अमरावती

श्रृंगी ऋषी के सानिध्य से पूनीत तपोवनेश्वर जागृत शिव मंदिर

श्रृंगी ऋषी के सानिध्य से पूनीत तपोवनेश्वर जागृत शिव मंदिर
– महाशिवरात्रि पर्व पर विशेष
अमरावती दि. 17श्रीमद् भागवत कथा में भगवान श्रीकृष्ण ने 6 वे अध्याय में तप साधना स्थान कैसा हो, इसका वर्णन किया है उन्होंने कहा कि, ऐसा स्थान जहाँ एक बार बैठ गए तो उठने का मन न करे ऐसा स्थान जहाँ संत महात्माओंका वास हो, जहाँ के वायु मंडल में उसकी अनुभूति हो, साधक वहाँ निवास करे, जडों से टहनियों तक सभी घने वृक्ष मिठास लाए, जहाँ स्वच्छ, शुद्ध, निर्मल पानी बहता हो, पानी में डुबकी लगाते हँस और चहचहाती कोयल और मस्ती में चूर मोर अपने पंख पसारे नाच रहे हो. जहाँ दुर कही मंदीर या मठ हो. जहाँ दिनभर घंटियाँ बजती हो. ऐसी जगह में तप-साधना करने में मनुष्य का मन रमता है. इसी तरह की अनुभूति अमरावती शहर में स्थित एक स्थान पर होती है. जिसे तपोवनेश्वर नामसे जाना जाता है तपोवनेश्वर शहरसे 15 कि.मि. दुरी पर स्थित है. अमरावती-चांदुर रेल्वे मार्गपर स्थित इस स्थल को तपोभुमी भी कहा जाता है. शिव परिवार की महीमा दर्शानेवाले इस तपोवनेश्वर की भी अपनी एक पौराणिक कहानी है.
तपोवनेश्वर का जन्म त्रेतायुग में हुआ. उस समय गुफा में जागृत शिव मंदिर हुआ करता था. इस शिव मंदिर में श्रृंगीऋषी प्रतिदिन पूजा अर्चना करते थे. इस काल में श्रृंगी ऋषी पुत्रकामेष्ठी यज्ञ के पौरोहित्य के रूप में प्रचलित थे. राजा दशरथ की तीन रानियाँ थी. जिन्हे पुत्र प्राप्ती की लालसा थी. लेकिन उन्हे पूत्र प्राप्ती का योग नही मिल रहा था. इसलिये राजा दशरथ ने अपने राजगुरू श्री वशिष्ठ ऋषी से इस संदर्भ में अपनी चिंता जताई, तो उन्होंने पुत्र कामेष्ठी यज्ञ करवाने की सलाह दी. जिसमें तपोवनेश्वर क्षेत्र के पुराहित श्री. श्रृंगी ऋषी को आमंत्रित किया. राजा दशरथ की माता महारानी इंदुमती मुलतः विदर्भ के कौंडण्यपुर के राजा की पुत्री थी और श्री श्रृंगी ऋषी उनके राजगुरू थे. जिसके कारण राजा दशरथ के बुलावे पर वे अयोध्या गये और पुत्र कामेष्ठी यज्ञ किया. तब से इसे श्री श्रृंगी ऋषी के नाम से भी जाना जाता है.
पोहरा बंदी के तीन पहाड़ों में बसे जागृत शिव मंदिर के पास गुफा है जहाँ जलकुंभ भी है. इसी गुफा में श्री श्रृंगी ऋषी का आश्रम था ऐसा कहा जाता है. इस स्थान का संबंध द्वापर युग से भी है. रूक्मिणीजी की, माता अंबादेवी व एकवीरा देवी कुलस्वामीनी थी. लेकिन वह शिव की परम भक्त थी. जिसके कारण वे जब भी अंबादेवी मंदिर आती तो वह तपोवनेश्वर आने से भी नही चुकती थी. गुफा मार्ग से वह तपोवनेश्वर व कौंडण्यपुर में दर्शन करने आती थी इसी कारण द्वापर युग में भी रूक्मिणी हरण के समय श्री श्रृंगी ऋषी के आश्रम में उन्होंने माथा टेका था ऐसा कहा जाता है, ऐसे पौराणिक कथाओंसे जूडे तपोवनेश्वर के इतिहास के पन्नों को आगे पढे तो पता चलता है कि, योगीराज सद्गुरु सीताराम गिरी महाराज ने भी भगवान दर्शनों के लिये काशी से विदर्भ की ओर रूझान किया था. काशी के योगीराज सीताराम गिरी महाराज 1870-80 मे विदर्भ के तपोवनेश्वर में आए. जागृत शिवलिंग की लीलाओं को देखकर मंत्रमुग्ध हुए. योगिराज यहाँ के निसर्गमय वातावरण में रम गए. घने जंगल व घास की झोपड़ी में रहकर अखंड धुनी और जंगली श्वापदों के साथ उन्होंने कठोर तपस्या की. जंगल से कंद मूल लाकर उसीपर आनी जीविका चलाना और भगवान शिव की आराधना करना यही उनके जीवन का चक्र था. उस समय भारत में स्वतंत्रता के लिये युद्ध हो रहा था और तपोवनेश्वर में शिव महिमा का बखान हो रहा था. लेकिन गुफा के अंदर यानी श्री श्रृंगी ऋषी के आश्रम में बने शिवलिंग का दर्शन केवल योगीराज ही ले पाते थे. आम आदमी उस गुफा में प्रवेश नही कर पाता था. जिसके कारण योगीराज ने उस शिवलिंग को गुफा के बाहर स्थापित किया. शिवलिंग का आकार अन्य शिवलिंग के मुकाबले अलग है. शिवलिंग की आकृती अधूरी है. वही पिंड त्रिकोणाकृती आकार का है. इस मंदिर में शिवलिंग के साथ उनका परिवार भी स्थित है. मंदिर में दक्षिण पद्धती से बनाई गई भगवान शिव-पार्वती की मूर्ति है. इसके अलावा दाहिने हाथपर गणेश व दाए हाथ पर भगवान कार्तिकेय की मुर्ति भी स्थापित है. मंदिर से बाहर आते ही वही पर गुफा दिखाई देती है. गुफा के बाजू मे शिव- पार्वती की काले पत्थरोंकी मुर्तिया है, जिसके दोनों ओर नंदी विराजामन है. गुफा से थोडी ही दूर जाये तो पुरानी शिलाओंसे बना हनुमान मंदिर है. कहा जाता है कि, योगीराज सीतारामदास मुलतः मुधोलकर पेठ के निवासी थे. उनके गुरू श्री. बजरंगदास महाराज तपस्या करने तपोवनेश्वर आते थे. जहाँ उनकी मुलाकात सीताराम गिरी महाराज से हुई, दोनोंने मिलकर हनुमान मंदिर स्थापित किया. हनुमान मंदिर से लगकर भगवान विष्णू व महालक्ष्मी का मंदिर है. इस मंदिर की मुर्तिया विठ्ठल-रूक्मिणी की तरह नजर आती है तथा उनकी रचना व रंग उन्ही की तरह है.
थोडा आगे जाकर भगवान भैरवनाथ का मंदिर दिखाई देता है. भगवान भैरवनाथ का शिला मुख अंकित है. बाबा भैरवनाथ मंदिर को उनका ही नाम क्यो दिया गया? इसका कोई इतिहास नही है. लंकिन योगीराज ने नाम दिया, इसलिये परिसर के लोग उसे भैरव बाबा का मंदिर कहते है. परिसर में अखंड बेल का वृक्ष भी है जिसका ग्रंथो मे भी उल्लेख है. काशिखंड में इसका महात्म्य पढने को मिलता है. शिवालय के चारो ओर बेल के वृक्ष पाए जाते है लेकिन दुर्लभ प्रजाति वाला अखंड बेल का यह वृक्ष नष्ट हो चुका है. फिलहाल परिस में का पेड मात्र बचा है, जिसकी महाशिवरात्री व श्रावण माह में उत्साह के साथ पुजा की जाती है. प्रत्यक्षदर्शियों के मुताबिक योगीराज स्वयं ही महाशिवरात्री के पर्व पर विभूतियों के दर्शन के लिये गुफा में जाते थे. उस समय उनके साथ हिंगणघाट की उनकी मानसकन्या बालयोगी संत लक्ष्मीमाता भी रहती थी, इसी कारण उनका नाम गुफावाले बाबा भी पड़ा.
योगीराज बाबा 15 साल की उम्र में तपावेनेश्वर आये. उन्होंने 100 साल से भी अधिक तपस्वी जीवन यहाँ बिताया. उनकी पादुका को लेकर उनकी मानसकन्या हिंगणघाट लौट चूकी थी. वहाँ साई प्रतिष्ठान में आज भी वह पादुका स्थित है. योगीराजजी ने अपने जीवनकाल में नेपाल नरेश के गुरू स्वामी श्री. नरहरीनाथ के साथ सत्संग किया. उन्होंने भक्तोंको ईश्वर भक्ती का मार्ग दिखाया. इस स्थल को साधना का गुप्ता स्थान कहा जाता है.
योगीराजजी की मृत्यु के बाद गुंफा का द्वार बंद कर दिया गया. मृत्यु से पूर्व उन्होंने गुंफा में मंदिर होने की बात कही थी. लेकिन गुंफा में कभी किसी ने जाने का प्रयास नही किया. बाबा के लीये भक्तोंने 3 जून 1978 में योगाश्रम बनाया था जो आज भी मौजूद है और यहाँ बाबा समाधी लगाते थे तथा विश्राम करते थे. योगीराजजी की मृत्यु के पश्चात उनकी समाधी वही मन्दीर के पास बनायी गयी. उसके पासही बाबा की अखण्ड धुनी के पास योगीराज सद्गुरू श्री सितारामगिरी बाबा ध्यान मुद्रा में बैठे से लगते है.
गुंफा में स्थित जलकुंड का पानी कहाँसे आता है वह किसी को नही मालूम, लेकिन उससे तपावेनेश्वर के आस-पास स्थित अपने आप जल का स्तर बढता है, इसके अलावा विष्णू, महालक्ष्मी मंदिर के पास एक शिलालेख जिस पर गणेश की प्रतिमा की आकृती है, वह मंदिर का प्रवेशद्वार था ऐसा कहा जाता है. परिसर में आज भी द्वापर व त्रेतायुग के शिलालेख पाये जा सकते है.
महाशिवरात्री सप्ताह और श्रावण माह में विविध कार्यक्रम चलाये जाते है. पिछले 30 वर्षोंसे मन्दीर में भक्तों की सुविधा के लीये बांधकाम किया जा रहा है. खूदाई में मिले प्राचीन शिलालेख पर बने सभी मंदिरों को छोटे-छोटे मंदिरों में परिवर्तीत किया गया है. मंदिर में धर्मशाला, भोजनकक्ष बनाया गया है. इसके अलावा ध्यान सभागृह, निवासस्थान भी बनाया जा रहा है . मंदिर के ट्रस्टी मिलकर इस जागृत देवस्थान की विकासात्मक रचना कर रहे है. जिसमें ट्रस्ट के अध्यक्ष अनिल साहू, उपाध्यक्ष लच्छुरामजी पवार, सचिव प्रविण सावळे, विश्वस्त देवराव भोरे, हरिभाऊ बाहेकर, वासुदेवराव भुजाडे, रूपचन्द्र खंडेलवाल, रामचंद्र गुप्ता, साहेबराव ठाकरे, दिलीप ठाकरे, राजेश आंचलीया आदी सहयोग दे रहे है. सभी के सहयोग से बननेवाले इस धार्मिक स्थलपर स्कुली छात्र, नागरिक भेट देने आते है तथा सामाजिक संस्था निवासी शिबीर होते रहते है.
ऐसे अति प्राचीन शिव मंदीर में महाशिवरात्री सप्ताह मनाया जा रहा है. जिसमें सुबह 6.00 बजे से रात 12.00 बजे तक भजन संध्या, होम हवन, गुरूपाठ, दुग्धाभिषेक, रूद्राभिषेक जैसे विविध कार्यक्रम 12 फरवरी 2023 से 18 फरवरी 2023 तक आयोजित किए गए है. जिससे ज्यादा से ज्यादा भाविक भक्तगण भगवान उमा महेश के दर्शनों का आनंद ले.
– अनिल साहू,
अध्यक्ष, श्री तपोवनेश्वर संस्थान

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