बात केवल इतनी है कि…
दहीहांडी, गणपती, नवरात्री तथा दशहरा व दीपावली जैसे त्यौहारों के समय अलग-अलग राजनीतिक दलों, आर्थिक रूप से संपन्न क्लब व संस्थाओं तथा कंपनियों के साथ-साथ अखबारों द्वारा भी शहर में बडे-बडे इवेंट आयोजीत किये जाते है. जिनमें बाहर से और बडे शहरों से कलाकारों को बुलाकर उनकी यात्रा, होटल, पब्लिसिटी, सिक्युरिटी तथा भारी-भरकम मानधन पर अच्छा-खासा खर्च किया जाता है. किंतु तकलीफ उस समय होती है, जब इन्हीं राजनीतिक दलों के पदाधिकारियों, क्लब व संस्थाओं के सदस्यों तथा कंपनियों व अखबारों के मालिकों व संचालकों द्वारा स्थानीय कलाकारों की कोई कीमत नहीं की जाती, बल्कि उन्हें ‘टेकन एज ग्रांटेड’ के तौर पर गृहित मानकर चला जाता है.
इस मानसिकता के तहत आयोजकों द्वारा उम्मीद की जाती है कि, स्थानीय कलाकार खुद अपने खर्च पर कार्यक्रम स्थल तक आये और अपने आने-जाने की व्यवस्था भी खुद करे. अपने कॉस्च्युम व मेकअप् का खर्च भी खुद उठाये. साथ ही हमारे ‘ओपंजी-भोपंजी’ लोगों के सत्कार व भाषण होने तक कई घंटे अपनी बारी आने का इंतजार करते बैठे रहे. इसके बाद या तो बिना किसी मानधन के, या फिर तटपुंजिया रकम लेकर खुद को कला प्रस्तुति का अवसर देने हेतु आयोजकों का आभार मानकर अपने घर का रास्ता पकडे.
बात यही तक रहती, तो भी गनिमत थी, लेकिन कई बार तो आयोजकों की अपेक्षा व उम्मीद यह भी होती है कि, स्थानीय कलाकार ने आयोजन के लिए अपनी जेब से पैसे देने चाहिए और फिर उसी कार्यक्रम में शामिल होकर अपने आप को धन्य मान लेना चाहिए. ऐसी मानसिकता को भी प्रणाम ही किया जा सकता है. वैसे गलती इस तरह की मानसिकतावाले आयोजकों की भी नहीं होती, क्योंकि कभी-कभी कला प्रस्तुति का अवसर मिलने की लालच और राजनीतिक वरदहस्त के लिए कुछ कलाकार हमेशा जी-हुजूरी के ‘एक्शन मोड’ में रहते है. जिसका खामियाजा उन कलाकारों को भुगतना पडता है, जो अपनी कला के सम्मान और खुद के आत्मसम्मान के लिए कभी किसी के साथ किसी भी तरह का कोई समझौता नहीं करते.
बल्कि ऐसे कलाभिमानी कलाकारों द्वारा हमेशा ही दोगरी मानसिकतावाले कलाकारों व आयोजकों के खिलाफ पूरी प्रखरता के साथ अपने विचार व्यक्त किये जाते है और बिकाउ पुरस्कारों व सस्ते मौकों से दूर रहते हुए ऐसे कलाकार खुद की अवहेलना करनेवाले लोगों की अनदेखी करते हुए अपनी कला के साथ खुश भी रहते है.
आज इन तमाम बातों को लिखने का उद्देश्य केवल इतना है कि, आज नहीं तो कल मेरा शहर कला का मान-सम्मान करना सीखेगा और कलाकारों का सम्मान हार-फूल व शब्दों के साथ-साथ आर्थिक रूप से भी होगा. जिसके चलते अगली पीढी के कलाकार इससे लाभान्वित हो सकेंगे. बात केवल इतनी है कि, कलाकार केवल तारीफ का भूखा नहीं होता, बल्कि उसे भी औरो की तरह पेट की भूख सताती है और उसके परिवार की भी कुछ जरूरते होती है. इस बात का आयोजकों द्वारा भान और सम्मान रखा जाना चाहिए.
– एड. शीतल यदुराज मेटकर (ओडिसी नृत्यांगना)
प्राचार्य, पंचायत राज प्रशिक्षण केंद्र,
संचालक, उत्कल नृत्य निकेतन,
अम. मो. नं. 9422812457