‘देवता समान माता-पिता को प्रणाम’
संसार में यदि हमारा कोई भी अस्तित्व है या हमारी इस जगत में कोई पहचान है तो उसका संपूर्ण श्रेय माता-पिता को ही जाता है. यहीं वजह है कि भारत के आदर्श पुरुषों में से एक राम ने माता-पिता के इशारे पर युवराज पद का मोह त्याग दिया और वन चले गए. कितने कष्टों को सहकर माता पुत्र को जन्म देती है, उसके पश्चात अपने स्नेह रूपी अमृत से सींचकर उसे बडा करती है. माता- पिता के स्नेह व दुलार से बालक उन संवेदनाओं को आत्मसात करता है, जिससे उसे मानसिक बल प्राप्त होता है.
हमारी अनेक गलतियों व अपराधों को वे कष्ट सहते हुए सदमार्ग पर चलने हेतू प्रेरित करते है. पिता का अनुशासन हमें कुसंगित के मार्ग पर चलने से रोकता है एवं सदैव विकास व प्रगति के पथ पर चलने की प्रेरणा देता है. यदि कोई डॉक्टर, इंजिनियर व उच्च पदों पर आसीन होता है तो उसके पीछे उसके माता पिता का त्याग, बलिदान व उनकी प्रेरणा की शक्ति निहित होती है. हिंदू शास्त्रों व वेदों के अनुसार मनुष्य को 84 लाख योनियों के पश्चात मानव शरीर प्राप्त होता है. इस नजरिए से माता-पिता सदैव पुजनीय होते है जिनके कारण हमें यह दुर्लभ मानव शरीर की प्राप्ती हुई. माता-पिता से संतान को जो कुछ भी प्राप्त होता है व अमूल्य है. मां की ममता व स्नेह तथा पिता का अनुशासन किसी भी मनुष्य के व्यक्तित्व निर्माण में सबसे प्रमुख भूमिका रखते है. हम जीवन पथ पर चाहे किसी भी उंचाई पर पहुंचे हमें कभी भी अपने माता-पिता के सहयोग, उनके त्याग और बलिदान को नहीं भूलना चाहिए. हमारी खुशियों व उन्नति के पीछे हमारे माता- पिता की अनगिनत खुशियों का परित्याग निहीत होता है. अत: हमारा परम दायित्व बनता है कि हम उन्हें पूर्ण सम्मान प्रदान करें और जहां तक संभव हो सके खुशियां प्रदान करें. माता-पिता की सदैव यहीं हार्दिक इच्छा होती है कि पुत्र बडा होकर उनके नाम को गौरवान्वित करें. इसीलिए हम सभी ने अपनी लगन, मेहनत से उच्चकोटी का कार्य करें, जिससे हमारे माता- पिता का नाम गौरवान्वित हो. हम सदैव यह ध्यान रखे कि हमसे ऐसा कोई भी गलत कार्य ना हो जिससे उन्हें लोगों के सम्मुख शर्मिदां ना होना पडे.
आज की भौतिकवादी पीढी में विवाहोपरांत युवक अपने निजी स्वार्थो में इतना लिप्त हो जाते है कि वे अपने बूढे माता-पिता की सेवा तो दूर अपितू उनकी उपेक्षा करना प्रारंभ कर देते है. यह निसंदेह एक निदंनीय कृत्य है. उनके कर्मो व संस्कार का प्रभाव भावी पीढी पर पडता है. किसी भी मनुष्य को उनके जन्म से लेकर उसे अपने पैरों तक खडा करने में माता- पिता को किन-किन कठिनाइयों से होकर गुजरना पडता है इसका वास्तविक अनुभव संभत: स्वयं माता या पिता बनने के उपरांत ही लगाया जा सकता है.
अंत जीवनपर्यंत मनुष्य को माता-पिता के प्रति कर्तव्यों व उत्तरदायित्वों का निर्वाह करना चाहिए. माता-पिता की सेवा सच्ची सेवा है. उनकी सेवा से बढकर दूसरा कोई पुण्य कार्य नहीं है. हमारे वैदिक ग्रंथों में इन्ही कारणों से माता को देवी के समकक्ष माना गया है.
माता-पिता की सेवा द्वारा प्राप्त उनके आर्शीवाद से मनुष्य जो आत्मा संतुष्टि प्राप्त करता है वह समस्त भौतिक सुखो से भी श्रेष्ठ है. ‘मातृदेवो भव पितृदेवो भव’ वाली वैदिक अवधारणा को एक बार फिर से प्रतिष्ठित करने की आवश्यकता है ताकि हमारे देश का गौरव अक्षुण्ण बना रहे.
माँ पापा बिन दुनिया सुनी ।
जैसे तपती आग की धुनी ।
माँ ममता की धारा है ।
पिता जीने का सहारा है।
– हिमांशु अजय तराळे
मधुराशिष कॉलोनी, अमरावती