अमरावतीमुख्य समाचार

स्नातक चुनाव के नतीजों के निकले कई संदेश

भाजपा के लिए बजी खतरे की घंटी

* मविआ के लिए दिख रहे नये आसार
* आगामी मनपा व जिप चुनावों पर असर पडना तय
अमरावती/दि.4 – विधान परिषद सीट के लिए विगत 30 जनवरी को अमरावती स्नातक निर्वाचन क्षेत्र में हुए चुनाव की 32 घंटे चली मतगणना के नतीजे गत रोज घोषित हुए. जिसमें कांग्रेस की ओर से महाविकास आघाडी के प्रत्याशी बनाए गए धीरज लिंगाडे ने पहली व दूसरी पसंद के सर्वाधिक वोट हासिल करते हुए भाजपा प्रत्याशी डॉ. रणजीत पाटील को करारी शिकस्त दी. यूं तो हर चुनाव में प्रत्याशियों की हार और जीत होने का सिलसिला चलता ही रहता है, लेकिन स्नातक निर्वाचन क्षेत्र के चुनाव में नये नवेले प्रत्याशी धीरज लिंगाडे की जीत और इस निर्वाचन क्षेत्र के दो बार चुनाव जीतकर इस बार हैट्रीक पूरी करने की तैयारी में रहने वाले डॉ. रणजीत पाटिल की हार ने सबको चौका दिया. साथ ही अब इस चुनाव परिणाम के राजनीतिक परिप्रेक्ष्य में कई अर्थ निकाले जा रहे है और इन चुनावी नतीजों में भी क्षेत्र के राजनीतिक भविष्य को लेकर कई संदेश दिए है. जिसके मुताबिक अमरावती संभाग सहित समूचे राज्य में भाजपा के लिए खतरे की घंटी बज चुकी है. वहीं भाजपा के खिलाफ एकजूट होते हुए कांग्रेस, राकांपा व शिवसेना सहित मित्र दलों द्बारा बनाई गई महाविकास आघाडी के लिए यहां से एक नई संभावना बनती नजर आ रही है.
राजनीतिक विश्लेषकों के मुताबिक अमरावती स्नातक निर्वाचन क्षेत्र में भाजपा व उसके प्रत्याशी डॉ. रणजीत पाटील कहीं न कहीं अतिआत्मविश्वास का शिकार हो गए. भाजपा ने डॉ. रणजीत पाटिल को चुनाव से करीब 6 माह पहले ही अपना प्रत्याशी घोषित कर दिया था. वहीं दूसरी ओर महाविकास आघाडी के तहत कांग्रेस के हिस्से में रहने वाली इस सीट पर प्रत्याशी किसे बनाया जाए, यह नामांकन के समय तक तय नहीं हो पाया था और इससे लेकर काफी हद तक माथापच्ची चल रही थी, ऐसे में विपक्ष के पास कोई दमदार प्रत्याशी ही नहीं है. यह सोचकर भाजपा और दो बार से विधायक चुने गए डॉ. रणजीत पाटील काफी हद तक निश्चित थे एवं अपनी जीत को चुनाव से पहले ही सुनिश्चित मान कर चल रहे थे. क्योंकि ऐन नामांकन के समय ही कांग्रेस की ओर से प्रत्याशी तय करने पर उसे 5 जिलों में फैली निर्वाचन क्षेत्र में प्रचार के लिए पर्याप्त समय नहीं मिलने वाला था. लेकिन शायद यहीं पर भाजपा नेता व पार्टी प्रत्याशी चूक कर गए और इसी मोड पर कांग्रेस ने एक बेहद शानदार चाल चली. जिसका नतीजा धीरज लिंगाडे की जीत और डॉ. रणजीत पाटिल की हार के रुप में सामने आया.
बता दें कि, बुलढाणा निवासी धीरज लिंगाडे की पारिवारिक पृष्ठभूमि कांग्रेस के साथ जुडी रही है. हालांकि वे विगत कुछ समय से शिवसेना में है और इस समय शिवसेना के बुलढाणा जिला प्रमुख है. साथ ही शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे ने करीब डेढ वर्ष पहले ही धीरज लिंगाडे को अमरावती स्नातक निर्वाचन क्षेत्र में शिवसेना की ओर से प्रत्याशी बनाए जाने की घोषणा कर दी थी. जिसके चलते धीरज लिंगाडे करीब डेढ वर्ष पहले से पूरे संभाग में स्नातक मतदाताओं का पंजीयन करने के साथ ही मतदाताओं के साथ संपर्क करने में जुट गए थे. वहीं दूसरी ओर महाविकास आघाडी में ऐन समय पर अमरावती स्नातक निर्वाचन क्षेत्र कांग्रेस के हिस्से में चला गया और कांगे्रस में प्रत्याशी बनाए जाने हेतु अकोला के डॉ. सुधीर ढोणे व वणी के डॉ. महेंद्र बोरा के साथ ही अमरावती के पूर्व पालकमंत्री डॉ. सुनील देशमुख एवं पूर्व महापौर मिलिंद चिमोटे के नामों पर चर्चा चली. लेकिन प्रत्याशी का नाम तय करने हेतु अमरावती आए पार्टी प्रदेशाध्यक्ष नाना पटोले के सामने डॉ. सुनील देशमुख व मिलिंद चिमोटे ने अलग-अलग वजहों के चलते चुनाव लडने में अपनी असमर्थता दर्शा दी थी. ऐसे में अमरावती की बैठक में मामला अनिर्णित रह गया था. पश्चात पार्टी प्रदेशाध्यक्ष नाना पटोले ने नागपुर में हुई बैठक में अमरावती स्नातक निर्वाचन क्षेत्र से शिवसेना के धीरज लिंगाडे को पार्टी प्रत्याशी बनाए जाने की घोषणा करते हुए सबको चौका दिया था. इस समय सबसे शानदार बात यह रही कि, धीरज लिंगाडे के परिवार की कांग्रेस से जुडी हुई पुरानी पृष्ठभूमि को देखते हुए कांग्रेस के सभी धडे उनके दावेदारी के पक्ष में एकजूट हो गए. साथ ही शिवसेना व राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी ने भी महाविकास आघाडी में रहने के चलते लिंगाडे की दावेदारी का समर्थन किया और तीनों ही दलों के नेता व पदाधिकारी एकजूट होकर लिंगाडे के प्रचार में जी-जान से जुट गए. हालांकि इसके बावजूद भाजपा के नेता व पदाधिकारी यह सोचकर निश्चिंत चल रहे थे कि, महाविकास आघाडी प्रत्याशी लिंगाडे के पास अपना प्रचार करने के लिए पर्याप्त समय नहीं है. ऐसे में वे पांच जिलों में फैले निर्वाचन क्षेत्र की 56 तहसीलों में रहने वाले एक-एक मतदाता तक नहीं पहुंच पाएंगे और इसकी वजह से भाजपा प्रत्याशी डॉ. रणजीत पाटिल अपने कैडर वोटों के दम पर बडी आसानी के साथ चुनाव जीतते हुए अपनी हैट्रीक पूरी कर लेंगे. लेकिन शायद यहीं अतिआत्मविश्वास भाजपा और भाजपा प्रत्याशी डॉ. रणजीत पाटिल को ले डूबा. साथ ही इस चुनाव में धीरज लिंगाडे को मिली जीत के चलते अब महाविकास आघाडी को आगे भी एकजूट व संगठित होकर काम करने की नई उर्जा व नई सोच मिली है. क्योंकि राज्य में हुए सत्ता परिवर्तन के बाद महाविकास आघाडी में काफी हद तक उहापोह वाली स्थिति बनती दिखाई दे रही थी. लेकिन अब धीरज लिंगाडे की जीत से निश्चित तौर पर मविआ में शामिल सभी घटक दलों को भाजपा के खिलाफ पूरी ताकत के साथ होकर काम करने की प्रेरणा मिलेगी.

* जिम्मेदारियां देने में चूक गई भाजपा
उल्लेखनीय है कि, अमरावती संभाग के स्नातक निर्वाचन क्षेत्र में सर्वाधिक वोटर अमरावती व यवतमाल जिले से वास्ता रखते है. ऐसे में भाजपा ने अपना पूरा फोकस शायद इन्हीं दो जिलों पर केंद्रीत कर रखा था. साथ ही संभागीय मुख्यालय रहने वाले अमरावती में ही सबसे ज्यादा ‘चमकोगिरी’ चल रही थी. वहीं अकोला, बुलढाणा व वाशिम जिलों में पार्टी द्बारा चुनाव प्रचार व मतदाताओं से संपर्क पर कोई विशेष ध्यान नहीं दिया गया और इन्हीं जिलों में मूलत: बुलढाणा से वास्ता रखने वाले धीरज लिंगाडे ने शानदार बढत बनाई. कहने को तो भाजपा की ओर से बुलढाणा में विधायक संजय कुटे व चैनसुख संचेती तथा यवतमाल में डॉ. रामदास आंबेडकर चुनावी कमान संभाले हुए थे. लेकिन अकोला व वाशिम शायद पूरी तरह से अनदेखे रह गए. यदि संजय कुटे व चैनसुख संचेती को बुलढाणा के साथ-साथ अकोला व वाशिम जिले की भी जिम्मेदारी सौपी जाती, तो शायद डॉ. रणजीत पाटिल के लिए रास्ता कुछ आसान हुआ होता. इसके साथ ही इस तथ्य की अनदेखी भी नहीं की जा सकती कि, अमरावती जिले में भाजपा के 2 हजार बूथ है और प्रत्येक बूथ के साथ कम से कम 40-40 कार्यकर्ता जुडे हुए है. ऐसे में जिले में पार्टी के कुल कार्यकर्ताओं की संख्या 80 हजार के आसपास है. यदि प्रत्येक बूूथ कार्यकर्ता अपने-अपने कार्यक्षेत्र अंतर्गत रहने वाले हर एक स्नातक मतदाता को घर से निकालकर मतदान केंद्र तक पहुंचा देता है. तब भी शायद डॉ. रणजीत पाटील के लिए रास्ता कुछ आसान रहा होता. लेकिन पार्टी के नेताओं के साथ-साथ पार्टी के स्थानीय पदाधिकारी व कार्यकर्ता भी शायद अपनी जीत को लेकर मुगालते में रह गए. जिसका खामियाजा डॉ. रणजीत पाटिल की हार के तौर पर सामने आया है.

* फडणवीस व बावनकुले का आना भी नहीं आया काम
विशेष उल्लेखनीय है कि, डॉ. रणजीत पाटिल को राज्य के उपमुख्यमंत्री व अमरावती के जिला पालकमंत्री देवेंद्र फडणवीस का बेहद नजदीकी माना जाता है. साथ ही डॉ. रणजीत पाटील का नामांकन दाखिल करने हेतु डेप्यूटी सीएम फडणवीस के साथ ही भाजपा प्रदेशाध्यक्ष चंद्रशेखर बावनकुले भी अमरावती आए थे और प्रदेशाध्यक्ष बावनकुले ने संभाग में कुछ स्थानों पर डॉ. पाटिल के प्रचार हेतु बैठक भी ली थी. लेकिन इसके बावजूद भी इससे डॉ. रणजीत पाटील को सहायता नहीं मिल पायी. इसके पीछे भी वजह शायद यहीं है कि, हर कोई डॉ. रणजीत पाटिल की जीत को पहले दिन से सुनिश्चित मानकर निश्चिंत चल रहा था और यहीं पर पार्टी धोखा खा गई.

* प्रवीण पोटे छोड सकते है चुनावी कमान
विश्वसनीय सूत्रों से मिली जानकारी के मुताबिक डॉ. रणजीत पाटिल की हार को देखते हुए दो बार अमरावती स्वायत्त निकाय संस्था निर्वाचन क्षेत्र का चुनाव जीत चुके पूर्व पालकमंत्री व विधान परिषद सदस्य प्रवीण पोटे पाटिल काफी चिंतित दिखाई दे रहे है. विधान परिषद का चुनाव जीतने के बावजूद किसी विधानसभा सदस्य के तौर पर सक्रिय रहने वाले और आम जनता के साथ हमेशा ही घुलने-मिलने वाले विधायक प्रवीण पोटे पाटिल की जिले में राजनीतिक पकड और सक्रियता को देखते हुए पार्टी ने उन्हें मनपा व जिप सहित नगरपालिकाओं के आगामी चुनावों के लिए चुनाव अभियान प्रमुख बनाया है. क्योंकि इससे पहले वर्ष 2017 में विधायक प्रवीण पोटे पाटिल ने अपने नेतृत्व तले जिले में पार्टी को मनपा सहित कई नगर परिषदों ने शानदार सफलता दिलाई थी. लेकिन स्नातक निर्वाचन क्षेत्र के चुनाव में पार्टी प्रत्याशी डॉ. रणजीत पाटिल की हार और उन्हें अमरावती जिले से मिले कम वोटों को देखते हुए विधायक प्रवीण पोटे पाटिल के लिए चिंता वाली स्थिति बन गई है. ऐसे मेें वे चुनावी अभियान प्रमुख पद पर बने रहने या इसे छोड देने को लेकर विचार कर रहे है.

* पहली बार सामने आयी हिसाब चुकता करने व बदला लेने कह बात
अमूमन हर चुनाव में किसी प्रत्याशी की जीत होती है और कुछ प्रत्याशियों को हार का सामना करना पडता है. लेकिन इस बार हुए स्नातक चुनाव का नतीजा घोषित होने के बाद पहली बार पुराना बदला लेने और पिछला हिसाब बराबर कर देने वाली बात सुनाई दी. यह बात चुनाव में विजयी रहे मविआ प्रत्याशी धीरज लिंगाडे द्बारा अपनी जीत घोषित होने के तुरंत बाद कहीं गई. बता दें कि, वर्ष 2011 के स्नातक निर्वाचन क्षेत्र के चुनाव में तब नये नवेले रहने वाले भाजपा प्रत्याशी डॉ. रणजीत पाटिल ने अपने समय के कद्दावर नेता और लंबे समय तक विधान परिषद में स्नातक निर्वाचन क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करने वाले प्रा. बी. टी. देशमुख को हराया था. नूटा संगठन से वास्ता रखने वाले प्रा. बी. टी. देशमुख को हमेशा ही कांग्रेस पार्टी का समर्थन मिला करता था. पश्चात 2017 में हुए स्नातक निर्वाचन क्षेत्र के चुनाव में डॉ. रणजीत पाटिल ने एक बार फिर जीत हासिल की और उस समय उन्होंने अपने निकटतम प्रतिद्बंदी व राकांपा नेता संजय खोडके को शिकस्त दी थी. संजय खोडके उस समय कांग्रेस के प्रदेश महासचिव हुआ करते थे. वहीं अब कांग्रेस प्रत्याशी के तौर पर पहली बार स्नातक निर्वाचन क्षेत्र से विधान परिषद का चुनाव लडने वाले धीरज लिंगाडे ने दो बार के विधायक डॉ. रणजीत पाटिल को करारी शिकस्त दी है. जिसके बाद खुदको पूर्व विधायक प्रा. बी. टी. देशमुख का शिष्य बताते हुए धीरज लिंगाडे ने साफ तौर पर कहा कि, उन्होंने वर्ष 2011 के चुनाव का हिसाब-किताब चुकता करने के साथ ही अपने गुरु प्रा. बी. टी. देशमुख का बदला ले लिया है.

* डॉ. पाटिल पर भारी पडा संभावित मंत्री पद
इससे पहले फडणवीस सरकार में गृह राज्यमंत्री रह चुके डॉ. रणजीत पाटिल अगर इस बार चुनाव जीतते है, तो उन्हें शिंदे-फडणवीस सरकार में निश्चित तौर पर केबिनेट मंत्री बनाया जाएगा, ऐसी बाते डॉ. रामदास आंबटकर सहित भाजपा के कई नेताओं द्बारा चुनाव प्रचार के दौरान कहीं गई. यद्यपि यह चुनाव प्रचार के लिए कहा जा रहा था. लेकिन शायद ऐसा कहना ही डॉ. रणजीत पाटिल के लिए भारी पड गया. उल्लेखनीय है कि, राज्य मंत्रिमंडल का विस्तार जल्द ही होने की जोरदार चर्चाएं चल रही है, ऐसे में यदि डॉ. पाटिल चुनाव जीतकर विधान परिषद में पहुंच जाते है और केबिनेट मंत्री पद के दावेदार भी बनते है, तो अपना क्या होगा. यह विचार मंत्री पद की रेस में रहने वाले विधायकों द्बारा किया जाने लगा. साथ ही इसी विचार के चलते उन विधायकों के समर्थकों में डॉ. रणजीत पाटिल की दावेदारी और स्नातक निर्वाचन क्षेत्र के चुनाव को लेकर उत्साह घटना शुरु हुआ. जिसका खामियाजा डॉ. रणजीत पाटिल को भुगतना पडा.

* गृह जिले अकोला से ही नहीं मिला साथ, पुरानी पेंशन ने बिगाडा गणित
राजनीति के जानकारों के मुताबिक मूलत: अकोला जिले से वास्ता रखने वाले डॉ. रणजीत पाटिल की खुद अपने गृह जिले के भाजपा पदाधिकारियों के साथ कभी कोई खास पटरी नहीं बैठी. बल्कि पाटिल समर्थकों व अकोला के भाजपा पदाधिकारियों के बीच हमेशा ही विरोधाभास वाली स्थिति रही. इसके बावजूद विगत 2 चुनावों में संभाग के अन्य 4 जिलों, विशेषकर अमरावती जिले से मिले साथ की वजह से डॉ. रणजीत पाटिल चुनावी वैतरणी पार कर गए, लेकिन इस बार अकोला के साथ-साथ संभाग के अन्य चारों जिलों में पुरानी पेंशन के मुद्दे ने डॉ. रणजीत पाटिल का खेल बिगाड दिया और पुरानी पेंशन के मुद्दे को पकडकर धीरज लिंगाडे ने डॉ. पाटिल को पीछे छोडते हुए चुनाव वैतरणी पार कर ली. इसके अलावा विधान परिषद में 12 वर्ष का कार्यकाल पूरा करने वाले डॉ. रणजीत पाटिल पर हमेशा ही अपना जनसंपर्क कम रखने और काम नहीं करने के भी आरोप लगते रहे. इसका खामियाजा भी डॉ. पाटिल को चुनाव में उठाना पडा.

* अवैध वोटों से सामने आया मतदाताओं का असंतोष
विशेष उल्लेखनीय है कि, स्नातक निर्वाचन क्षेत्र के चुनाव को पढे-लिखे मतदाताओं का चुनाव माना जाता है. जिनसे जिम्मेदारीपूर्ण तरीके के साथ मतदान करने की उम्मीद जताई जाती है. लेकिन इस बार अमरावती संभाग में हुए स्नातक चुनाव में रिकॉर्ड 8 हजार 387 वोट अवैध पाए गए. यह संख्या हार-जीत के नतीजे को बदलने के लिए बेहद काफी है. सबसे खास बात यह रही कि, कई मतदाताओं ने मत पत्रिका पर उम्मीदवार के नाम के आगे पसंदीदा क्रमांक लिखने की बजाय ‘गद्दार’ व ‘निषेध’ जैसे शब्द लिखने के साथ ही मतपत्रिका पर उम्मीदवारों के नाम के आगे अपने अंगूठे की मुहर लगाई. इसके अलावा कुछ मतपत्रिकाओं पर ‘एक ही मिशन-पुरानी पेंशन’ भी लिखा पाया गया. जिसकी वजह से ऐसी मतपत्रिकाओं को अवैध करार देते हुए खारिज कर दिया गया.
ज्ञात रहे कि, आम चुनाव की तरह स्नातक व शिक्षक निर्वाचन क्षेत्र के चुनाव में ‘नोटा’ का पर्याय नहीं होता. जिसके चलते संभवत: स्नातक मतदाताओं ने निषेधात्मक मतदान करने हेतु उपरोक्त तरीकों का सहारा लिया. इसके साथ ही अवैध वोटों ने भी एक तरह से भाजपा प्रत्याशी डॉ. रणजीत पाटिल का साथ नहीं दिया. पहले राउंड की गिनती मेें अवैध वोटों की संख्या 8735 पायी गई थी. जिन्हें दोबारा गिनने की मांग डॉ. रणजीत पाटिल द्बारा की गई और दोबारा की गई जांच के दौरान 8735 अवैध वोटों में से 348 वोट वैध ठहराए गए. जिसमें से डॉ. रणजीत पाटिल को केवल 144 वोट मिले. वहीं इस प्रक्रिया में धीरज लिंगाडे ने 177 वोट हासिल किए. यानि यहां पर भी किस्मत ने डॉ. रणजीत पाटिल का साथ नहीं दिया.
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* डॉ. सुनील देशमुख रहे जीत के सूत्रधार
– लिंगाडे को टिकट दिलाने से लेकर चुनाव रणनीति बनाने में रही भूमिका
यहां यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि, अमरावती स्नातक निर्वाचन क्षेत्र में धीरज लिंगाडे को कांग्रेस की ओर से महाविकास आघाडी का प्रत्याशी बनाने से लेकर इस चुनाव में लिंगाडे की जीत को सुनिश्चित करने में पूर्व पालकमंत्री डॉ. सुनील देशमुख की भूमिका सबसे महत्वपूर्ण रही. जिस समय चुनाव के लिए महज 15 दिनों का समय शेष था और कांग्रेस में प्रत्याशी तय करने को लेकर माथापच्ची चल रही थी. तब डॉ. सुनील देशमुख ने ही खुद चुनाव लडने से इंकार करने के साथ-साथ चुनावी रेस में रहने वाले अपने कट्टर समर्थक व पूर्व महापौर मिलिंद चिमोटे को अपनी दावेदारी पीछे लेने कहा था और बुलढाणा के शिवसेना जिला प्रमुख रहने वाले धीरज लिंगाडे का नाम प्रत्याशी बनाए जाने हेतु पार्टी प्रदेशाध्यक्ष नाना पटोले के सामने रखा था. जिसे कांग्रेस प्रदेशाध्यक्ष नाना पटोले ने मंजूरी भी दी थी. उस समय एक शिवसेना पदाधिकारी को कांग्रेस द्बारा अपना प्रत्याशी बनाए जाने से कई लोगों को आश्चर्य भी हुआ था. लेकिन इसके बाद पता चला कि, जब डॉ. सुनील देशमुख युवक कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष हुआ करते थे. तब उनकी कार्यकारिणी में धीरज लिंगाडे युवक कांग्रेस के प्रदेश महासचिव थे. इसके अलावा लिंगाडे परिवार का कांग्रेसी विचारधारा के साथ काफी गहरा नाता रहा है एवं धीरज लिंगाडे के पिता स्व. रामभाउ लिंगाडे कांग्रेस की ओर से विधान परिषद सदस्य रहने के साथ-साथ प्रदेश के गृह राज्यमंत्री भी रह चुके है. वहीं खुद धीरज लिंगाडे भी इससे पहले एक बार कांंग्रेस के टिकट पर बुलढाणा नगर परिषद के सदस्य निर्वाचित हुए थे. ऐसे में इन्हीं तमाम बातों को ध्यान में रखते हुए डॉ. सुनील देशमुख ने धीरज लिंगाडे को स्नातक निर्वाचन क्षेत्र के चुनाव में कांग्रेस का टिकट दिलवाया और फिर अपने पुराने सहयोगी की जीत सुनिश्चित करने हेतु पूर्व पालकमंत्री डॉ. सुनील देशमुख अपने पूरी टीम के साथ लिंगाडे के लिए डोर टू डोर चुनाव प्रचार में जुट गए. साथ ही डॉ. सुनील देशमुख ने कांग्रेस के अलग-अलग नेताओं के गुटों व समर्थकों को भी एक साथ लाते हुए राकांपा व शिवसेना नेताओं के साथ भी बेहतरीन तालमेल व समन्वय स्थापित किया. अपने पुराने सहयोगी की जीत के लिए डॉ. सुनील देशमुख द्बारा अपनाई गई सोची समझी रणनीति आखिर रंग लाई और इसके सार्थक नतीजे गत रोज मतगणना का परिणाम घोषित होते ही दिखाई दी.

* भाजपा पदाधिकारियों में रहा आपसी तालमेल का अभाव
– हर कोई ‘लीडर’ बना घुम रहा था, पूरी तरह से बिखरी थी पार्टी
जहां एक ओर डॉ. रणजीत पाटिल को हैट्रीक बनाने से रोकने के लिए महाविकास आघाडी के बैनरतले सभी विपक्षी दल पूरी तरह से एकजूट थे और पूरे जी-जान के साथ अपने प्रत्याशी धीरज लिंगाडे के प्रचार मेें जुटे हुए थे. वहीं दूसरी ओर डॉ. रणजीत पाटिल की हैट्रीक को तय मानते हुए भाजपा के पदाधिकारी व कार्यकर्ता काफी हद तक निश्चिंत थे. इसके इलावा भाजपा के कई स्थानीय पदाधिकारी अपने आपको बडा ‘लीडर’ मानकर अपने-अपने स्तर पर बिना किसी तालमेल, संयोजन व समन्वय के काम कर रहे थे, ऐसे में डॉ. रणजीत पाटिल का चुनाव प्रचार अभियान काफी हद तक बिखरा हुआ नजर आ रहा था. जिसकी वजह से अंत में डॉ. रणजीत पाटिल को इसका खामियाजा भुगतना पडा. अब यद्यपि भाजपा द्बारा इस हार के कारणों की मीमांसा करने की बात कहीं जा रही है. लेकिन यह कहीं न कहीं ‘सांप निकल जाने के बाद लाठी पीटने’ की तरह होगा. परंतु अब इसका कोई फायदा नहीं होने वाला है. क्योंकि विधान परिषद चुनाव में भाजपा की करारी हार हो चुकी है और इस चुनाव के नतीजों से जो संदेश निकलने थे, वे निकल चुके है. साथ ही विधान परिषद चुनाव में जीत हासिल करने के साथ ही महाविकास आघाडी को आगामी चुनावों मेें जीत हासिल करने के लिए नया रास्ता व फॉर्मूला भी मिल चुका है. ऐसे में भाजपा द्बारा किए जाने वाले विचार मंथन को अब केवल ‘डैमेज कंट्रोल’ कहा जा सकता है.
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* मंत्रिमंडल विस्तार न करने की वजह से हुई हार
– विधायक बच्चू कडू ने बताई वजह
वहीं दूसरी ओर शिंदे-फडणवीस सरकार में शामिल रहने वाले प्रहार जनशक्ति पार्टी के मुखिया व विधायक बच्चू कडू ने विधान परिषद के चुनाव में अमरावती सहित कुल 5 सीटोें पर शिंदे गुट-भाजपा को मिली हार पर अपने विचार व्यक्त करते हुए कहा कि, कहीं न कहीं इसके पीछे राज्य सरकार द्बारा राज्य मंत्रिमंडल का समय रहते विस्तार नहीं करना भी एक मुख्य वजह है. मंत्रिमंडल का विस्तार नहीं होने की वजह से सरकार द्बारा प्रभावी तौर पर निर्णय नहीं लिए जा रहे और आम जनता के काम नहीं हो रहे. जिसकी वजह से सर्वसामान्यों मं अच्छा खासा रोष व्याप्त है.
गत रोज विठ्ठल-रुख्मिणी के दर्शन हेतु श्री क्षेत्र पंढरपुर पहुंचे विधायक बच्चू कडू ने कहा कि, यद्यपि विधान परिषद के चुनावी नतीजे का लोकसभा व विधानसभा के चुनाव पर कोई असर नहीं पडता. लेकिन इससे उन चुनावों के लिए संदेश व सबक जरुर हासिल होते है और विधान परिषद चुनाव के नतीजों से साफ संदेश मिला है कि, राज्य मंत्रिमंडल का विस्तार नहीं होने की वजह से आम जनता में नाराजगी है और यदि अब भी सरकार ने इससे कोई सबक नहीं लिया, तो सरकार को इसका खामियाजा उठाना पड सकता है. इसके अलावा पुरानी पेंशन के मुद्दे को लेकर मतदाता जिस तरह से संगठित हुए, उसे भी सरकार ने गंभीरता से लेना चाहिए.

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