अमरावती

आत्मा को अशुद्धि से शुद्धि की ओर ले जाना तप है

अंबापेठ जैन उपाश्रय में परम समाधिजी महासतीजी आदि ठाणा 3 के बोध वचन

अमरावती/दि.16 – स्थानीय अंबापेठ स्थित श्री वर्धमान स्थानकवासी जैन श्रावक संघ के प्रांगण में राष्ट्रसंत परम गुरुदेव श्री नम्रमुनि महाराज साहेब के आज्ञानुवर्ती पू. श्री परम समाधिजी महासतीजी, पूज्य श्री परम ऋजुताजी महासतीजी, पूज्य श्री परम विभूतिजी महासतीजी के पावन सानिध्य में आयंबिल ओली पर्व के नौवें दिन जी या मर्जी इस विषय पर मंगलाचरण से प्रवचनमाला की शुरुआत करते हुए परम ऋजुताजी महासतीजी ने बताया कि डिप्रेशन और स्ट्रेस जैसी बीमारी का मेन रीजन है आपका आग्रह. हम हमारे विचारधारा के प्रयास से जिएं य न जिए लेकिन हम चाहते हैं कि बाकी सब हमारी विचारधारा के मुताबिक जिएं. हम हमारी अलग-अलग विचारधाराओं को पसंद करते हैं लेकिन हमारे आसपास रहने वाले लोगों की अलग-अलग विचारधाराओं को पसंद नहीं करते. जब हम हमारी अलग-अलग प्रकृति को आंखों के सामने रखते हैं तब हमें हमसे अलग प्रकृति वाले लोगों के साथ कैसे व्यवहार करना है वह आ जाता है. हमारा आग्रह छूटे उसके लिए हमें एक प्रयोग करना है, हमें सबको जी बोलना है, चाहे वो हमसे बड़े हो या छोटे हो सबको जी बोलना है. तन पर मन की जीत आयंबिल ओली पर्व के नौवें दिन तप धर्म की महत्ता का वर्णन विशद करते हुए परम समाधिजी महासतीजी ने बताया कि आत्मा को अशुद्धि से शुद्धि की ओर ले जाना उसे तप कहते हैं. आसक्ति को ममत्व भाव को छोड़ना तप है. जो कर्म बंधन से अटकाएं वह तप है. द्रव्य कर्मों की नहीं भाव कर्मों की निर्जरा कराएं उसे तप कहते हैं. आहार की आसक्ति के त्याग को तप कहा जाताहै. इच्छा का आग्रह तप नहीं कर्म बंध का कारण है. जैसी आपकी प्रकृति होती है. जीवन में गुरु का महत्व विशद करते हुए परम महासतीजी ने बताया कि गुरु शिष्य की इच्छाओं पर अंकुश लाते हैं. संयमी इच्छा या आग्रह से नहीं बल्कि गुरु आज्ञा पालन से कर्मों की निर्जरा करते हैं. गुरु शिष्य की प्रकृति पर नियंत्रण लाते हैं. गुरु केवल आज्ञा नहीं देते, आज्ञा पालन का परिबल भी प्रदान करते हैं. जीवन में अनुकूलता को नहीं प्रतिकूलता को आमंत्रण दें. प्रतिकूलता कर्म क्षय का कारण बनती है. शरीर अशुचि से भरा भंडार है जो अंत में राख ही होने वाला है. उस पर आसक्ति ना रखें. आत्मा नित्य है, पुद्रल पर्याय बदलती रहती है. अतः पदार्थों के प्रति आसक्ति ना हो. बस मन में यहीं भाव हो कि किस तरह मैं मेरी आत्मा को अशुद्धि से शुद्धि की ओर ला पाऊं.

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