लेख

नेताजी एक योद्धा

भारत देश की आजादी का दिन नजदीक लाने में जिन सिपाहियों ने कुर्बानी दी उन्हें सलाम!

तकरीबन सन 1914 साल की बात है. बडे शहर में आलीशान मकान था. मकान के सामने ही आने-जाने वाले को सामने के रास्तों से जाते हुए जानेवाली एक अपंग भिखारन. उसी समय 16-17 साल का जवान गडबडी से बाहर निकला. उस भिखारन ने हमेशा की आदत की तरह हाथ फैलाए, उसकी बिगडी हुयी हालत देखकर खयाल में आया. इस औरत के पास रहने के लिए झुग्गी भी नहीं है तथा पहनने के लिए कपडे तथा खाने के लिए अनाज भी नहीं है. फिर मेरा इस आलीशान हवेली में रहने का, अच्छे-अच्छे कपडे पहनने का मुझे क्या अधिकार है. जब एक भारतीय नारी की मुलभूत जरुरत पुरी नहीं कर सकता तो, मेरा शान से जीना बेकार है. यह सोचकर कॉलेज को 3 किमी बस से जाना बंद किया वहीं बचे हुए पैसे उन्होंने भिखारन को देना शुरु किया. उस बडे कलकत्ता के आलीशान शहर में 16-17 साल का युवा और कोई नहीं था, तो यह थे आजाद हिंद सेना के सेनापति सुभाषचंद्र बोस!
जानकीनाथ तथा प्रभावती देवी यह संतशील दाम्पत्य के वे नववें ंआपत्य रहे. सुभाषचंद्रजी ने बचपन से अकेला रहना पसंद किया. उम्र के 16वेंं साल में गुुरु की तलाश में हिमालय की सैर किए लौट आए. गुरु तो उन्हें मिला ही नहीं, लेकिन हिमालय से लौटने के बाद उन्होंने खुद को पढाई में झोक दिया. एक दिन कॉलेज लाइब्रेरी में पढते हुए अचानक कक्ष में से आवाज आई हमारे कक्षा के बच्चों को मार पडी है.

सुभाषचंद्रजी ने पूछा किसने और क्यों?
ओअ‍ॅटन यह इतिहास विषय के प्रोफेसर थे तथा वे शीघ्र ही किसी पर बरसते थे. हमेशा की तरह अपने स्वाभाव से विख्यात थे! बाबू के कक्षा के बाहर के बच्चे आपस में बात कर रहे थे ओअ‍ॅटन कक्षा से बाहर आए और उस लडके को धकेल दिया. इस घटना के विरोध में उन्होंने सफर तय किया जापान, इटली, जर्मनी इस देश के कोठडी में जो हिंदी युद्ध कैदी थे इन्हें इकट्ठा किये, सुभाषबाबु ने आजाद हिंद फौज बनाई, रासबिहारी बोस को इंडीयन नेशनल आर्मी को भी उन्होंने अपने साथ लिया. रंगुन रेडीयो पर भाषण करते हुए नेताजी ने कहा- दिल्ली के लाल किले पर आजादी का जब तक परचम नहीं लहराता, तब तक आजाद हिंद फौज का काम पूरा नहीं होगा, मातृभूमि की आजादी के अलावा हमें कुछ नहीं चाहिए, सुभाषबाबु नि:स्वार्थी थे. सिर्फ हिंदुस्थान की आजादी का ख्वाब लेकर जिने वाले इस आदमी को जापान सरकार ने दि फर्स्ट ऑर्डर ऑफ रायझींग सन (उगवता सूर्याचा पहिला किरण) यह पुरस्कार भी उन्होंने ठुकरा दिया, जब तक आजादी नहीं, तब तक कोई पुरस्कार नहीं, सुभाषजी के ख्याल कम्युनिझम के बारे में अच्छे थे, मास्क तथा लेनीन पढने के बाद सुभाष बाबु के ध्यान में आया वे आजादी के खिलाफ लढाई उनके पीछे नहीं साथ है. यह बात ध्यान में आने के बाद उन्होंने अपने विचार बदल दिये, बंदूक की ताकत पर राज्य चलाने वालो को बंदूक से ही जवाब देना होगा यह निश्चित उन्होंने किया, चंद्रशेखर आजाद ने रेल पटरी पर रखे हुए बम स्फोट से व्हाईसराय आयरवीन जिस डिब्बे में बैठे थे, वह डिब्बा आगे जाने के बाद स्फोट हुआ तथा उनके परिवार के लोग बच गए इस बात पर गांधीजी ने उनका अभिनंदन किया तथा जतीनदास के उपोषण की निंदा करने वाले गांधी की बातें सुभाषजी को अच्छी नहीं लगी. सन 1933 में गांधीजी का कायदाभंग आंदोलन त्रिपुरी अधिवेशन में गांधीजी तथा सुभाषबाबु का वाद विवाद जनता के सामने आया. उसी समय कांग्रेस का सरकारी विरोध कमजोर होता रहा इसका फायदा कुछ फीसदी ब्रिटीश गव्हरमेंट का हुआ होगा. इस सब मुद्दों को टालने के लिए नेताजी ने फारवर्ड ब्लॉक की स्थापना की, उसके बाद भी सुभाषबाबु ने गांधी के सत्याग्रह आंदोलन में साथ दिया.
सबसे पहले राष्ट्रपिता यह नाम संबोधने वाले सुभाषबाबु पहले थे, दोनों की राहें अलग थी लेकिन मंजील एक ही थी, हिंदुस्थान की आजादी नेताजी देश के युवाओं में काफी दिलचस्प रहे सुभाषबाबु के नेतृत्व में हडताल की गई. उन प्रोफेसर महाशय ने ख्ाुद हाकर विद्यार्थी प्रतिनिधियों से बातचीत की, लेकिन कुछ ही दिनों में वातावरण फिर से भडक उठा प्रोफेसर महाशय ने प्रथम साल के हिंदी विद्यार्थी के ऊपर हाथ उठाया. यह सुनकर सुभाषबाबु ने निर्णय लिया अब विधायक मार्ग से नहीं जाएंगे बाद में उन प्रोफेसर महाशय का अच्छा समाचार बच्चों व्दारा लिया गया. यह घटना के पडसाद पुरे बंगाल में घटते हुए नजर आए कलकत्ता में रहने वाले सभी अंग्रेज खौल गये. इस घटना की जांच करने हेतु समिति का गठन किया गया लेकिन उनका रिपोर्ट प्राप्त होन से पहले ही सुभाषबाबु को रस्टीकेट किया गया तथा माफी मांगने को कहा गया लेकिन उन्होंने माफी नहीं मांगी आगे 4 साल की कालावधि में केम्ब्रीज युनिवर्सिटी में बीए की डिग्री प्राप्त की, साथ में आयसीएस राजीनामा तत्काल दिया. भारत देश के परतंत्र कालखंड में सार्वजनिक जीवन बिताने का फैसला लिया, अभ्यासु तथा अध्यात्म में हमेशा लिप्त रहते थे. इसलिए उनका नेतृत्व बाकी लोगों से अलग था. सुभाष बाबु आजादी के लिए लडते रहे, महात्मा गांधी के कहने अनुसार सुभाषबाबु शस्त्रो के वापर लिए लिए बंधन में बंधना नहीं चाहते थे तथा वे आजादी प्राप्त करने के लिए किसी से मदत भी नहीं मांगते थे.
जापान के प्रधानमंत्री को इन्होंने आजाद हिंद सरकार को 2 हजार करोड डॉलर का कर्जा मंंजूर किया. उसी का आभार मानते हुए सुभाष बाबु ने कहा, हिंदुस्थान आजाद हो गया, की हम कर्जा दे देंगे, ऐसे में नैतिकता के धनी थे, भेस बदलकर रहने वाले सुभाषबाबु को समय-समय पर अपमाना का भी मुकाबला करना पडा था तथा ध्यास लिये वे कभी पीछे नहीं हटे, 17 जनवरी 1941 में आधी रात को वह कलकत्ता छोडकर काबुल पहुंचे. काफी तकलिफों का सामना करते हुए कभी पैदल तो कभी खच्चर पर कभी मोटार गाडी तथा आदि साधनों का इस्तेमाल करते हुए वे समरकंद रास्तो से मास्को तथा आगे बर्लिन तक का कामगार मजदूरों को न्याय दिलाना, आर्थिक नियोजन, जमीनदारी का विरोध, गरीबों को जमीन का बटवारा आदि मुद्दों को लेकर फारवर्ड ब्लॉक की भूमिका जात, धर्म, पंथ को छोडकर उन्होंने अपना कुशल संगठन आजाद हिंद सेनापति करके सामने रखा, नेहरु, गांधी और सुभाष बाबु का मेल भारत देा को अच्छा भविष्य प्राप्त करके दे सकता था.
21वीं सदी में आज जो समस्याएं खडी है, कुछ और साल अगर नेताजी रहते थे तो आज जो भारत में समस्याएं खडी है उसकी नौबत नहीं रहती थी, इससे अच्छी हालत में हम खडे नजर आते थे. इतिहास की पुर्नावृत्ती ना हो आज सुभाषबाबु हममें नहीं है, लेकिन उनके आदर्श उनके विचार तथा उन्होंने देश की आजादी के लिए जो कार्य किए उन्हें हमें आगे बढाना होगा तथा स्वराज्य का सुराज्य में बनाना है. इसलिए हमें कटिबद्ध रहना होगा.
अंत में सुभाषबाबु के विचारों से-
हम लाये हैं तुफान से कस्ती निकाल के।
इस देश को रखना मेरे बच्चों संभाल के॥
– नाना रमतकार, कैलाश नगर, अमरावती

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