अमरावती

कुंवारी कन्याओं ने शंकर-पार्वती का किया पूजन

महाराष्ट्र का पारंपरिक त्यौहार है भुलाबाई

धामणगांव रेलवे/दि.1– भारती संस्कृतिक के पारंपरिक त्यौहार में से एक भुलाबाई पूजन विशेषकर महाराष्ट्र के विदर्भ में पांच दिवसीय मनाया जाता है. कुंवारी कन्याएं भगवान शंकर एवं माता पार्वती का शाम को पूजन करती हैं. दशहरे के दूसरे दिन से पूर्णिमा तक उत्सव मनाया जाता है.

उत्सव में शंकर-पार्वती को मिट्टी से बनी सुंदर एवं मनमोहक छोटी सी मूर्ति को दशहरे के दूसरे दिन स्थापित किया जाता है. पांच दिवसीय उत्सव में शाम को परिसर की महिलाओं को निमंत्रित किया जाता है. सभी महिलाएं एकत्रित होने पर पहले भुलाबाई के पारंपरिक गीतों को सामूहिक रुप से गाकर नृत्य भी करते हैं. पश्चात निमंत्रित परिवार की ओर से विविध व्यंजनों का खुद के हाथों से बनाया गया प्रसाद बंद डिब्बे में लगाया जाता है. फिर इन बंद डिब्बों को हाथ से हिलाकर उपस्थित युवती एवं महिलाओं को उस बंद डिब्बे में कौनसा प्रसाद होगा इस बारे में प्रश्न गीतों के माध्यम से किए जाते हैं. इसका जवाब प्रसाद पहचानने वाले युवती को गीत के व्दारा ही देना होता है.

जिसने बंद डिब्बे के प्रसाद को पहचाना वही युवती होनहार कहलाती है. इन परंपराओं के पीछे अपनी कुशलता को आगे बढाने के लिए कारगर माना गया है. जिसमें आपसी भेदभाव को भुलाकर भाईचारा सुदृढ होने की बात भी सामने आती है. भुलाबाई उत्सव में मूर्ति की सजावट में ज्वार के भुट्टों समेत धांडो का अन्यय साधारण महत्व है. जो मूर्ति पर झोपडीनुमा खडे किए जाते है. पहले तो किसान अपने खेत से ही घर लेकर आते थे. लेकिन अब ज्वार के इन पौधों का मिलना दुर्लभ होता जा रहा है. लेकिन आज भी इन पौधों की दुकानें लगाकर किसान रोजागर का अवसर प्राप्त कर लेत हैं. पारंपरिक त्यौहार के साथ मनोरंजन, एकात्मता, रोजगार आदि अवसरों का आज भी ग्रामीण क्षेत्र में चलन है. जिसमें से यह भुलाबाई उत्सव का पारंपरिक त्यौहार है.

* आज भी महत्व कायम
पारंपरिक त्यौहारों के साथ ही पुरातन काल में मनोरंजन के सीमित साधनों की वजह से ग्रामीण इलाकों में इन उत्सवों के माध्यम से महिलाएं एकत्रित होकर गीतों का गायन, नृत्य आदि से अपनी कलाओं को उजागर कर उत्सवों को पारंपरिक बनाने का प्रयास करती आई है. लेकिन समय के साथ बदलाव भी हुआ है. आजकल मनोरंजन के लिए संसाधनों की कोई कमी नहीं है. टीवी, मोबाइल, लैपटॉप आदि में युवा पीढी अधिक मशगुल हो गई है. इसी कारण पारंपरिक त्यौहारों का स्वरुप भी बदल रहा है. लेकिन आज भी ग्रामीण परिसर में भुलाबाई पूजन की मान्यता कम नहीं हुई है.

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