मेलघाट में सजा आदिवासियों का पारंपरिक थाट्या बाजार
काटकुंभ में ढोलक व बासुरी के स्वरों पर चल रहा नृत्य
* बडे उत्साह के साथ आदिवासी मना रहे दीपावली का पर्व
चिखलदरा/दि.18– मेलघाट के आदिवासियों की एक अलग ही संस्कृति है और उनकी अपनी एक अलग ही दुनिया है. आदिवासी कोरकु समाज के लिए होली का पर्व सबसे महत्वपूर्ण होता है. वहीं मेलघाट के गायकी गौंड समाज बंधु दीपावली के पर्व पर अपने जानवरों के साथ खेलते हुए और बासुरी व ढोलक के ताल पर नृत्य करते हुए दीपावली का पर्व मनाते. दीपावली के दूसरे दिन से शुरू हुए इस पर्व के तहत बुधवार को चुरणी में तथा गुरूवार को काटकुंभ में थाट्या बाजार सजा.
बता दे कि मेलघाट में चरवाहे को थाट्या कहा जाता है. गायकी गौंड समाज के लोग चरवाहे का काम करते हुए पूरे सालभर गांव के जानवरों को चराने का काम करते हैं. जिसके बदले उन्हें पशु पालकों की ओर से सालाना मेहनताना मिलता हैं. जिससे उनके परिवार की आर्थिक जरूरते पूरी होती हैं. दीपावली के पर्व पर मेलघाट के आदिवासी गांवों व बस्तियों में चरवाहों द्बारा बडे उत्साह के साथ ढोलकी व बासुरी के सूरों पर नृत्य पेश किया जाता है और अपने कामकाजी साल के पूरा होने की खुशी मनाई जाती है.
* गेरू के बाद थाट्या बाजार की धूम
दीपावली के दूसरे दिन गांव में चरवाहों द्बारा ढोलक व बांसुरी के साथ नाच गाना किया जाता है. जिसे गेरू कहा जाता है. जिसके बाद तहसील में अलग- अलग स्थानों पर लगने वाले साप्ताहिक बाजारों में आसपास के गांवों के समाज बंधु एकजुट होकर नाच गाना करते है जिसे थाट्या बाजार कहा जाता है. बदलते दौर के बावजूद भी मेलघाट की आदिवासी संस्कृति अनवरत जारी है तथा क्षेत्र के चरवाहों द्बारा अपनी परंपराओं का निर्वहन किया जा रहा है.
* गोधनी निकालकर मनाई दिवाली
पूरे साल भर गांव के पालतू मवेशियों के साथ पूरा दिन बिताते हुए उनकी चराई करानेवाले गायकी गौंड समाज बंधुओं का इन पालतू मवेशियों के साथ एक प्यारवाला रिश्ता बन जाता है. ऐसे में दीपावली के दिन पशुपालक के घर की दीवार को चुने से रंगते हुए गेरू से गौधनी निकाली जाती है और जानवरों को चरवाहो द्बारा खिचडा खिलाया जाता है. जिसके बदले पशु पालको द्बारा चरवाहों को सूप में रखकर अपने घर का अनाज देने की परंपरा आज भी चली आ रही है. विशेष उल्लेखनीय है कि दीपावली वाले 5 दिनों के दौरान चरवाहों द्बारा जानवरों को चराई के लिए नहीं ले जाया जाता. मेलघाट के कोरडा, कोयलारी, कोटमी, बगदरी, काजल डोह, डोमा, बामादेही आदि गांवों में इस प्रथा की शुरूआत शुक्रवार से हो गई है.