ओसवाल जैन समाज का हीरा ‘हीरालाल‘ अनंत में विलीन
दो अक्षर की ‘मौत‘ और तीन अक्षर के ‘जीवन‘ में ढाई अक्षर का ‘दोस्त‘ हमेशा बाजी मार लेता है. मंगलवार, १३ अक्टूबर को ऐसा ही कुछ हुआ. मेरे जेष्ठ भ्राता, श्रेष्ठ मार्गदर्शक, मेरे गुरु, मेरे मित्र भाई हीरालालजी मुथा जैन का ८९ वर्ष की उम्र में अवसान हो गया. ५८ वर्षों का साथ बिछड गया. धूल से उठकर माथे का चंदन बने व्यक्ति के जाने से जीवन में एक बडे का शून्य अहसास कर रहा हूं. वे हमारे परिवार के आधारस्तंभ थे. स्वार्थ और भौतिक सुखों से अलाहिदा रहे. नीति नियम के सिद्धतों व आदर्श के साथ परिवार, समाज और व्यवसाय में अपनी एक विशिष्ट पहचान बनाई. आध्यात्मिक भावना कूट-कूटकर भरी थी. खाली समय में जप करते रहते. उन्होंने अपनी समस्याएं संसाधनों नहीं समझ से हल की थी. उन्हें ढेर सारी पुस्तकों, ग्रंथों से मुट्ठीभर व्यावहारिक ज्ञान का आर्थिक महत्व था. उनकी सामाजिक प्रतिष्ठा उनके पद के कारण नहीं बल्कि अपने गुण-विवेक के कारण रही. एक समय था जब परिवार समाज में विशिष्ट स्थान रखते थे. सच्चा इंसान बनने शील-सदाचार का ध्यान रखा. उनका कहना था, अनैतिक मार्ग से उपार्जन के धन के साथ संताप भी घर में आता है.
उनका बर्तन का थोक व्यवसाय रहा. भंगार के बर्तनों में तांबे के तार भरकम लाते हैं. ऐसे व्यक्ति को दुकान की पायरी चढने से रोकते थे. इसी कारण उनके प्रतिष्ठान हीरालाल बाबूलाल जैन के ७० वर्षों के व्यवसाय में कोई पुलिस केस नहीं हुई. हीरालालजी अंतिम श्वास तक अपने जडों और संस्कारों से जुडे रहे. राष्ट्रवादी विचारों और स्वतंत्र निर्णय शक्ति थे. कितना भी हो, भुखा शेर कभी घास नहीं खाता. इसी तरह सहनशक्ति के बाहर हो जाने पर अपना दुख आक्रोश करने में उम्र और स्वास्थ्य बाधा नहीं बनी. परिणाम भले ही शून्य रहा हो. वे कभी लकीर के फकीर नहीं बने. जब तक सक्रिय रहे अपने विवेक बुद्धि से कार्य करते रहे. चित्र नहीं चरित्र की पूजा करने वाले सच्चें श्वेतांबर जैन थे. दान का महत्व त्याग में समझा, तादाद में नहीं. उनकी दूकान से उधारी में माल ले जानेवालों की संख्या अधिक रही, पर कभी कोई केस नहीं की. उनके ईमान पर छोड दिया था. हीरालालजी का परिवार मूलत: कडा जिला नगर का है. विवाह के दहेज में अमरावती आए.
दूध बेचने का व्यवसाय मिला. पानी मिलाने के आग्रह के कारण नौकरी छोड दी. सरोज चौक के एक होटल में वेटर का काम किया. परिवार के विरोध के बाद बर्तन व्यवसाय का काम शुरु किया. जहां मेले लागते वहां बैलगाडी में माल भरकर सप्ताह से महीना तक रहना पडता था. हाथों से रोटी बनाकर खाते. एक समय माल बहुत बच गया. जिनसे लिया था उन्होंने बचा माल वापस लेने से इंकार कर दिया. तब उनके मित्र के आग्रह पर इतवारा बाजार में फुटपाथ पर बैठकर माल बेचा. उनके कार्य से प्रभावित होकर उन्हें दुकान मिली. प्रतिष्ठान का नाम मे. हीरालाल बाबूलाल जैन रखा जो आज कार्यरत है. उन्होंने अपनी और दो बहन तथा ३ भाईयों का ही नहीं उनके बच्चों के बचों के भी विवाह संपन्न करवाये. विवाह संबंध जुडाने और परिवार के वाद-विवाद को सुलझाने में अनेकों की मदद की. उन्होंने खुद बर्तन का कारखाना लगाया जो दो दशकों तक चलता रहा. उनके जीवन का यह समय स्वर्णकाल था. मैं उस समय के विदर्भ में अग्रणी स्टील, पीतल, अॅल्युमिनियम बर्तन बनाने की फैक्टरी में मैनेजर था. समाज बंधुओं से कोई सहयोग नहीं लिया.
तब भाई हीरालालजी के संपर्क में तो धीरे-धीरे कब पारिवारिक सदस्य बन गए पता ही नहीं चला. मेरे यहां बीमारी हो, गृहस्थी का काम हो, विवाह, निधन के अवसरों पर भाई साहब का योगदान से ही समय निकाला. सही मार्गदर्शन करते रहे. मेरे घर में जो कहते उसे मान्य किया जाता तो उनके यहां कोई भी कार्य हो उसमें मेरी सहमति आवश्यक थी. १-२ जो काम उन्होंने बिना बताए किए गए उस कारण वृद्धावस्था में चिंता ही चिंता बनी रही. कोरोना काल में भी हम मिलते रहे, फोन पर बात करते हैं, स्वर्गवास होने के पूर्व संध्या पर उन्होंने याद किया था. स्वास्थ्य ठीक था. पर मैं सोचते रहा और पहुंच नहीं सका. दूसरे रोज प्राप: बेला में खांसी का एक ठसका आया और उसी में उनकी आत्मा छोड गई. अंतिम संस्कार दोपहर २ बजे हिन्दू श्मशान संस्थान में किया गया. अच्छा दोस्त ने मिले तो जिंदगी नरक बन जाती है. वृद्धावस्था में बच्चे भी तज्ञ बनकर अपने मन की करते रहते है. हीरालालजी से सीखा अच्छे मित्र मत ढूंढो, स्वयं अच्छे बनो. जैसे-जैसे लिखता हूं, वह बडा होता जाता है. मेरी भावना की कलम को यहीं विराम देता हूं. भाई श्रद्बेय हीरालालजी की आत्मा को निश्चित ही मोक्ष मिला होगा. उनकी पावन स्मृति को प्रणाम करते हुए हार्दिक श्रद्धांजलि अर्पण करता हूं. – श्यामसुंदर धनराज टावरी, अमरावती