क्या दृष्टिहीन समस्या के बारे में जानना चाहते है तो किसी भी छुट्टी के दिन आंखें बंद करके काम करने की ठानिए. बिस्तर से उठकर नित्यकर्म से निवृत्त होने तक पचास जगह ठोकर लगेगी. 10 जगह सिर फूटेगा और यह मिनट/ सेकंड का समय युग युगांतर महसूस होने लगेगा. इतना छोटा सा प्रयोग जब इतना असह्य और दुखद हो सकता है, तो जीवन का संपूर्ण बोझ ढोनेवाले दृष्टिहीनों को क्या दर्द होगा ?
आज संसार जानता है कि दृष्टिहीन को द़ृष्टिवान बनाया जा सकता है. पहले-पहल गांव के नीम हकीमाेंं की तरह काम करनेवाले सैलेलियर टेलर ने सन 1761 में इसकी तरफ ध्यान आकर्षित किया था. यह आंख की पुतली पर हलके दागों को खुर्च देने में सफल हुआ. इसी से प्रेरित होकर अनेक डॉक्टरों ने परीक्षण शुरू किया. 1835 से 1850 तक पशु कार्निया मानवनेत्रों के परीक्षण हेतु लिए गए. किंतु कोई सफलता नहीं मिली. 1886 में हिप्पल ने हैटरी प्लास्टिक लेमेन ग्राफ्ट ऑपरेशन में सफलता प्राप्त की. इससे हालाकि कार्निया का कुछ हिस्सा ही बदला गया था. किंतु 1906 में जिम एडवर्ड ने फुल थिकनेस हुमैन ग्राफ्ट के रूप में सफलता अर्जित की और यही वह सफलता थी जिनके परिणाम स्वरूप आधुनिक युग में नेत्रदान का जन्म हुआ.
आज विज्ञान जगत नेत्र प्रत्यावर्तन को भले ही टेलर द्बारा पे्ररित माने, लेकिन हमारे पौराणिक ग्रंथ से हजारो- लाखों वर्ष पुरानी चिकित्सा बताते है. रामायण में कई जगह दृष्टिदान का उल्लेख है. इसके अयोध्याकांड के बारहवें सर्ग में नेत्रदान के संदर्भ में स्पष्ट रूप से लिखा गया है-
शैव्य: श्यनेक पोतीये स्वयासंददी
अलकश्रचणुी दत्वा जगाम गतिमुंताम…
अर्थात सूर्यवंशी राजा अलर्क ने अपने दोनों नेत्र किसी अंधे ब्राम्हण को दान देकर सद्गति प्राप्त की . नेत्रदान के विषय में शुभारंभ लगभग शुरू हो गया है. कहने को 1940 में यह पहला नेत्र बैंक खोला गया था और तब से अब तक सैकडों नेत्र-बैंक स्थापित हो चुके है. मगर काम बस इतना ही हुआ कि सूर्य के समक्ष दीया दिखाने के बराबर है. एक सर्वेक्षण के अनुसार यहां 1982 से 2010 तक प्रति वर्ष हजारों के बीच नेत्रदान हुए . देश में प्रति वर्ष लगभग करोडों व्यक्तियों का देहावसान होता है. इसकी तुलना में यह नेत्रदान हमारी उदासीनता का ही परिचायक है? अंधता हमारे लिए एक विकट समस्या है. दुनिया के 4 करोड द़ृष्टिहीनों में से एक करोड अकेले भारत में है. इनमें से चालीस लाख से अधिक दृष्टिहीन बीस वर्ष से कम उम्र के है. जिस पर दुखत स्थिति यह है कि देश में करीब तीस हजार बच्चे प्रति वर्ष दृष्टिहीन हो जाते है. हमारी यह समस्या विकसित देशों की तुलना में दस गुना अधिक है. विकासशील देशों की तुलना में भी हमारी स्थिति अन्य देशों की अपेक्षा दयनीय दशा में है. यहां तक कि पडोंसी देश श्रीलंका तक ने इस संदर्भ में उल्लेखनीय प्रगति की है. उन्होंने केवल संभावित दृष्टिहीनों को दृष्टिवान बनाया है बल्कि वहां से हजारों नेत्र कार्निया का निर्यात भी किया जा चुका है. नेत्रदान वास्तव में जीवनोपरांत किया जाता है. पहले मौत होगी तत्पश्चात चार- छह घंटे के अंदर नेत्रदान किया जाता है. नेत्रदान अन्य दानों से भिन्न है. रोटी, कपडा, भूख, धन, रक्तदान एवं कन्यादान जैसे दान तो आप स्वयं कर लेंगे, लेकिन यह दान स्वयं नहीं किया जा सकता. इस दायित्व को आपका परिवार ही निभाता है. आप तो संकल्प लेंगे और भावना व्यक्त कर देंगे. बाकी का काम आपके परिवार अथवा निकट संबंधी मित्रों को करना होगा. अगर मृतक ने इस बाबत कोई घोषणा भी न की हो, तो भी परिवार के अन्य सदस्य इसे दान कर सकते है, यह विशेष उल्लेखनीय है. कोई मामूली दान नहीं यह एक महान दान है. क्योंकि जब परिवार जैसी मृत्यु से जूझ रहा होगा तब इस प्रकार के विवेकपूर्ण निर्णय को क्रियात्मक रूप देने में कोताही भी हो सकती है और आपका संकल्प व्यर्थ भी जा सकता है.
दुखद घटना
मृत्योपरांत मृतक की आंखों से कॉर्निया(पुतलिया) निकालकर आंखें बराबर बंद कर दी जाती है. आंखे दान देने के लिए आफ सिर्फ नेत्र बैंक या नेत्रदान संस्था तथा सामाजिक कार्यकर्ताओंं को सूचित कर दें, बाकी सारी जिम्मेदारी नेत्र बैंक स्वयं वहन करते है. कुछ लोग नेत्रदान को धर्म विरूध्द बताते हैं. जबकि कोई भी धर्म मानवता के लिए कार्य को गलत नहीं बताता. क्योंकि मानवता मूल्यवान तभी है. जब वह किसी के काम आए. आज आवश्यकता है कि नेत्र बैंक का विकेंद्रीकरण हो. शहर-शहर गांव-गांव और घर- घर तक सामाजिक संगठनों के माध्यम से संपर्क बनाए जाएं. नेत्रदान के समय सूचना देने का काम सामाजिक कार्यकर्ताओं से अधिक तत्परता से और कोई नहीं कर सकता. विविध संगठन भी महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं.
श्रीलंका में जनचेतना फैलाने का काम बौध्द धर्म ने बखूबी निभाया है. क्यों न हमारी धार्मिक संस्थाएं भी इस कार्य में सहयोग करें. ? सकारी तथा गैर सरकारी संस्थाएं नेत्र-बैंकों को उचित साधन सुलभ कराएं. देश के हर छोटे-बडे शहर में नेत्र बैंक हो ताकि दूरदराज गांव के लोग भी इस महादान से वंचित न हो सकें. आईए आज ही हम नेत्रदान का संकल्प लें.
सतोष बी. गुप्ता
आजीवन सदस्य
अमरावती नेत्रदान संस्था,
सक्करसाथ, अमरावती