को आजादी का स्वप्नद्रष्टा कहा जा सकता है. जिन्हें आजादी के पश्चात अपने देश में अपनी सरकारों एवं अपने लोगों व्दारा यथोचित सम्मान मिलना आवश्यक था. साथ ही उनकी कहानियों व स्मृतियों को भी संरक्षित किया जाना जरुरी था, ताकि आनेवाले पीढियां उन्हें योग्य सम्मान देने के साथ ही उनकी जीवन एवं संघर्ष से प्रेरणा ले सके. परंतु दुर्भाग्य से कई स्वाधीनता सेनानियों व क्रांतिकारियों के मामले में ऐसा होगा नजर नहीं आया. बल्कि कई गुमनाम स्वाधीनता सेनानियों व क्रांतिकारियों और उनकी कहानियों को लगभग भूला दिया गया. जबकि देश की आजादी के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर करने हेतु तत्पर रहनेवाले उन महान स्वाधीनता सेनानियों ने ऐसी किसी अपेक्षा के बिना ही अपने आप को राष्ट्र की सेवा के लिए प्रस्तुत एवं समर्पित किया था. हालांकि महान क्रांतिकारी रामप्रसाद बिस्मिल के शब्दों में हर स्वाधीनता सेनानी की इतनी इच्छा तो जरुर रही होगी कि ‘शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर बरस मेले, वतन पर मिटनेवालों का यही बाकी निशां होगा.’ वहीं देश की महान गायीका व गान कोकिला लता मंगेशकर ने कवि प्रदीप के शब्दों को सुरों में पिरोते हुए गाया था कि ‘तुम भूल न जाओ उनको, इसलिए कही यह कहानी.’ ऐसे में अब देश के प्रत्येक नागरिक का यह कर्तव्य बनता है कि, आजादी के अमृत महोत्सव पर हम यह आत्मचिंतन, आत्मपरिक्षण एवं आत्मविवेचन करें कि, कहीं हम भूल तो नहीं गए उनको, जिन्होंने देश के लिए खपा दी अपनी जवानी और जिंदगानी.

* स्वाधीनता सेनानी दादा को सम्मान दिलाने पोता कर रहा संघर्ष
– सदाशिव चोपडे को आजादी के अमृत महोत्सवी वर्ष में भी न्याय मिलने की प्रतीक्षा
दर्यापुर तहसील के लखाड गांव में रहनेवाले सदाशिव चिव्हाजी चोपडे ने सन 1942 के चले जाओ आंदोलन में हिस्सा लिया था. साथ ही वे वर्ष 1925 के आसपास से ही स्वाधीनता संग्राम आंदोलन में सक्रीय थे. जिसके चलते उन्हें वर्ष 1930 से 1944 के दौरान अमरावती एवं अकोला की जेलों में कारावास भी भुगतना पडा. जिससे संबंधित पत्र आज भी उपलब्ध हैं. पश्चात राज्य सरकार ने उन्हें वर्ष 1966 में सम्मानपत्र देकर गौरवान्वित भी किया था. साथ ही महाराष्ट्र सरकार के चरित्रकोष में उनका उल्लेख भी हैं. लेकिन सरकारी रिकॉर्ड में उनका नाम आज भी स्वाधीनता संग्राम सेनानी के तौर पर दर्ज एवं उल्लेखीत नहीं है. जिसके चलते 9 अगस्त को क्रांतिदिवस पर अंजनगांव सुर्जी में स्थापित किए गए स्मृति स्तंभ पर स्वाधीनता सेनानियों की सूची में उनका नाम शामिल नहीं हो पाया. ऐसे में सदाशिव चोपडे के पौत्र प्रा. संजय चोपडे आज भी अपने स्वाधीनता सेनानी दादा को उनके हिस्से का सम्मान दिलोन हेतु संघर्ष कर रहे हैं.
इस संदर्भ में जानकारी देते हुए प्रा. संजय चोपडे ने बताया कि, उनके दादा ने अमरावती व अकोला की जेलों में 12 मार्च से 1 मई 1943 के दौरान कारावास भोगा था. जिसका पत्र उपलब्ध है. साथ ही उनके दादा व्दारा स्वाधीनता संग्राम में किए गए उल्लेखनीय कार्य का गौरव करने राज्य सरकार ने वर्ष 1966 में उन्हें सम्मानपत्र प्रदान किया था. जिसकी जानकारी राज्य सरकार के चरित्रकोष में दर्ज है. पश्चात वर्ष 1966 में उनके दादा सदाशिव चोपडे का निधन हो गया. जिसके बाद उनकी दादी को स्वाधीनता संग्राम सेनानियों को दी जाने वाली पेंशन अंतिम समय तक प्राप्त हुई. इसके अलावा प्रतिवर्ष लखाड स्थित जिप शाला तथा शेंडगांव स्थित संत गाडगेबाबा कनिष्ठ महाविद्यालय में प्रथम आनेवाले छात्र अथवा छात्रा को स्व. सदाशिव चोपडे की स्मृति में चांदी का पदक व प्रमाणपत्र देकर सम्मानित करने की परंपरा भी चली आ रही है. परंतु सरकारी रिकॉर्ड में अब भी उनके दादा का नाम स्वाधीनता संग्राम सैनिक के तौर पर दर्ज नहीं है. जबकि महाराष्ट्र सरकार के चरित्रकोष में पृष्ठ क्रमांक 149 पर स्पष्ट उल्लेखीत है कि, सदाशिव चोपडे ने वर्ष 1932 में हुए आंदोलन में हिस्सा लेकर जंगल कानून तोडा था. जिसके लिए उन्हें छह माह का सश्रम कारावास हुआ था. वहीं वर्ष 1942 में हुए भारत छोडो आंदोलन में हिस्सा लेकर सरकारी संपत्ति को नुकसान पहुंचाने के मामले में सदाशिव चोपडे को जेल में 9 महीने तक स्थानबद्ध रखा गया था.

* कृष्णाबाई रंगारी थी जिले की पहली महिला शहीद
– 11 अगस्त 1942 को जोग चौक में हुई थी गोलीबारी
– केवल 28 वर्ष की आयु में दी थी शहादत, चले जाओ आंदोलन में हुई थी सहभागी
देश के स्वाधीनता संग्राम में कई लोगों ने अपने प्राणों की आहुति दी और ब्रिटीश पुलिस की बंदुकों से निकलने वाली गोलियों को हंसते-हंसते अपनी सीने पर झेलकर वीर मरण पाया. इसमें कुछ शहीदों के नाम सरकारी रिकॉर्ड में दर्ज हैं. वहीं कई ऐसे भी स्वाधीनता सेनानी व क्रांतिकारी रहे जिन्हें सरकारी रिकॉर्ड में स्थान नहीं मिल पाया. ऐसे ही स्वाधीनता सेनानियों में मोर्शी तहसील के गणेशपुर की निवासी कृष्णाबाई रंगारी का समावेश है. जो हकीकत में अमरावती जिले की पहली महिला शहीद थी. परंतु सरकारी रिकॉर्ड में जानकारी दर्ज नहीं रहने के चलते ‘चले जाओ’ आंदोलन में शामिल होकर महज 28 वर्ष की आयु में देश की आजादी के लिए अपने प्राणा न्यौछावर करनेवाली शहीद कृष्णाबाई रंगारी की जानकारी न तो इतिहास मेें दर्ज है और न ही इतिहासकारों के पास है. इसे एक तरह से अमरावती जिले का दुर्भाग्य ही कहा जा सकता है.
उपलब्ध जानकारी के अनुसार सन 1942 के अगस्त माह में महात्मा गांधी ने ‘चले जाओ’ आंदोनल की हुंकार भरते हुए देशवासियों को ‘करो या मरो’ का संदेश दिया था. पश्चात 10 अगस्त 1942 को रात 8 बजे अमरावती स्थित जोग चौक में एक सभा का आयोजन किया गया था. इस सभा से पहले ही पुलिस ने आंदोलन का नेतृत्व कर रहे पी. के. देशमुख को गिरफ्तार कर लिया था. लेकिन उसके बावजूद भी वह आंदोलन रुका नहीं, बल्कि और अधिक व्यापक स्वरुप में चलने लगा. उसी आंदोलन में कृष्णाबाई रंगारी भी शामिल थी. पश्चात 11 अगस्त 1942 को अमरावती के सिटी कोतवाली पुलिस थाने पर भारत का राष्ट्रीय झंडा फहराने का निर्णय सत्याग्रहियों व्दारा किया गया. इस सत्याग्रहियों में भी कृष्णाबाई का समावेश था. वहीं दूसरी ओर यह आंदोलन सफल न हो सके इस हेतु आंदोलन को दबाने हेतु ब्रिटीश पुलिस ने काफी तगडा बंदोबस्त लगा रखा था. जिसमें कोतवाली के कलेक्टर वैथरस व डीएसपी गद्रे खुद बंदोबस्त में तैनात थे. पश्चात जोशी मार्केट के पास इकट्ठा हुए सत्याग्रहियों ने पुलिस ने लाठीचार्ज करना शुरु कर दिया. तो दूसरी ओर से जनता ने भी पुलिस पर पत्थरबाजी करनी शुुरु की. इस पत्थरबाजी में कई पुलिसवाले घायल हुए यह देखकर डीएसपी गद्रे ने पुलिस कर्मियों को गोलीबारी करने का आदेश दिया. जिसके बाद पुलिस ने जोशी मार्केट के पास इकट्ठा रहनेवाले सत्याग्रहियों की ओर अपनी बंदुकें तानकर अंधाधुंध फायरिंग करनी शुरु कर दी. जिसकी वजह से वहां पर उपस्थित भीड तितर-बितर होकर इधर-उधर भागने लगी. लेकिन कृष्णाबाई रंगारी ने अपनी छाती पर पुलिस की गोली खाई और पुलिस की बंदुक का सामना करते हुए वह शहीद हो गए. पश्चात पुलिस ने कृष्णाबाई के पार्थिव को अमरावती की जेल के बगल में ले जाकर रात में ही उसका अंतिम संस्कार कर दिया. साथ ही यह खबर फैलकर दुबारा जनक्षोभ न भडके इसका भी ध्यान रखा गया. जिसकी वजह से कृष्णाबाई रंगारी के संघर्ष और शहादत की ओर किसी का ध्यान ही नहीं गया और कृष्णाबाई का बलिदान उपेक्षित व दुर्लक्षित रह गया. हालांकि अमरावती जेल के रिकॉर्ड में कृष्णाबाई रंगारी के बलिदान की जानकारी दर्ज है. ऐसे में बेहत जरुरी है कि अमरावती जिले की पहली शहीद महिला रहनेवाली कृष्णाबाई रंगारी एवं उनके बलिदान को सरकार एवं स्थानीय प्रशासन व्दारा योग्य सम्मान दिया जाए.

* बेनोडा में आजादी के आठ मतवालों ने दी थी शहादत
वर्ष 1942 में 16 अगस्त को बेनोडो शहीद गांव के इतिहास में एक अलौकिक व ऐतिहासिक दिन कहा जा सकता है. इस दिन बेनोडा में रहनेवाले आजादी के दीवानों ने भारत माता की आजादी के लिए स्वाधीनता संग्राम में अपने खून से एक सुनहरा अध्याय लिखा था. ‘चले जाओ’ आंदोलन से प्रभावित होकर 12 अगस्त 1942 को लोणी में चतुर्भुज राठी के नेतृत्व तले मोर्चा निकाला गया था. जिसमें युद्धविरोधी नारेबाजी की गई थी. वहीं दूसरे दिन लोणीवासियों ने पोस्टआफीस को जला दिया था तथा बेनोडो पुलिस स्टेशन के थानेदार निंबालकर से ‘भात माता की जय’ का नारा लगवाया था. पश्चात 14 अगस्त को इत्तम गांव में ग्राममुक्ति आंदोलन छेडा गया था और इसी दिन गुजरी बाजार में आयोजित सभा में सरकार विरोधी भूमिका रखने के चलते बेनोडा के कई कार्यकर्ताओं को अगले दिन 15 अगस्त को गिरफ्तार किया गया था. जिसका संदेश वामनराव पाटिल ने आसपास के सभी गांवों तक भिजवाया और 16 अगस्त को होने वाले आंदोलन की रुपरेखा तय की. जिसके तहत बेनोडा के पुलिस स्टेशन पर तिरंगा झंडा फहराना तय किया गया. ऐसे में 16 अगस्त को इत्तमगांव, लोणी, करजगांव एवं परसोडा के कार्यकर्ता बेनोडा पहुंचकर इकट्ठा हुए. जहां पर वामनराव पाटिल के नेतृत्व में बेनोडावासी पहले से तैयार थे. इस समय वामनराव पाटिल ने जोशपूर्ण ढंग से आहवान करते हुए कहा कि, जिस किसी को मरने से डर लगता हो, वह अभी यहां से वापिस लौट जाए. परंतु उपस्थित लोगों में से एक भी व्यक्ति ने अपने कदम पीछे नहीं खींचे. जिसके बाद दोपहर 2 बजे बेनोडा स्टैंड का परिसर देशभक्तिपूर्ण घोषणाओं से गूंजायमान होने लगा और फिर 5 हजार से अधिक आजादी के दीवानों का मोर्चा बेनोडा पुलिस थाना की ओर बढना शुरु हुआ. परंतु ध्वलगिरी नदी के पुल पर थानेदार निंबालकर, जमादार रामदुलारे व मोहम्मद युनुस, सिपाही रामपदारथ, अब्दुल जब्बार एवं रामसुमेर पहले से मोर्चे का रास्ता रोकने हेतु बंदोबस्त लगाकर तैनात खडे थे. लेकिन मोर्चा रास्ते से पीछे हटने के लिए तैयार नहीं था. उधर दूसरी ओर थानेदार निंबालकर को डिप्टी कमिश्नर मेल्ड्रम ने सख्त आदेश दे रखे थे कि, मोर्चा आगे नहीं बढना चाहिए. ऐसे में मोर्चे को आगे बढने से रोकने हेतु पुलिस ने तीन राउंड में 49 गोलियां दागी. जिसके चलते घटनास्थल पर 5 और इलाज के दौरान 3 ऐसे कुल 8 नरवीर देश की आजादी के लिए शहीद हो गए. इन शहीदों में इत्तम गांव के वीर वामनराव पाटिल, महादेव फंदाडे, तुकाराम माणिकपुरे, लोणी के पांढुरंग मालपे, बेनोडा के महादेव बारमासे, विनायक यावले, महादेव वाघमारे व रामराव गोहाड का समावेश था. वहीं इस गोलीबारी में 18 सत्याग्रही घायल हुए थे. देश की आजादी के लिए अपने प्राणों का उसल करने वाले उन 8 नरवीरों की स्मृति में बेनोडा गांव में आज भी एक स्मृति स्तंभ बना हुआ है. जहां पर प्रतिवर्ष 15 अगस्त व 26 जनवरी को झंडा वंदन करते हुए एक तरह से अपने कर्तव्यों की इतिश्री की जाती है. जबकि जरुरत इस बात की है कि उन महान स्वाधीनता सेनानियों के इतिहास से जिले की नई पीढी को परिचित कराया जाए.

 

 

 

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