अमरावती

प्राप्ति, समृद्धि व तृप्ति से जीवन सार्थक

प.पू. माँ कनकेश्वरी देवीजी का कथन

* बडनेरा में चल रही है श्रीरामचरित मानस कथा गंगा
अमरावती/दि.27- माँ कनकेश्वरी देवी जनकल्याण ट्रस्ट अंतर्गत गठित माँ अंबा सत्संग समिति अमरावती द्वारा आयोजित श्री रामचरित मानस कथा गंगा के दूसरे दिवस के सत्र में माँ ने कहा कि रामकथा से जीवन में प्राप्ति, समृद्धि और वृति का लाभ होता है जिससे जीवन में संपूर्णता आती है. प्राप्ति, समृद्धि और तृप्ति का लाभ होने पर प्रभु कथा प्रिय लगने लगती है जीवन में सार्थकता आती है.
मुख्य यजमान सरला सिकची, आनंद सिकची, प्रज्ञा सिकची कथा प्रारंभ के पूर्व माँ का आशीर्वाद लेने वालों में मुख्य संरक्षक सुदर्शन गांग, रामगोपालजी तापडिया श्री रमाकांतजी कुर्तकोटी (गायत्री परिवार बडनेरा डॉ. संपदा सपकाल अकोला, सौ तारा तापड़िया, डॉ.सारंग तापडिया, अभिषेक कडू, वृषभ बरडिया (परतवाडा) दिलीपसिंह रघुवंशी, पंडित अशोक जोशी, धीरज, मुंदडा, मनोज चांडक, लीला शर्मा, विजय दम्मानी इत्यादि मान्यवरों का समावेश रहा.
माँ ने कहा कि देवी संपदा आने पर अपने आप सत्कार्य में रुचि हो जाती है. स्वयं को संयम-नियम में बाँधकर जो साधना की जाती है वह विशेष कल्याणकारी होती है और परमार्थ सिद्ध होता है. संपत्ति बुरी नहीं है वह देवी संपत्ति होनी चाहिये. जिसे जहां जाना है वो पहुँचेगा नहीं जो पहुँचेगा वो वहा जाने का प्रयास नहीं करेगा. माँ ने इशारों में कहा कि संपूर्ण मानव बनने का प्रयास करना चाहिये. अन्याय नहीं हो, अनीति ना हो फिर भले हम साधु-संत ना बन पाएँ लेकिन जीवन सार्थक होगा. सफलता पर बोलते हुए माँ ने कहा कि जरूरी नहीं है कि ज्यादा बुद्धि, ज़्यादा भ्रम से मानव सफल हो जाये किस, सदाचारी बनना अपने आप मैं सर्वोच्च सफलता है. कई बार मूर्ख व्यक्तियों की सेवा में बुद्धिमानों का जीवन बीत जाता है. संपूर्ण सदाचारी बनने में बहुत समय लगता है. सदाचारी बनने का प्रयास ही मानव जीवन को सफल बनाने का एक मात्र उपाय है. पशु-पक्षी अपने आप में अच्छे बनकर ही आते हैं किंतु मनुष्य को अच्छा मनुष्य, सदाचारी मनुष्य बनने के लिये कठोर पुरुषार्थ करना पड़ता है. भौतिक साधन बढ़ने के साथ ही मानव की आत्मिक उन्नति अपेक्षित है किंतु ऐसा बहुत कम दिखता है. सदाचार के अभाव में सारे पुरुषार्थ विपरीत फल देते हैं. हमें प्रतिदिन अपना परीक्षण करना चाहिये. सोचना चाहिये कि क्या हम मनुष्यता का पालन कर रहे हैं. संपूर्ण मनुष्य बनने का प्रयास निरंतर करना चाहिये. विचारों में विवेक होना चाहिये. हम अपने लाभ के लिये किसी और का नुकसान ना करें. अहंकार रूपी हाथी को विवेक रूपी गणेश के अंकुश से वश में रखना चाहिए. हमारे प्रकट अहंकार की अपेक्षा हमारा सूक्ष्म अहंकार ज़्यादा खतरनाक होता है. बुद्धि का विवाह गणेश के साथ होना चाहिये. बुद्धि को विवेक प्रधान होना चाहिये क्योंकि बुद्धि के बिना कोई भी अच्छा या बुरा कार्य नहीं होता. रामचरितमानस के मंगलाचरण पर चिंतन करते हुए माँ ने कहा कि मंगल यानी पवित्र आचरण से ही मानव जीवन संपूर्णता व सार्थकता की ओर अग्रसर होता है. विवेक और वैराग्य पर बोलते हुए माँ ने कहा कि त्याग और वैराग्य भिन्न तत्व हैं. त्याग जब तक वैराग्य नहीं बन जाता तब तक धोखा दे सकता है. विकारों से अरुचि ही प्रगति का लक्षण है. त्याग अहंकार पैदा कर सकता है. वैराग्य के साथ विवेक होना चाहिये. प्रभु से प्रेम तथा विकारों से विरक्ति परम सौभाग्य का लक्षण है जो गुरुकृपा से ही संभव है.
* सुख-दुख की प्राप्ति कर्मो से
सुख दुःख की प्राप्ति कर्मों से होती है. किंतु सुख-दुख की समाप्ति कृपा से होती है. सूख कभी अकेला नहीं आता. सुख-दुःख दोनों जुड़वा भाई है. सुख-दुख की समाप्ति मे ही आनंद है और प्रभुकृपा से ही आनंद मिलता है. ’आदत बुरी सुधार ले, बस हो गया भजन इस भजन के साथ माँ ने मन के छल से सतर्क रहने को कहा. कोई भी कर्म आरंभ में विचार ही होता है जड़ से ही सुधार करना चाहिये. इच्छाओं की पूर्ति में करोड़ों जन्म लगेंगे किंतु सत्संग में थोड़ा समय देने मात्र से करोड़ों जन्मों का कार्य पूर्ण हो जाता है. इच्छा पूर्ति के लिये तो पुरुषार्थ करो किंतु प्रभु से प्रार्थना इच्छाओं की समाप्ति के लिये करो. इच्छाओं का विराम कल्पवृक्ष है. इसका प्रभाव अनंत होता है. जिनके कई बेटे बेटी होते हैं उनके बुढ़ापे में हो सकता है वे बेसहारा हो जाएँ किंतु इच्छाओं के विराम के प्रभाव से साधु मंत्रों के अनंत सेवक होते हैं. रामकथा के माध्यम से मानव जीवन का यथार्थ विकास ही माँ का जीवन लक्ष्य है. मानस के प्रसंगों के आधार पर माँ मानव मात्र का कल्याण चाहती है.

* गुरुकृपा जरुरी
गुरुकृपा क्यों जरूरी है बनाने हुए माँ ने कहा कि महामोह के विनाश के लिये गुरूकृपा अनिवार्य है. शरीर आत्मा का नहीं बल्कि आत्मा शरीर का आधार है. यही विवेक है. आधार बाहर नहीं भीतर होता है. जो समाप्त होता है वह हम नहीं है और जो अजर अमर अविनाशी तय है वह गुरुकृपा से अनुभव में आता है. निर्भयता का प्रारंभ गुरुकृपा से होता है. गुरुकृपा से शिष्य अभयपद प्राप्त करता है. जो आधार है वह छूटता नहीं है और जो छूटती नहीं है वही आधार है. मंत्रमूलं गुरुर्वाक्यं . गुरुदेव की चरण धूली समस्त मंगलों का धाम है.
* समर्पित सेवक बनना ही विवेक
गुरु के चरणों में वामन बनने से हम संसार के समक्ष विराट बन सकते हैं. विनम्रता समर्पण ही गुरुद्वारे का महाद्वार होता हैं. जब तक शिष्य को अपनी कोई भी उपलब्धि का अभिमान है. अपनी समस्त उपलब्धियों को भूलकर गुरुचरणों में समर्पित सेवक बनना ही विवेक है. रुचि अरुचि से ऊपर उठकर सुरूचि का आश्रय लेना चाहिये. अयोग्यता की परवाह ना करें. गुरुचरणों का दास बनने से हम माया के दास बनने से बच जाते हैं. गुरू राम होता है तो चेला सवाराम होता है. गुरु भजन सिद्ध होता है तो शिष्य परमार्थ सिद्ध होता है. सरल सहज भजन अनमोल होता है. सफलता को हजम करने में गुरूकृपा परम सहायक होती है. जो साधे वो साधु है. कथा के पश्चात आरती का लाभ लेनेवालों में रमेश भाई चांडक सद्गुरू परिवार अकोला, पुरषोत्तमजी मालानी अकोला, भगवानदास तोष्णीवाल, श्रेयांश बुच्चा, सौ. संगीता बुच्चा, लक्ष्मीनारायण गट्टाणी सर, सुनील पकडे जल व्यवस्था, प्रसन्नकुमार कोटेचा, अर्चना गुप्ता इत्यादि का समावेश रहा.

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