लेख

अंतत: राम मंदिर का स्वप्न पूर्ण हुआ

३० नवंबर १९९२ को मुंबई के बांद्रा स्थित प्रकाशगढ में एक महत्वपूर्ण काम को लेकर बैठक थी. जिसमें शामिल होने के लिए मैं मुंबई गया हुआ था. हमेशा की तरह अमरावती से अकेला ही रवाना हुआ था और साथ में कोई खास सामान या कपडे-लत्ते भी नहीं थे. विश्व हिन्दू परिषद का कार्यकर्ता रहने के नाते मैने मुंबई से अमरावती लौटने के बाद अमरावती से कपडे-लत्ते व जरूरी सामान लेकर अपने साथियों के साथ अयोध्या जाने का फैसला किया था. किंतु प्रकाशगढ में आयोजित बैठक में हिस्सा लेने के बाद जब मैं अमरावती आने के लिए मुंबई रेल्वे स्टेशन पर पहुंचा तो, वहां पर विश्व हिन्दू परिषद व बजरंग दल के हजारों कार्यकर्ताओं की भीड अयोध्या जाने के लिए बेताब थी और पूरे रेल्वे स्टेशन परिसर में ‘जय श्रीराम‘ व ‘मंदिर वहीं बनायेंगे‘ की घोषणा गूंजायमान हो रही थी. ऐसे में मुझसे रहा नहीं गया और मैं भी हजारों रामभक्तों की उस अपरिचित भीड में शामिल हो गया और उनके साथ रामनाम का जयघोष करते हुए जिस गाडी में वे सभी लोग बैठे, उसी गाडी में सवार हो गया. वहां से भोपाल व लखनौ होते हुए हम कहीं रूक कर और कहीं पुलिस द्वारा दी जानेवाली तकलीफों को सहन करते हुए उत्तर प्रदेश के सुलतानपूर तक पहुंचे. यहां से मेरी सही परीक्षा शुरू हुई, क्योंकी मैं जिनके साथ आया था, वे आगे निकल गये और मैं अलग-थलग पड गया. पश्चात मैं अकेला ही अयोध्या की ओर जाने हेतु रास्ता पूछते हुए आगे बढा. हालांकि वहां के लोगोें की भाषा हिंदी ही थी, लेकिन वह एकदम से ध्यान में नहीं आती थी.

इस समय सभी रास्तों पर एक ही दिशा में हजारों लोगों की भीड आगे बढ रहीं थी. जिनमें कोई दक्षिण भारतीय था, कोई बंगाली था, कोई राजस्थानी और कोई गुजराती था. हर प्रांत से रामभक्तों की भीड उस समय सुलतानपुर से अयोध्या की ओर आगे बढ रहीं थी और स्थानीय लोगों ने राम मंदिर आंदोलन में हिस्सा लेने हेतु पहुंचे. रामभक्तों के खानेपीने की बेहतरीन व शानदार व्यवस्था की थी. जिसके चलते वहां पहुंचा हर एक रामभक्त पूछताछ करते हुए आगे बढ रहा था. उस समय मैं यद्यपि अकेला था और मेरे साथ अपने परिचय का कोई परिचित नहीं था. लेकिन अपने आसपास मौजूद सैंकडों लोगोें के साथ ‘जय श्रीराम‘ के नारे का एक अनोखा परिचय हो गया था. जंगल, टेकडी, नदी व खेतों से मार्गक्रमण करते हुए हमने कभी पैदल और कभी ट्रैक्टर जैसे वाहनों के जरिये ४० से ५० किमी. की दूरी तय की और मैं अंतत: अयोध्या पहुंचा, लेकिन सभास्थल पर जाने का मार्ग काफी दिक्कतों से भरा था, क्योंकि वहां की स्थानीय पुलिस काफी तकलीफें दे रही थी और इक्का-दूक्का रहनेवाले कारसेवकों के साथ मारपीट भी की जा रही थी. वहां पर कोई भी किसी का सुनने की मनस्थिति में नहीं था. ऐसे में सभी ने सभास्थल की ओर आगे बढने के लिए १००-२०० भक्तों का समूह बनाया. लेकिन कई बार पुलिस द्वारा गलत मार्ग बताये जाने के चलते रामभक्तों के समूह सभास्थल पर पहुंचने की बजाय इधर-उधर ही घुम रहे थे. साथ ही सभास्थल पर लगे लाउडस्पीकरों की आवाज को वहां के प्रशासन द्वारा कम करा दिया गया था. जिससे सभा स्थल निश्चित रूप से किस ओर है, यह पता नहीं चल रहा था. लेकिन जब साधवी उमा भारती व साधवी ऋतंबरा का भाषण शुरू हुआ, तो सभी रामभक्तों में चेतना का संचार हुआ और वे तमाम बाधाओं को पार करते हुए लाखों की संख्या में सभास्थल पर इकठ्ठा हुए. इस समय यह पता ही नहीं चला कि, हमारे हाथ कब हथियार बन गये और हर कोई उस विवादित ढांचे को गिराने और प्रभु रामचंद्र की जन्मभुमि को मुक्त करने की तीव्र इच्छा से भर गया. इसके चलते विवादित ढांचे के चारों ओर लगाये गये बैरिकेटिंग को तोडकर रामभक्त कारसेवकों की भीड उस विवादित ढांचे पर चढ गयी और उसे नेस्तनाबूत कर दिया गया. मेरा सौभाग्य है कि, मैं उस पूरी घटना का प्रत्यक्ष साक्षीदार रहा और १३ दिनों तक भोजन-पानी और घरबार को भूलकर राममय वातावरण में रहा. जिस काम के लिए हम सबकुछ भूलकर अयोध्या पहुंचे थे. आज २८ वर्षों बाद उस काम की शुरूआत होने जा रही है. इसका मुझे सर्वाधिक आनंद है और लग रहा है मानो आज हमारे काम भगवान श्रीराम के चरणों में समर्पित होकर सफल व सुफल हो गये है. –

                     जयंत कद्रे                                                                                                                                                                       पूर्व जिलाध्यक्ष विश्व हिन्दू परिषद                                                                                                                                                             मो. ९४२२१५५०४७

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