अब पारंपारिक की बजाय रेडिमेड गोबरियों का चलन
होलिका दहन में गोबरियोें का होता है बडे पैमाने पर प्रयोग

अमरावती/दि.16– इससे पहले होलिका दहन हेतु तमाम घरों में गोबर से चाकोलिया बनाई जाती थी और हाथ से बनी इन चाकोलियों की माला को होलिका पूजन के समय अर्पित किया जाता था. किंतु तेजी से बदलते समय और शहरीकरण के इस दौर में हर एक के लिए अपने घर पर चाकोलिया बनाना संभव नहीं है. ऐसे में अब चाकोलियों की बजाय बाजार में रेडिमेड मिलनेवाली गोबरियोें का प्रयोग होलिका पूजन के लिए किया जाता है. ऐसे में इस समय स्थानीय बाजारों सहित ऑनलाईन प्लेटफार्म पर भी गोबरियां बिक्री हेतु उपलब्ध है.
उल्लेखनीय है कि, इन दिनों होली का पर्व होलिका दहनवाले दिन लकडियों की होली जलाने और दूसरे दिन रंग खेलने तक मर्यादित होकर रह गया है. जबकि इससे पहले होली पर्व के निमित्त 15-20 दिन पहले से चाकोलिया बनाने हेतु घरों में छोटे बच्चे गोबर इकठ्ठा किया करते थे. उस समय जिनके यहां घर पर ही मवेशी रहते थे, उनके यहां गोबर को लेकर कोई समस्या नहीं थी. लेकिन जिनके यहां कोई जानवर नहीं होता था, वे बालटी व घमेला लेकर सडकों पर गोबर इकठ्ठा करने हेतु निकलते थे. पश्चात गोबर से अलग-अलग आकार-प्रकार की चाकोलिया तैयार की जाती थी. जिनके बीचोंबीच एक छेद बनाया जाता था. पश्चात होली का पर्व आने तक यह चाकोलिया पूरी तरह सूख जाती थी. जिन्हें नरियल की रस्सी में गूथकर उनकी माला बनाई जाती थी. एक माला में करीब 20 से 25 चाकोलिया हुआ करती थी. किंतु धीरे-धीरे यह परंपरा और पध्दति काफी हद तक खत्म हो गई और अब शहर में कहीं पर भी चाकोलिया नहीं दिखती. बल्कि अब लोगबाग हरे-भरे पेडों को तोडकर होली जलाने की औपचारिकता पूरी करते है. लेकिन एक बार फिर होली के पर्व की परंपरा के पीछे पर्यावरण संवर्धन के संदेश को समझकर लकडियों की बजाय गोबरियों की होली जलाने हेतु जनजागृति की जा रही है.
इस संदर्भ में स्थानीय गौरक्षण संस्था सहित विभिन्न पर्यावरण प्रेमी संस्थाओं द्वारा लकडियों की बजाय गोबरियों की होली जलाने का आवाहन करते हुए रेडिमेड गोबरियों की मालाएं भी उपलब्ध कराई गई है, ताकि हरे-भरे वृक्षों को कटाई से बचाया जा सके और व्यर्थ जानेवाले गोबर का कोई सार्थक उपयोग किया जा सके.