अमरावती

रायफल के बट से पुलिस ने मारा था, आज भी शरीर पर है निशान

तेलेखोर नदी पार करते समय हुई थी गोलीबारी

रमेशचंद्र मोरे ने लिया था गोवा मुक्ति संग्राम में हिस्सा
अंजनगांव सूर्जी- /दि.18 देश को आजाद कराने हेतु भारतीय स्वाधीनता संग्राम सेनानियों को अंग्रेजों के साथ-साथ पुर्तगाली सैनिकों के साथ भी संघर्ष करना पडा, ताकि पुर्तगाली सत्ता के अधीन रहनेवाले गोवा को मुक्त कराते हुए उसे भारत के साथ जोडा जा सके. इस हेतु हुए आंदोलन को गोवा मुक्ति संग्राम के तौर पर जाना जाता है. ऐसे ही आंदोलन में अंजनगांव सुर्जी निवासी रमेशचंद्र मोरे ने भी हिस्सा लिया था. जिन पर पुर्तगाली सैनिकोें ने अपनी रायफल के बट से प्रहार किया था. जिसके निशान आज भी उनके शरीर पर है. लेकिन इसके बावजूद रमेशचंद्र मोरे ने अपने हाथों से तिरंगा झंडा नहीं गिरने दिया.
टाकरखेडा मोरे निवासी स्वाधीनता संग्राम सेनानी डॉ. भाउराव मोरे के बडे बेटे रमेशचंद्र मोरे विद्यार्थी दशा के दौरान ही अपने पिता के देशभक्तिपूर्ण कार्यों से प्रेरित थे. वर्ष 1930 में हुए ‘चले जाओ’ तथा वर्ष 1942 में हुए ‘भारत छोडो’ आंदोलन में सक्रिय सहभाग लेने के चलते डॉ. भाउराव मोरे को जेल भी हुई थी. वर्ष 1937 में जन्में रमेशचंद्र मोरे अपने पिता के कार्यों से बेहद प्रेरित थे. उस जमाने में पिता की आज्ञा की अवमानना अपने आप में एक बडी गलती मानी जाती थी और वर्ष 1954 में अपने हाथोें से ऐसी ही एक गलती हो जाने के चलते रमेशचंद्र मोरे ने अपना घर छोड दिया और वे सीधे नासिक पहुंच गये. जहां पर उन्हें समाजवादी पार्टी के पूर्व सांसद तथा गोवा मुक्ति संग्राम शुरू करनेवाले सत्याग्रही मधु लिमये का भाषण सुनने का मौका मिला. इसके साथ ही वे गोवा मुक्ति संग्राम के साथ जुड गये. पश्चात सन 1955 के जून माह में मधु लिमये के नेतृत्वतले पुणे से बेलगांव व सावंतवाडी होते हुए गोवा की सीमा पर रात के घने अंधेरे में पुलिस की नजर से बचते हुए तेलेखोर नदी को पार किया गया. इस समय पुलिस द्वारा सर्चलाईट वाली नावों से नदी में गश्त लगायी जाती थी और बीच-बीच में गोलियां भी चलाई जाती थी. ऐसे में पुलिस की नजरों से बचते-बचाते सभी सत्याग्रही चुपचाप गोवा राज्य की सीमा में पहुंच गये और सूरज का उजाला होने तक पैदल चलते हुए आगे बढते रहे. जिसकी खबर मिलते ही पुर्तगाली सैनिकों ने हवा में गोलीबारी करनी शुरू की और रमेशचंद्र मोरे के हाथ से तिरंगा झंडा छिनने का प्रयास भी किया, लेकिन रमेशचंद्र मोरे ने तिरंगे झंडे को बडी मजबुती के साथ पकड रखा था और वे उसे छोडने के लिए तैयार नहीं थे. ऐसे में एक पुर्तगाली सैनिक ने उनके सिर पर अपनी रायफल के हत्थे से भरपुर वार किया. जिससे वे बेहोश हो गये. वहीं इस समय पुर्तगाली सैनिकों ने सभी सत्याग्रहियों पर बडी बेदर्दी के साथ लाठीचार्ज करते हुए सभी को गिरफ्तार कर लिया और जेल में भी उन सभी के साथ अमानवीय मारपीट की गई. पुर्तगाली सैनिकों द्वारा क्रूरतापूर्वक की गई मारपीट के निशान आज भी रमेशचंद्र मोरे के शरीर पर है, जो उनके द्वारा सही गई यातनाओं को दर्शाते है. तत्कालीन राष्ट्रपति प्रतिभाताई पाटील व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह ने स्वाधीनता संग्राम सेनानी रमेशचंद्र मोरे का उनके कार्यों हेतु सम्मान किया था.
पिता की मार के भय से छोड दिया था घर
रमेशचंद्र मोरे के पिता डॉ. भाउराव मोरे बेहद सख्त मिजाजवाले अनुशासनप्रिय व्यक्ति थे. ऐसे में पिता के गुस्से से बचने के लिए शाला की परीक्षा में अनुत्तीर्ण होने के बाद रमेशचंद्र मोरे ने अपनी अंकपत्रिका में काट-छाट करने के बाद वह अपने पिता को दिखाई थी, लेकिन यह भांडा फूट जाने पर रमेशचंद्र मोरे की उनके पिता ने जमकर पिटाई की. बात यहीं पर खत्म नहीं होनेवाली थी, बल्कि शाला में प्रवेश के समय भी यह मामला दोहराया जा सकता था और सभी शिक्षकों व बच्चों के सामने पिटाई हो सकती है, इस भय से रमेशचंद्र मोरे ने अपना घर छोड दिया और किस्मत उन्हें गोवा स्वाधीनता संग्राम में लेकर गई.

गाडगेबाबा के आशिर्वाद से मिला संघर्ष को बल
घर से भाग जाने के बाद रमेशचंद्र मोरे रेलगाडी में सवार होकर नासिक पहुंचे. जहां पर उन्होंने संत गाडगेबाबा धर्मशाला में अपना ठिकाना बनाया. यहां रहने के दौरान उनके मन में अक्सर ही आत्महत्या कर लेने के विचार आया करते थे. इसी दौरान एक दिन खुद संत गाडगेबाबा इस धर्मशाला में आये. जिन्हें देखकर रमेशचंद्र मोरे उनके पैरों में झुक गये. इस समय गाडगेबाबा ने ‘उठ रे बाबा विठ्ठला… उठ’ कहते हुए उन्हें दोनों बाजूओं से पकडकर उठाया और अपना आशिर्वाद दिया. जिसके बाद रमेशचंद्र मोरे को जिंदगी जीने और संघर्ष करने की प्रेरणा मिली.

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