अमरावती-/ दि.25 जन्म – 22 जुलाई 1923 (दिल्ली), स्वर्गवास – 27 अगस्त 1976 (डेट्राईट, अमरीका)
लोकप्रियता के तौर पर सिर्फ मुकेश के नाम से जानेवाले और हिन्दी सिनेमा के एक प्रमुख पार्श्व गायक थे मुकेशचंद माथुर, जिनकी आवाज बहुत मधुर थी. उनकी प्रतिभा को उनके एक दूर के रिश्तेदार मोतीलाल ने तब पहचाना, जब उन्होंने मुकेश को अपनी बहन की शादी में गाते हुए सुना. जिसके बाद मोतीलाल उन्हें बम्बई ले गये और अपने घर में रहने दिया. यही नहीं उन्होंने मुकेश के लिए रियाज का पूरा इंतजाम किया. इस दौरान मुकेश को एक हिन्दी फिल्म निर्दोष (1941) में मुख्य कलाकार का काम मिला. पार्श्व गायक के तौर पर उन्हें अपना पहला काम 1945 में फिल्म पहली नजर में मिला. मुकेश ने हिन्दी फिल्म में जो पहला गाना गाया, वह था दिल जलता है तो जलने दे, जिसमें अदाकारी मोतीलाल ने की. इस गीत में मुकेश के आदर्श गायक के एल सहगल के प्रभाव का असर साफ- साफ नजर आया. 1959 में अनाड़ी फ़िल्म के ‘सब कुछ सीखा हमने न सीखी होशियारी’ गाने के लिए सर्वश्रेष्ठ पार्श्व गायन का फिल्मफेयर पुरस्कार मिला था. 1974 में मुकेश को रजनीगन्धा फिल्म में ‘कई बार यूँ भी देखा है’ गाना गाने के लिए राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कार मिला.
प्रारम्भिक जीवन- मुकेश का जन्म 22 जुलाई 1923 को लुधियाना के जोरावरचंद माथुर और चांदरानी के घर हुआ था. इनकी बड़ी बहन संगीत की शिक्षा लेती थीं और मुकेश बड़े चाव से उन्हें सुना करते थे. मोतीलाल के घर मुकेश ने संगीत की पारम्परिक शिक्षा लेनी शुरू की, लेकिन इनकी दिली ख्वाहिश हिन्दी फ़िल्मों में बतौर अभिनेता प्रवेश करने की थी.
गायन करियर – मुम्बई आने के बाद इन्हें 1941 में निर्दोष फ़िल्म में बतौर एक्टर सिंगर पहला ब्रेक मिला. इंडस्ट्री में शुरुआती दौर मुश्किलों भरा था. लेकिन के. एल. सहगल को उनकी आवाज़ बहुत पसंद आयी. इनके गाने को सुनने के बाद के. एल. सहगल भी दुविधा में पड़ गये थे. 40 के दशक में मुकेश की अपनी पार्श्व गायन शैली था. नौशाद के साथ उनकी जुगलबंदी एक के बाद एक सुपरहिट गाने दे रही थी. उस दौर में मुकेश की आवाज़ में सबसे ज़्यादा गीत दिलीप कुमार पर फ़िल्माए गये. 50 के दशक में इन्हें एक नयी पहचान मिली, जब इन्हें राजकपूर की आवाज़ कहा जाने लगा. कई साक्षात्कार में खुद राज कपूर ने अपने दोस्त मुकेश के बारे में कहा है कि मैं तो बस शरीर हूँ मेरी आत्मा तो मुकेश है. पार्श्व गायक मुकेश को फ़िल्म इंडस्ट्री में अपना मकाम हासिल कर लेने के बाद, कुछ नया करने की चाह जगी और इसलिए इन्होंने फ़िल्म निर्माता (प्रोड्यूसर) बन गये. साल 1951 में फ़िल्म ‘मल्हार’ और 1956 में ‘अनुराग’ निर्मित की. अभिनय का शौक बचपन से होने के कारण ‘माशूका’ और ‘अनुराग’ में बतौर हीरो भी आये. लेकिन बॉक्स ऑफिस पर ये दोनों फ़िल्में फ्लॉप रहीं. कहते हैं कि इस दौर में मुकेश आर्थिक तंगी से जूझ रहे थे. बतौर अभिनेता-निर्माता मुकेश को सफलता नहीं मिली. गलतियों से सबक लेते हुए फिर से सुरों की महफिल में लौट आये. 50 के दशक के आखिरी सालों में मुकेश फिर पार्श्व गायन के शिखर पर पहुँच गये. यहूदी, मधुमती, अनाड़ी जैसी फ़िल्मों ने उनकी गायकी को एक नयी पहचान दी और फिर ‘जिस देश में गंगा बहती है’ के गाने के लिए वे फ़िल्म़फेयर पुरस्कार के लिए नामांकित हुए. 60 के दशक की शुरुआत मुकेश ने कल्याणजी-आनंदजी के ‘डम-डम डीगा-डीगा’, नौशाद का ‘मेरा प्यार भी तू है’, और एस डी बर्मन के नग़मों से की और फिर राज कपूर की फ़िल्म संगम में शंकर-जयकिशन द्वारा संगीतबद्ध किया गाना, जिसके लिए वे फिर से फ़िल्मफेयर के लिए नामांकित हुए. 60 के दशक में मुकेश का करियर अपने चरम पर था और अब मुकेश ने अपनी गायकी में नये प्रयोग शुरू कर दिये थे. उस वक्त के अभिनेताओं के मुताबिक उनकी गायकी भी बदल रही थी. जैसे कि सुनील दत्त और मनोज कुमार के लिए गाये गीत. 70 के दशक का आगाज़ मुकेश ने ‘जीना यहाँ मरना यहाँ’ गाने से किया. उस वक्त के हर बड़े फ़िल्मी सितारों की ये आवाज़ बन गये थे. साल 1970 में मुकेश को मनोज कुमार की फ़िल्म ‘पहचान’ के गीत के लिए दूसरा फ़िल्मफेयर मिला और फिर 1972 में मनोज कुमार की ही फ़िल्म के गाने के लिए उन्हें तीसरी बार फ़िल्मफेयर पुरस्कार दिया गया. अब मुकेश ज़्यादातर कल्याणजी-आंनदजी, लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल और आर डी बर्मन जैसे दिग्गज संगीतकारों के साथ काम कर रहे थे. साल 1974 में फ़िल्म रजनीगंधा के गाने के लिए मुकेश को राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कार दिया गया. विनोद मेहरा और फ़िरोज़ ख़ान जैसे नये अभिनेताओं के लिए भी इन्होंने गाने गाये. साल 1976 में यश चोपड़ा की फ़िल्म ‘कभी-कभी’ के इस शीर्षक गीत के लिए मुकेश को अपने करियर का चौथा फ़िल्मफेयर पुरस्कार मिला और इस गाने ने उनके करियर में फिर से एक नयी जान फूँक दी. मुकेश ने अपने करियर का आखिरी गाना अपने दोस्त राज कपूर की फ़िल्म के लिए ही गाया था. लेकिन 1978 में इस फ़िल्म के जारी होने से दो साल पहले ही 1976 में जब वे अमरीका के डेट्रॉएट शहर में दौरे पर थे, तब उन्हें दिल का दौरा पडा और उनकी मृत्यु हो गयी.
मुकेश के यादगार गीत – तु कहे अगर, जिन्दा हूँ इस तरह के, मेरा जूता हे जापानी (आवारा) ये मेरा दीवानापन है (यहूदी), किसी की मुस्कुराहटों पे हो निसारं (अन्दाज से), ओ जाने वाले हो सके तो लौट के आना (बन्दिनी), दोस्त दोस्त ना रहा (संगम), जाने कहां गये वो दिन (मेरा नाम जोकर), मैंने तेरे लिए ही सात रंग के सपने चुने (आनंद), इक दिन बिक जाएगा माटी के मोल (धरम करम), मैं पल दो पल का शायर हुं, कभी कभी मेरे दिल में खयाल आता है (कभी-कभी), चंचल शीतल निर्मल कोमल (सत्यम शिवम सुन्दरम), दुनिया बनाने वाले क्या तेरे मन में समायी (तीसरी कसम), एक प्यार का नगमा है (शोर).
– चंद्रकांत एम. पोपट
रघुवीर, अमरावती