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राजनीति और मतदाताओं को मजाक बना दिया कुछ नगरसेवकों ने

चुने गये किसी और पार्टी से तथा झंडाबरदारी किसी और पार्टी की

* कौन किसके साथ और किस पर किसका हाथ, समझ से परे
अमरावती/दि.27– विगत कुछ दिनों से अमरावती शहर विशेषकर मनपा की राजनीति में बडा अजीबोगरीब दृश्य दिखाई दे रहा है. जिसमें कुछ लोगोें को देखकर समझ में ही नहीं आता की आखिर वे किस पार्टी में है और उनकी निष्ठा किस ओर है. इन कुछ गिने-चुने नगरसेवकों को देखकर कहा जा सकता है कि, अगर राजनीति वाकई मौकापरस्ती का ही दूसरा नाम हो गया है और ऐसे लोगों की नजर में शायद राजनीति के साथ-साथ मतदाता भी मजाक का विषय बनकर रह गये है. क्योंकि अमरावती मनपा में कई नगरसेवक ऐसे है, जो पिछली बार जिस पार्टी से चुनकर आये थे, आज उसी पार्टी की ओर से पार्षद रहने के बावजूद वे खुद को टिकट देनेवाली पार्टी के साथ नहीं खडे है तथा पार्टी पार्षद रहने के बावजूद किसी अन्य दल के साथ ‘हाथ’ मिलाते हुए खुलेआम दिखाई दे रहे है. ऐसे में इन लोगोें को अपना नगरसेवक चुननेवाला आम मतदाता भी हक्का-बक्का है और कहीं न कहीं खुद को ठगा हुआ भी महसूस कर रहा है.
बता दें कि वर्ष 1999 तथा 2004 के विधानसभा चुनाव में विजयी होने के साथ ही पालकमंत्री बननेवाले डॉ. सुनील देशमुख उस समय अमरावती शहर में कांग्रेस के सबसे कद्दावर नेता थे और उन्होंने अमरावती महानगरपालिका में कांग्रेस की बडी मजबूती के साथ सत्ता स्थापित की थी. किंतु वर्ष 2009 में अमरावती शहर की राजनीति को कुछ हद तक उलट-पलट करके रख दिया, जब कांग्रेस ने डॉ. सुनील देशमुख का टिकट काटकर रावसाहब शेखावत को अपना प्रत्याशी बनाया तथा डॉ. सुनील देशमुख ने पार्टी से बगावत करते हुए निर्दलीय प्रत्याशी के तौर पर चुनाव लडने के साथ ही अपनी जनविकास कांग्रेस नामक नई पार्टी बनायी. यद्यपि उस चुनाव में डॉ. देशमुख को हार का सामना करना पडा. किंतु कालांतर मेें हुए मनपा चुनाव में जनविकास कांग्रेस के 10 पार्षद मनपा में चुने गये. हालांकि मनपा में कांग्र्रेस की ही सत्ता अबाधित रही. इसके बाद बडा उलटफेर तब हुआ, जब वर्ष 2014 के विधानसभा चुनाव से ठीक पहले डॉ. सुनील देशमुख ने भारतीय जनता पार्टी का दामन थामा और अपने कई समर्थकों के साथ नेहरू मैदान में आयोजीत भव्य समारोह में भाजपा के वरिष्ठ नेता नितीन गडकरी की उपस्थिति में भाजपा में प्रवेश किया. जिसके बाद हुए विधानसभा चुनाव में जहां डॉ. सुनील देशमुख भाजपा की ओर से विधायक निर्वाचित हुए, वहीं उन्होंने मनपा चुनाव में भी भाजपा की कमान संभाली और उनके नेतृत्व में भाजपा ने मनपा में रिकॉर्ड 45 सीटों पर जीत दर्ज की. उस समय देशमुख ने अपने साथ भाजपा में आनेवाले कई समर्थकों को भी टिकट दिलवायी थी और इन 45 नगरसेवकों में करीब 14 से 15 पार्षद ऐसे थे, जो किसी जमाने में कट्टर कांग्रेसी रहने के साथ-साथ देशमुख समर्थक भी हुआ करते थे. वर्ष 2017 में हुए मनपा चुनाव के बाद सबकुछ ठीकठाक ही चल रहा था, किंतु वर्ष 2020 के आते-आते डॉ. सुनील देशमुख का विचार बदला, क्योंकि कांग्रेस में उनके लिए स्थितियां अनुकूल बनी. ऐसे में उन्होंने भाजपा छोडकर एक बार फिर कांग्रेस का ‘हाथ’ थाम लिया. लेकिन इस बार डॉ. देशमुख ने अकेले ही कांग्रेस में वापसी की और भाजपा में रहनेवाले अपने समर्थकों को फिलहाल कुछ समय इंतजार करने के लिए कहा. इसमें उन समर्थकों का भी समावेश है, जो भाजपा की टिकट पर मनपा पार्षद चुने गये थे. ऐसा इसलिए किया गया, क्योेंकि मनपा का कार्यकाल लगभग खत्म होने में है और कार्यकाल के अंतिम चरण में कहीं इन पार्षदों को दल-बदल कानून का सामना न करना पड जाये.
किंतु असली खेल भी यहीं से शुरू हुआ, क्योंकि पुराने कांग्रेसी व देशमुख समर्थक ये भाजपा पार्षद अब खुले तौर पर भाजपा विरोधी भूमिका में आ गये है और उन्हें देखकर यह अंदाजा लगाना मुश्किल हो जाता है कि, वे कांग्रेस से चुने गये है या फिर भाजपा से. इन 14-15 भाजपा पार्षदों ने डॉ. देशमुख के कांग्र्रेस में वापिस लौटते ही एक तरह से भाजपा विरोधी भूमिका अपनाने शुरू कर दी और आमसभा में भी सत्ता पक्ष के खिलाफ विपक्ष का साथ देने लगे. जिससे पूर्ण बहुमत के साथ मनपा की सत्ता में रहनेवाली भाजपा को विपक्षी पार्षदों के साथ-साथ अब अपने ही कुछ पार्षदों के विरोध का सामना करना पडा. वहीं इस समय तक अधिकृत तौर पर भाजपा में रहनेवाले इन पार्षदों ने विगत एक वर्ष से भाजपा के कार्यक्रमों की अनदेखी करनी शुरू कर दी और इनमें से शायद ही कभी कोई पिछले एक साल के दौरान भाजपा कार्यालय में दिखाई दिये. बल्कि इनमें से कई नगरसेवक अब खुलेआम कांग्रेस के कार्यक्रमों में दिखाई देते है और डॉ. सुनील देशमुख के रेल्वे स्टेशन रोड स्थित जनसंपर्क कार्यालय व रूख्मिनी नगर परिसर स्थित निवास स्थान पर इन पार्षदों की मौजूदगी देखी जाती है.
यहां यह विशेष उल्लेखनीय है कि, अमरावती मनपा के स्वीकृत पार्षद व पूर्व महापौर मिलींद चिमोटे ने सबसे पहले यह भूमिका अपनानी शुरू की और डॉ. देशमुख के कांग्रेस में वापिस जाते ही वे खुलकर भाजपा विरोधी भूमिका में आ गये. वहीं विगत पांच वर्ष के दौरान भाजपा पार्षद रहते हुए मनपा की सत्ता में विभिन्न पदों का उपभोग कर चुके कई अन्य नगरसेवक भी अब खुले तौर पर डॉ. सुनील देशमुख और कांग्रेस के पाले में खडे दिखाई दे रहे है.
ताजा मामला गणतंत्र दिवस के मौके पर ऐसे कई पार्षदों द्वारा अपने-अपने प्रभागों में लगाये गये बैनर, पोस्टर व फ्लैक्स का है. जिसमें भाजपा की ओर से निर्वाचित इन पार्षदों द्वारा गणतंत्र दिवस की शुभकामना देने हेतु लगाये गये फ्लेक्स व होर्डिंग्ज पर भाजपा के एक भी नेता या पदाधिकारी का छायाचित्र प्रकाशित नहीं किया गया है. बल्कि उनके फ्लेक्स पर डॉ. सुनील देशमुख सहित कांग्र्रेस के तमाम नेताओं व पदाधिकारियों के नाम व छायाचित्र अंकित है. इसमें से पार्षद गोपाल धर्माले द्वारा गणतंत्र दिवस पर लगाया गया फ्लेक्स इस समय सबसे अधिक चर्चा में है. ऐसे में अब संबंधित प्रभागों के आम मतदाता संभ्रम में है कि, उन्होंने जिसे अपना पार्षद चुना था, वह निश्चित तौर पर किस पार्टी में है और आगे चलकर किस पार्टी में रहेगा. कभी इन्हीं पार्षदों ने खुद को कांग्रेसी बताते हुए वोट मांगे थे. फिर यही लोग जनविकास पार्टी के उम्मीदवार बनकर सामने आये और बाद में यहीं लोग भाजपा प्रत्याशी के तौर पर खडे हुए. वहीं इस समय भाजपा के नगरसेवक रहने के दौरान ही यह पार्षद कांग्रेस की झंडाबरदारी करते नजर आ रहे है. इसे राजनीति के साथ-साथ आम मतदाताओं का मजाक उडाना न कहा जाये, तो क्या कहा जाये.
* भाजपा नेतृत्व की पकड पर ही सवाल
इस समय जहां एक ओर हर दो-चार साल में दल बदलनेवाले नेता व पार्षदों की निष्ठा सवालों के घेरे में है, वहीं दूसरी ओर भाजपा के स्थानीय नेताओं का नेतृत्वकौशल और उनकी शहर पर पकड पर भी सवाल उठाये जा सकते है. सबसे बडा सवाल यह है कि, शहर भाजपा के नेताओं की आंखों के सामने उनकी पार्टी के कुछ पार्षद खुलेआम किसी अन्य दल की यानी कांग्रेस की झंडाबरदारी कर रहे है और आमसभा में पार्टी लाईन के खिलाफ चल रहे है, तो ऐसे समय संबंधित नगरसेवकों के खिलाफ पार्टी द्वारा कोई कडी भूमिका क्यों नहीें अपनायी जा रही. एक सवाल यह भी है कि, खुद भाजपा के पास सुयोग्य उम्मीदवारों की कभी कमी नहीं रही. ऐसे में पार्टी को हमेशा बाहर से आयातीत उम्मीदवारों पर निर्भर क्यों रहना पडता है. यह सच है कि, राजनीति मेें ‘जिधर दम उधर हम’ वाली नीति चलती है तथा हर कोई अपने फायदे को देखते हुए ही आगे बढता है. जिसे जनभावनाओें के नाम का प्यारा सा मुलम्मा चढा दिया जाता है. किंतु हकीकत यह है कि, इसमें आम मतदाताओं की भावनाओं की ही जमकर अनदेखी की जाती है और ‘जिधर दम उधर हम’ के चक्कर में मतदाताओं को ‘पानी कम’ समझ लिया जाता है. किंतु राजनीतिक दलों के नेताओं ने यह नहीं भूलना चाहिए कि, ‘ये पब्लिक है सब जानती है’ चूंकि आगामी डेढ-दो माह बाद मनपा के आम चुनाव होने है और कई पार्षद नये दल की नई टिकट और नई भूमिका के साथ मतदाताओं के बीच जायेंगे. ऐसे में यह देखना दिलचस्प होगा कि, मतदाताओं द्वारा इनमें से कितनों को कैसा व क्या जवाब दिया जाता है.

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