परतवाडा / मेळघाट :- चुरणी – कोरोना महामारी से ग्रामीण क्षेत्र के किसान खेतीहर मजदुर व कामगारों के हाथो को काम नहीं है.
५ माह बाद पुरा देश अनलॉक होने से अब धीरे-धीरे व्यवसायों ने भी तेजी पकड ली है.
सोयाबीन, कपास आदी के साथ विकास कार्योका शुभारंभ होने से मेळघाट के आदिवासी मजदूर दुसरे जिले मे स्थलांतरण करते दिखाई दे रह है, पापी पेट के लिए कोरोना लॉकडाऊन मे सैकडो किलोमीटर पैदल चलकर लौटने के बाद फिर एक बार व्यवसाय ढुंढने घरबार छोडकर निकल पडे है.
सोयाबीन, कपास आदी के साथ विकास कार्योका शुभारंभ होने से मेळघाट के आदिवासी मजदूर दुसरे जिले मे स्थलांतरण करते दिखाई दे रह है, पापी पेट के लिए कोरोना लॉकडाऊन मे सैकडो किलोमीटर पैदल चलकर लौटने के बाद फिर एक बार व्यवसाय ढुंढने घरबार छोडकर निकल पडे है.
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४ -५ माह से रोजगार कि तलाश
मार्च माह के अंतिम सप्ताह में महाराष्ट्र के साथ संपूर्ण देश मे कोरोना महामारी का संकट निर्माण हो गया था. ग्रामीण क्षेत्र मे भी कोरोना के रिकार्ड तोड मरिज पाय गये. कोरोना का संक्रमण रोकने के लिए केंद्र व राज्य सरकारने लॉकडाऊन घोषित किया, चार-पाच माह से मजदूर खाली बैठे थे. जिससे फांके झेलने विवश हो रहे है. अप्रिल – मई मे खेती के काम नहीं थे, लॉकडाऊन के कारण व्यवसाय भी बंद थे, देश अनलॉक होने के बाद भी केवल घरेलू व खेती के काम के भरोसे रहना पड रहा है, गाव मे रोजगार व मनरेगा के कामकाज नहीं है. बडे उद्योग भी नहीं है. इसलिऐ फिर एक बार आदिवासी गांव के मजदूर रोजगार की तलाश में अन्य जिलों व राज्य में कामकाज ढुंढने निकल पडे है.
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योजनाओ पर अमल नहीं इसलिऐ स्थलांतर
पिछले ७ – ८ दिनों से यह मजदूर अपना सामान परिवार के साथ पूर्व विदर्भ के नागपूर, वर्धा, अमरावती, अकोला, आदी जिलों मे सोयाबीन कटाई के कामकाज मे दिखाई दे रहे है. राज्य सरकार की कल्याणकारी योजनायों पर अमल नहीं होने से अलौकिक वनसंपदा वाले मेळघाट के आदिवासीयों को भी समय समय पर पापी पेट के लिए स्थानांतरण करने विविश होना पडता है.
भांडूम, सलीता, सुमीता, एकताई, बोरदा, टेंबु्, पीपल्या, हिरदा, खारी, बीबा, कारंजखेडा, सीमोरी आदी गांव के सेकडो मजदूर सोयाबीन कटाई के लीए बडे बडे गठ्ठे ले जाते दिखाई दे रहे है.
इन मजदुरो कों ठेकेदार भी एक वाहन मे मवेशियों की तरह बिठाकर ले जाते है.
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भुखे पेट मरने से अच्छा, काम करके मरो
अपना नाम नहीं छापने की शर्त पर एक आदिवासी ने बताया कि कोरोना काल मे भी जान कि परवाह न करते हुऐ यातायात कि व्यवस्था उपलब्ध नही रहने के बाद भी हम आदिवासी नागरिक हजारो किलोमीटर पैदल चलकर आये.
यहा रहेंगे तो भुखे पेट ही सोना पडेगा. रोजगार का कोई साधन नही है, इसलिए अन्य राज्यों में जाना पडता है. भीड वाले क्षेत्रों में काम करने से कोरोना होने का डर है, लेकीन काम नहीं किया तो भुखे पेट मरना पडेंगा इसलिए काम करके मरना बेहतर है. क्योकी पापी पेट का सवाल है..
यहा रहेंगे तो भुखे पेट ही सोना पडेगा. रोजगार का कोई साधन नही है, इसलिए अन्य राज्यों में जाना पडता है. भीड वाले क्षेत्रों में काम करने से कोरोना होने का डर है, लेकीन काम नहीं किया तो भुखे पेट मरना पडेंगा इसलिए काम करके मरना बेहतर है. क्योकी पापी पेट का सवाल है..