अमरावती 12- 16 एवं 17 जनवरी 2023 को उत्तराखंड स्थित भगवान शिव के केदारनाथ धाम के रावल जगद्गुरू श्रीश्रीश्री 1008 भीमाशंकरलिंग शिवाचार्य महास्वामीजी का सनातन धर्मसभा हेतू आगमन हो रहा है. इस आयोजन का हेतू समस्त हिंदू धर्मीय भक्तों को दर्शन हो, सनातन धर्मउपदेश हो. यह आयोजन सांस्कृतिक भवन मोर्शी रोड अमरावती में होनेवाला है. केदारनाथ धाम में स्थित जगद्गुरू परम्परा के बारे में उपलब्ध जानकारी आपके समक्ष रख रहे हैं.
वर्तमान केदारनाथ जगद्गुरू का स्कूल में दर्ज नाम संगय्या है. इन्होंने इण्टरमीडियट शिक्षा के साथ साथ संस्कृत, वेद और ज्योतिष शास्त्र की भी शिक्षा ली. जब वे 16 वर्ष के हुए, तब इनके गुरू दशमुख शिवाचार्य ने इनको सन 1972 वर्ष में नांदेड जिले के ‘शिराडोण मठ’ का पट्टाध्यक्ष बनाया और उन्हें षठ्स्थल ब्रह्म षडक्षर शिवाचार्य नाम से सम्बोधित किया गया है. जब ये जगद्गुरू पद पर आसीन हुए तब इन्हे ‘भीमाशंकर लिंग शिवाचार्य’ नाम से प्रसिध्दि मिली. ‘लिंग’ शब्द रावलजी के जात का संकेत है, ऐसा ‘गढवाल के इतिहास’ नामक पुस्तक में पं. रतूडी ने भी उल्लेख किया है और लिखते हैं कि यह नामकरण परम्परा महाभारत के युग से चली आ रही है. इस तथ्य का समर्थन रमेशचंद्र दत्त ने अपने ग्रंथ ‘भारतवर्ष की प्राचीन सभ्यता का इतिहास’ में किया है. इस प्रकार आचार्य भुकुण्ड लिंग जंगम से इस रावल पदवी की परम्परा शुरू हुई. यह रावल पदवी शिष्य सम्प्रदाय से ही बनाई जाती है. इस तरह 324 जगद्गुरूओ की नामावली दिल्ली सरकार (भारत सरकार) के विभाग में दर्ज है.
केदार पीठ का सिंहासन ग्रहण करने से पूर्व मनोनीत शिवाचार्य को रावल पदवी से सम्मानित किया जाता है. यह परम्परा उत्तराखंड के टिहरी के महाराज के द्वारा सम्पन्न की जाती है. पीढी दर पीढी से यह पद्धति चली आ रही है. इस पीठ के सिंहासन पर विराजमान होने का अधिकार सिर्फ और सिर्फ दक्षिण भारत के जंगम को होता है. ब्रिटिश राज में केदार वैराग्य पीठ की आर्थिक स्थिति बहुत ही बिगड गई थी, क्योंकि ब्रिटिशों ने तब के पीठाधिपति से बलपूर्वक बहुत से क्षेत्र छीन लिये और देश के साथ साथ उनके भी स्वातन्त्र ले लिए. इस स्थिति को देखकर कुमाऊँ विभाग के कमिश्नर ने एक योजना बनाई. उस योजना के अनुसार मठ के सारे नीति एवम् नियम कुमाऊँ विभाग के कमीश्नर करते थे. उन नियमों का पालन आज भी होता चला आ रहा है.
स्वयंभू आगम के अनुसार रेणुकादि पंचाचार्य आदि पुरूष है. हर एक युग में वे इस भूमि पर अवतरित होकर धर्म की रक्षा की है. इन महान आचार्यो में से एक श्री जगद्गुरू एकोरामाराध्य भगवत्पाद शिवाचार्य द्राक्षाराम के भीमनाथलिंग से उद्भव होकर हिमालय की गोद में इस केदार वैराग्य धर्मपीठ की स्थापना की है. आज यह पीठ केदार में पूर्णरूप से स्थापित हो चुका है. इस पीठ की परंपरा पाँच हजार सालों से भी अधिक पुरानी मानी गई है. यह पीठ में उपलब्ध ताम्रपत्र प्राचीनता के सबूत है. केदार वैराग्य पीठ की परंपरा में बहुत से महान तपस्वी योगी आए. इन्ही के अधिकार में कलियुग के प्रारंभ में अर्जुन के परपोते राजा जनमेजय ने जगद्गुरू आनंदलिंग जंगमजी को केदार क्षेत्र के सहित आसपास के विशाल क्षेत्र को भी दानस्वरूप भेंट किया था, जिसके सबूत आज भी ताम्रपत्र पर उपलब्ध है. यह दानशासन उल्लेखनीय है.
हर युग में इस पीठ को एक नये नाम से पहचाना गया है. ऊरवीमठ में मिलनेवाले तथ्यों से यह सिध्द होता है कि सत्ययुग में इस पीठ को वैराग्य पीठ के नाम से पहचानते थे. तब इस पीठ पर श्री त्रैयक्षर शिवाचार्य वैराग्य सिंहासन पर आरूढ्य थे. त्रेतायुग में वैराग्य पीठ को वैराग्य सिंहासन कहा जाता था. द्वापरयुग में इसी वैराग्य सिंहासन को हिमवत् केदार नाम की ख्याति मिली.
केदारनाथ, भरतखंड के द्वादश ज्योतिर्लिंगों में से एक है. अनादिकाल से देवालय इस वैराग्य पीठाधिपति के आधीन में ही है. उसके साथ साथ हिमालय के प्रांत में सुप्रसिध्द गुप्तकाशी, मद्महेश्वर, ऊखीमठ, कालीमठ, उदककुंड, गौरीकुंड, गौरीमाई, तुंगनाथ, त्रिजुगिनारायण, नारायण तीर्थ, नाली भगवती,, मैखंड, सोमद्वार, सब मिलके 22 क्षेत्रों का अधिपति भी केदार जगद्गुरू ही है. इस विषय के बारे में स्कंद पुराण के ‘केदार खंड’ में वर्णन किया गया है.
केदार शब्द का अर्थ है, स्वर्ग का द्वार. पंचपीठों मे से यह एक प्रमुख्य पीठ है. हिमालय की निर्मल प्रकृति के बीच ‘केदार वैराग्य पीठ’ स्थित है. केदार पीठ शिवजी के अघोर मुख का प्रतीक है. इस कारण लिंग पूजा अघोर मुख से की जाती है. केदार वैराग्य पीठ उत्तरांचल के रूद्रप्रयाग जिले में स्थित है. यहाँ के मूल निवासी जगद्गुरू को बुलंद केदारनाथ के नाम से पुकारते हैं और इन्हें भगवान का रूप मानते हैं. जाने अनजाने में अगर किसी से गोहत्या हो जाती है, तो वह ऊखीमठ आकर अपने अपराध को क्षमा पाने की विधि आजकल भी यहाँ उपलब्ध है. गुरूजी से क्षमा प्रमाणपत्र लेकर वह व्यक्ति अपराध से मुक्त हो जाता है. केदार वैराग्य पीठ का ध्वज का रंग नीला है, वैसे ही जगद्गुरू की वेशभूषा भी है. नीला रंग विशालता का द्योतक है, यह नीले आसमान का भी प्रतीक है.
‘शिवागम पुराण’ में लिखा गया है कि ऊखीमठ के दर्शन के बिना (जहां जगद्गुरू का निवास है) केदारनाथ की यात्रा अधूरी है. महाभारत युग से ही यह स्पष्ट होता चला आ रहा है कि, केदारनाथ और वैराग्यपीठ में महत्वपूर्ण सम्बन्ध है. आज भी केदार क्षेत्र वैराग्य पीठ के अन्तर्गत आता है और यह तहसीलदार आफिस में दर्ज है. आज भी संध्या की महामंगल आरती के समय केदारनाथ में जगद्गुरू को राज पोशाक पहनाकर केदार लिंग के समकक्ष बिठाया जाता है और उस मंदिर के अन्य लोग पाण्डवों का वेश धरकर लिंग और जगद्गुरू की आरती उतारते हैं.
इस महान भारतीय धार्मिक परम्परा के जगद्गुरू के चरण अमरावती शहर में पड रहे है. इस पवित्र योग का लाभ समस्त हिंदू परिवारों ने सहपरिवार लेना चाहिए, यह विनम्र प्रार्थना.
केदारनाथ मंदिर के कलश पर वैराग्य पीठ के मूल गुरू एकोरामाराध्य जी के चित्र अंकित किया गया है और वैसे ही चित्र हमें केदार वैराग्य पीठाधिपति के मुकुट पर देखने को मिलती है. यह मुकुट छ: महीने केदार पीठाधिपति के सिर पर धारण रहता है और केदारनाथ के पट (दरवाजा) खुलने पर केदार पीठाधिपति को केदारनाथ लिंग के पीछे बिठाकर पूजन किया जाता है और पीठाधिपति का वह मुकुट लिंग पर पहनाया जाता है. जो शिवजीवैक्य का प्रतीक है, यह शिवाद्वैत सिध्दान्त का प्रतिपादन करता है कि जीव ही ईश्वर और ईश्वर ही जीव है.
– लप्पी जाजोदिया,
कार्याध्यक्ष, सनातन धर्मसभा आयोजन समिती
समाजसेवक, अमरावती.
मो.नं. 9588811111