अमरावती

छत्रपति के समाधि की प्रतिकृति बनी शहरवासियों के आकर्षण का केंद्र

मातोश्री मंडल ने साकार की आकर्षक झांकी

* सर्वत्र हो रही सराहना
अमरावती/दि.19– शहर के तपोवन गेट परिसर में मातोश्री दुर्गोत्सव मंडल ने साकार की छत्रपति शिवाजी महाराज के समाधि व रायगड किले के शिरकाई देवी मंदिर की हूबहू झांकी सभी शिवराया के भक्तों के आकर्षण का केंद्र बनी है. राजे छत्रपति शिवाजी महाराज के समाधिस्थल पर नतमस्तक होने की अनुभूति मिलने की प्रतिक्रिया नागरिकों ने व्यक्त की.
रायगड जिले के सह्याद्री के पर्वतश्रृंखला में रायगड किला है. समुद्र से करीब 820 मीटर 2700 फूट उंचाई पर है. मराठी साम्राज्य के इतिहास में इसकी अलग पहचान है. छत्रपति शिवाजी राजा ने रायगड का स्थान और महत्व देखकर 16 वे शतक में इसे अपने राज्य की राजधानी बनाया. शिवराज्याभिषेक इसी स्थान पर हुआ. अंग्रेजों ने गड कब्जे में लेने के बाद उसे लूटकर नुकसान किया. यह किला महाराष्ट्र शासन के पुरातन विभाग का संरक्षित स्मारक है. इस झांकी को नागरिकों द्वारा मिले प्रतिसाद को देखते हुए काम सार्थक होने की खुशी मिल रही है, ऐसा मातोश्री दुर्गोत्सव मंडल के कार्यवाहक मोहन क्षीरसागर, युवा सेना सचिव प्रतीक डुकरे ने बताया.

* शिरकाई मंदिर को दिया भव्य स्वरूप
रायगड पर महाराज की प्रतिमा के बाएं ओर जो छोटा मंदिर दिखाई देता है, वह शिरकाई का मंदिर है. शिरकाई गड की मुख्य देवता. शिर्के पांचवे सदी से रायगड के स्वामी थे. उनका स्मरण दिलाने वाली गडस्वामिनी शिरकाई का मंदिर गड पर है. लोकमान्य तिलक के काल में मावलकर नाम के इंजीनियर ने इस मंदिर का निर्माण किया है. वह शिरकाई का मूल मंदिर नहीं. मूर्ति प्राचीन है. मूल शिरकाई मंदिर राजवाडा से सटकर बायीं ओर होली माले पर था. वहां मूल मंदिर का चबुतरा आज भी है. ब्रिटीशकाल में वहां पर शिरकाई का घरटा यह नामफलक था. यहीं मंदिर इस वर्ष मातोश्री मंडल ने भव्य झांकी के रूप में साकार किया है. यहां आदिशक्ति के भवानी देवी रूप की आकर्षक मूर्ति सभी का ध्यान आकर्षित कर रही है.

* शिवराया की समाधि हूबहू साकार
मातोश्री दुर्गोत्सव मंडल ने इस वर्ष शिवराया के समाधि की झांकी हूबहू साकार की है. ऐतिहासिक सदस्य बखर में दर्ज किए अनुसार क्षत्रियकुलावतंस श्रीमन्महाराजाधिराज शिवाजी महाराज छत्रपति का इसवी 1680 में देहावसान हुआ. यहां पर महाराज की समाधि बनाई गई. काले पत्थरों के से भव्य समाधि बनाई गई तथा उपर से फरसबंदी की गई है. महाराज की समाधि के पूर्व की ओर भवानी टोक है.

* ऐतिहासिक महत्व
इस गड का प्राचीन नाम रायरी था. युरोप के लोक इसे पूर्व की ओर का जिब्राल्टर कहते थे. पांचसौं साल पूर्व इस गड का स्वारूप नहीं था व केवल एक पहाड था, तब इसे रासिवटा व तणस यह दो नाम थे. इसका आकार, उंचाई और आसपास की खाई पर से इसे नंदादीप ऐसा नाम पडा. निजामशाही में रायगड का उपयोग कैदियों को रखने के लिए किया जाता था. दल का प्रमुख यशवंतराव मोरे जावली से भागकर रायगडकर जाकर रहने लगे तथ प्रतापराव मोरे ने बिजापुर की ओर रुख किया. महाराज ने 6 अप्रैल 1656 में रायरी को यानी रायगड को घेरा. और मई महिने में रायरी महाराज के कब्जे में आई. वहां रहते समय कल्याण का सुभेदार मुल्ला अहमद खजिना लेकर बिजापुर की ओर निकले की खबर महाराज को पता चली थी, उन्होंने उस खजिने को लूटकर रायगड पर लाया. और खजिने का उपयोग गड के निर्माण कार्य के लिए किया. शत्रू को भारी लगने वाला प्रदेश का यह सबसे दिक्कत वाला स्थान है. समुद्री यातायात के लिए यह स्थान नजदीक है. इसलिए महाराज ने राजधानी के लिए इस गड का चयन किया. रायगड किले का पहले का नाम जम्बुदीप था.

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