प्रिंट मीडिया का अतीत रहा सुनहरा, भविष्य भी रहेगा उज्वल
संपादक अनिल अग्रवाल का कथन
आईआईएमसी के विद्यार्थियों का किया मार्गदर्शन
राष्ट्रीय पत्रकार दिवस पर हुआ संबोधन
अमरावती/दि.16 – देश की आजादी से पहले स्वाधिनता संग्राम में और देश की आजादी के बाद राष्ट्रनिर्माण में बेहद उल्लेखनीय व महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले प्रिंट मीडिया के अस्थित्व व भविष्य को लेकर विगत कुछ समय से सवाल उठाएं आने लगे है. क्योंकि इन दिनों इंटरनेट व सोशल मीडिया का प्रभाव काफी अधिक बढ गया है. लेकिन प्रिंट मीडिया के भविष्य को लेकर सवाल उठाने वाले लोगों ने पूरी तरह से निश्चित रहना चाहिए. क्योंकि प्रिंट मीडिया का अतीत बेहद सुनहरा रहा है और प्रिंट मीडिया का भविष्य भी बेहद उज्वल है. इस आशय का प्रतिपादन दैनिक अमरावती मंडल व दैनिक मातृभूमि के संपादक अनिल अग्रवाल ने किया.
भारतीय प्रेस काउंसिल यानि प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया के स्थापना दिवस के उपलक्ष्य में प्रतिवर्ष 16 नवंबर को राष्ट्रीय पत्रकार दिवस मनाया जाता है. इसी उपलक्ष्य में आज भारतीय जनसंचार संस्था यानि आईआईएमसी के अमरावती स्थित प्रादेशिक केंद्र मेें राष्ट्रीय पत्रकार दिवस कार्यक्रम एवं चर्चासत्र का आयोजन किया गया था. जिसमें मुख्य वक्ता के तौर पर अपने विचार व्यक्त करते हुए संपादक अनिल अग्रवाल ने उपरोक्त प्रतिपादन किया. आईआईएमसी के प्रादेशिक संचालक वी. के. भारती के अध्यक्षता में आयोजित इस कार्यक्रम में मुख्य अतिथि के तौर पर संपादक अनिल अग्रवाल के साथ ही आईआईएमसी के डॉ. राजेश सिंह कुशवाहा एवं प्रा. अनिल जाधव उपस्थित थे.
इस समय अपने संबोधन में संपादक अनिल अग्रवाल ने कहा कि, लोकतंत्र में मीडिया यानि पत्रकारों को चौथा मजबूत स्तंभ कहा जाता है और हम अन्य तीनों स्तंभों के प्रति विपक्ष की भूमिका निभाते है. यहीं वजह है कि, मीडिया अक्सर व्यवस्था के निशाने पर ही रहता आया है. वैसे भी कहा जाता है कि, कोई भी लोकप्रिय अखबार एक अच्छा अखबार नहीं हो सकता. अत: अखबारों में लोकप्रिय होने के बजाय जनप्रिय होने की कसौटी पर खरा उतरने का प्रयास करना चाहिए. यदि कोई अखबार व्यवस्था में अलोकप्रिय है, लेकिन जनता की पसंद व अभिरुचि की कसौटी पर खरा उतर रहा है. तब उसे एक सफल अखबार कहा जाना चाहिए. इसके साथ ही बदलते वक्त के साथ तेजी से बदल रही चुनौतियों पर बात करते हुए संपादक अनिल अग्रवाल ने कहा कि, मौजूदा दौर में अखबारों के प्रकाशन की लागत काफी अधिक बढ गई है. वहीं लागत मूल्य से बेहद कम दाम पर अखबारों की विक्री होती है. ऐसे मेें इससे होने वाले घाटे को पूरा करने के लिए पाठकों के साथ-साथ बाजार के रुझान का भी ध्यान रखना पडता है और कुछ समझौते भी करने पडते है. लेकिन ऐसा करते समय इस बात का विशेष रुप से ध्यान रखा जाना बेहद जरुरी है कि, पत्रकारिता के मूलभूत सिद्धांतों से कोई समझौता न हो.
सोशल मीडिया नहीं, बल्कि सोशल प्लेटफॉर्म
इस समय विगत कुछ वर्षों के दौरान तेजी से बढ रहे सोशल मीडिया के प्रभाव को लेकर अपने विचार व्यक्त करते हुए संपादक अनिल अग्रवाल ने कहा कि, सोशल मीडिया कभी भी मेन स्ट्रीन मीडिया, विशेषकर प्रिंट मीडिया का स्थान नहीं ले सकता है और इसे सोशल मीडिया ही नहीं कहा जाना चाहिए. बल्कि इसे सोशल प्लेटफार्म कहना ज्यादा तर्कसंगत होगा. क्योंकि यहां एक ही मंच पर समाज के विभिन्न तबको के लोग मेलजोल बढाते है व एकजुट भी होते है. साथ ही इन दिनों सोशल मीडिया कहें जाते प्लेटफार्म के कई दुष्परिणाम व दुरुपयोग संबंधित मामले भी सामने आ रहे है. जिनसे लगभग हर कोई अच्छी तरह से परिचित है. संपादक अनिल अग्रवाल के मुताबिक इंटरनेट का प्रभाव बढने के साथ ही कई सोशल प्लेटफार्म साइड्स बननी शुरु हुई. जिनका लोगों ने पहले मनोरंजन के हिसाब से उपयोग किया. फिर इस पर कुछ हद तक जानकारियों का आदान-प्रदान शुरु हुआ. परंतु ऐसी जानकारियों की कभी कोई विश्वसनीयता नहीं थी. वहीं अब ऐसी सोशल साइड्स का उपयोग, अफवाह व भ्रामक खबरें फैलाने के लिए हो रहा है. यहीं वजह है कि, किसी समय सोशल मीडिया को बेहद सशक्त माध्यम बताने वाले देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हाल फिलहाल में ही इसे बेहद घातक व खतरनाक बताया है. इसी विषय को लेकर संपादक अनिल अग्रवाल ने कहा कि, जिस समय वे जस्टिस काटजु की अध्यक्षता के तहत प्रेस काउंसिल में शामिल थे. अब खुद उन्होंने ऐसी सोशल साइड्स पर सेंसरशीप लगाने की मांग उठाई थी और तत्कालीन कानून मंत्री कपील सिब्बल कोजोड्राफ्ट भेजा गया था वह खुद उन्होंने ही तैयार किया था और उनके द्बारा कई वर्ष पहले जताई गई तमाम आशंकाएं आज सच साबित होती दिखाई दे रही है. यहीं वजह है कि, फेसबुक व ट्विटर जैसी साइड पर एक के बाद एक अकाउंट को धडाधड ब्लॉक किया जा रहा है अथवा डीएक्टीव करते हुए हटाया जा रहा है. वहीं दूसरी ओर प्रिंट मीडिया की विश्वसनीयता आज भी बरकरार है.
नई पीढी को एक बार फिर ‘ऑन पेपर’ आना होगा
सोशल मीडिया के बढते प्रभाव और प्रिंट मीडिया के अस्तित्व व औचित्य को लेकर अपनी बात करते हुए संपादक अनिल अग्रवाल ने कहा कि, कोविड संक्रमन काल के दौरान हम सभी के लिए दुनिया और काम करने के तरीके पूरी तरह से बदल गये. उस समय बडे-बडे अखबारों का सर्क्यूलेशन आधे से भी कम हो गया था और स्थिति अब भी पहले की तरह नहीं हो पाई है. यहीं वजह है कि, कई अखबारों को अपने ऑनलाइन एडीशन भी शुरु करने पडे. जिसके तहत कुछ लोगों ने वेबसाइड बनाकर खबरे डालनी शुरु की. वहीं कुछ लोगों द्बारा अपने अखबारों की पीडीएफ फाइल बनाकर विभिन्न सोशल साइड पर डाली जानी लगी. ऐसे में 19-20 साल के युवाओं को भी अब अपने मोबाइल पर ऑनलाइन खबरें या अखबार पढने की कुछ हद तक आदत पड गई. लेकिन नई पीढी को अपनी यह आदत जल्द से जल्द बदलनी होगी और पहले की तरफ कागज पर छपे अखबारोें को पढने की ओर लौटना होगा. ताकि वाचन संस्कृति भी बची रहे. साथ ही साथ वाचन के जरिए दीर्घकालीन स्मरण शक्ति का भी विकास हो. क्योंकि इंटरनेट व ऑनलाइन के मकडजाल ने सबसे बुरा प्रभाव हमारी स्मरण शक्ति पर डाला है और आज का युवा किसी भी बात या संदर्भ के लिए अपने दिमाग पर जोर डालने की बजाय सीधे मोबाइल निकालकर गूगल करने लगता है. यह काफी हद तक गलत तरीके है. जिसमें सुधार करने की अब भी काफी गुंजाइश बची हुई है.
करीब 1 घंटे तक आईआईएमसी के छात्र-छात्राओं को संबोधित करने के उपरान्त संपादक अनिल अग्रवाल ने छात्र-छात्राओं के साथ प्रश्नोत्तर के तौर पर संवाद भी साधा और नई पीढी के पत्रकारों की जिज्ञासा को शांत करने के साथ ही उनके यथोचित व यथायोग्य मार्गदर्शन भी किया.
इस कार्यक्रम में संचालन मनीषा गुप्ता व आभार प्रदर्शन डॉ. राजेश सिंह कुशवाहा ने किया. इस अवसर पर आईआईएमसी के सभी फैकल्टी सदस्य, छात्र-छात्राएं एवं शिक्षकेत्तर कर्मचारी भी उपस्थित थे. इस कार्यक्रम के उपरान्त यहां पर आईआईएमसी के छात्र-छात्राओं द्बारा पत्रकारिता से संबंधित विभिन्न विषयों पर पेपर प्रेझेंटेशन किया गया.