अमरावती

कभी अचलपुर में थी नउवारी साडियों की बडी बाजारपेठ

हाथकरघे पर तैयार होती थी बेहद महीन व नक्काशीदार साडियां

* कश्मीर से कन्याकुमारी तक थी अचलपुरी नउवारी साडियों की धूम
अमरावती/दि.18 – किसी जमाने में अमरावती जिले के अचलपुर में साडियों, विशेषकर हाथकरघे पर बनने वाली साडियों का बडे पैमाने पर उत्पादन होने के साथ ही यहां पर साडियों की काफी बडा बाजार हुआ करता था और अचलपुर में बनने वाली हरी जोठ वाली साडियां देश में कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक विभिन्न राज्यों में भेजी व बेची जाती थी. जिसके चलते अचलपुर क्षेत्र में निर्मित हरी जोठ वाली नउवारी साडियां पूरे देश में विख्यात हुआ करती थी. लेकिन बदलते वक्त के साथ-साथ हाथकरघे पर साडियां बनाने की हस्तकला लूफ्त होती चली गई और तेजी के साथ आगे बढती फैशन की आंधी में अचलपुर की हस्तनिर्मित नउवारी साडियों व यहां के बाजार का अस्तित्व ही खत्म हो गया.
वस्त्र निर्मिति के क्षेत्र में रुची रखने वाले कुछ लोगों ने जब हाथों से निर्मित बेहतरीन गुणवत्ता वाले वस्त्रों पर अध्ययन करना शुरु किया, तो अहमदाबाद में पुरानी वस्तुओं के एक संग्राहक के पास हरी जोठ वाली एक हस्त निर्मित नउवारी साडी मिली. जिसके बारे में प्रडताल करने पर पता चला कि, हाथकरघे पर ऐसी साडी बनाने की कला अब लूफ्त हो गई है. साथ ही यह जानकारी भी सामने आयी कि, किसी समय अमरावती जिले के अचलपुर में इस साडी की काफी बडी बाजारपेठ हुआ करती थी. इस संदर्भ में अचलपुर में रहने वाले कांबले नामक बुनकर ने बताया कि, करीब 80 वर्ष पहले तक अचलपुर में हरी जोठ वाली नउवारी साडी का बडे पैमाने पर उत्पादन हुआ करता था. साथ ही वर्ष 1947 के आसपास तक अचलपुर के समरसपुरा में प्रत्येक बुधवार व शनिवार को तडके 4 से 6 बजे तक केवल 2 घंटे के लिए साडी की बाजारपेठ सजा करती थी और इतने कम समय में 2 हजार से अधिक साडियों की बिक्री हो जाया करती थी. उस जमाने में विदर्भ सहित कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक इस साडी की मांग थी.
अचलपुर परिसर में आज भी जैसे-तैसे अपने अस्तित्व और पहचान को टिकाए रखने वाले कुछ बुनकरों ने बताया कि, उस जमाने में हरे जोठ वाली नउवारी साडी को हाथकरघे पर बुना जाता था और एक साडी को बुनकर तैयार करने में करीब 7 दिनों का समय लगता था. जिसके चलते यह उस दौर की सबसे महंगी साडी हुआ करती थी. इस नउवारी साडी के किनारे पर चुटकी का पट्टा रहा करता था. जिसकी रंगीनी व चमक अपने आप में सबसे अलग हुआ करती थी. साथ ही इसमें सुती गर्भरेशम या रेशम का प्रयोग किया जाता था. इस साडी पर रास्ता (तिरछी रेखाएं), चौकडा या बुट्टी रहा करते थे. साथ ही इस नउवारी साडी के गंडेरी पदर को इसकी सबसे अलग पहचान माना जाता था. लेकिन अफसोस वाली बात यह है कि, विगत 50 वर्षों से अचलपुर में इस साडी का किसी के भी द्बारा उत्पादन नहीं किया जाता है और समरसपुरा परिसर में नउवारी पातड साडी बनाने वाले सभी हाथकरघे लगभग बंद हो चुके है. जिसके चलते अब हाथकरघा निर्मित परंपरागत हरे जोठ वाली नउवारी साडी का अस्तित्व भी लगभग खत्म हो गया है. जिसे किसी जमाने में संभ्रांत घरों की महिलाओं द्बारा बडे चाव से खरीदा व पहना जाता था. साथ ही देवी मां की प्रतिमाओं पर भी इन्हीं साडियों से परिधान किया जाता था.

* अब तेलंगना में निर्मिति का प्रयास
सोलापुर के टेक्सटाइल डिझाइनर विनय नारकर और नागपुर की टेक्सटाइल डिझाइनर निलिमा इनामदार ने विदर्भ क्षेत्र की समृद्ध वस्त्र परंपरा को टिकाए रखने के साथ ही इसके संवर्धन हेतु विचार करना शुरु किया है और इसी तरह का काम करने वाले तेलंगना के बुनकरों से हरे जोठ वाले नउवारी साडी को दुबारा बनवाया गया. इस साडी के निर्मिति की प्रक्रिया में काफी समय व पैसा खर्च होता है. लेकिन समृद्ध परंपरा की पहचान के तौर पर इसका संवर्धन करने हेतु आगे भी ऐसे प्रयास जारी रहेंगे, ऐसी जानकारी सामने आयी है. वहीं नागपुर के वस्त्रोद्योग विभाग के आयुक्त पी. शिवाशंकर ने भी इन प्रयासों को बेहद गंभीरता से लिया है और इस परंपरा को अधिक से अधिक लोगों तक पहुंचाने का काम भी वस्त्रोद्योग विभाग द्बारा शुरु किया गया, ऐसी जानकारी सामने आयी है.

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