लेख

“राजभाषा सहूलियतकार” – एक पठनीय और संग्रहणीय पुस्तक

लेखक हैं दक्षिण भारतीय तेलुगुभाषी डॉ. वी. वेंकटेश्वर राव

भाषा, खासकर राजभाषा हिंदी जैसे संवेदनशील विषय पर लिखी गई  पुस्तक अपने लेखक से जितनी तथ्यपरकता और प्रामाणिकता की अपेक्षा रखती है, उतनी ही एकाग्रता और अध्ययनशीलता की मांग अपने पाठकों से भी करती है; तभी लेखक के दीर्घ अनुभव की उपयोगिता और अनथक परिश्रम की सार्थकता सिद्ध हो सकेगी, वरना सरसरी निगाह डाल कर फौरी तौर पर कुछ भी कह जाने या लिख जाने से तो पाठक-धर्म के प्रति अन्यमनस्कता और लेखन-कर्म के प्रति उदासीनता ही उजागर होगी।

डॉ. वी.वेंकटेश्वर राव की  पुस्तक “”राजभाषा सहूलियतकार” कुछ हफ्ते पहले ही मुझे मिल गई थी। मैंने पूरे इत्मीनान से निवेश कर दिया अपने समय का एक अहम् हिस्सा और अध्ययन-मनन कर लिया पुस्तक की विषय-वस्तु का । लेखक ने अपना दायित्व पूरी गंभीरता के साथ पूरा किया है, अब बारी है पाठकों की। सरकारी नौकरियों में राजभाषाकर्मी हों या राजभाषा अधिकारी/अनुवादक होने के लिए प्रयासरत अभ्यर्थी अथवा शासन-प्रशासन चलानेवाले कार्यपालक या सामान्य अधिकारी /कर्मचारी, जब भी और जहां कहीं भी उन्हें राजभाषा संबंधी ज्ञान की जरूरत महसूस होगी,  ऐसी पुस्तक की आवश्यकता हर कदम पर महसूस होगी।

मैंने महसूस किया है कि 1980 के दशक में जब हमारी पीढ़ी के नौजवान केंद्रीय कार्यालयों और उपक्रमों आदि में राजभाषा अधिकारी नियुक्त हो कर आए थे , तब राजभाषा संबंधी समग्र पहलुओं की स्पष्ट जानकारी देती हुई ऐसी कोई पुस्तक किसी बाजार में या पुस्तकालय में अथवा सरकारी विभाग में उपलब्ध नहीं थी। फलस्वरूप राजभाषा संबंधी छोटी से छोटी जानकारी के लिए भी हमें कदम-कदम पर दुश्वारियां झेलनी पड़तीं थीं। यदि ऐसी कोई पुस्तक उपलब्ध हुई होती तो हम भी राजभाषा के कार्यान्वयन में सहूलियत के साथ आगे बढ़े होते।

यह पुस्तक राजभाषा की अवधारणा से लेकर हिंदी को स्वतंत्र भारत की राजभाषा बनाने संबंधी संकल्पनाओं, संकल्पों , संवैधानिक प्रावधानों, विधायी विधानों, सरकारी नीति-नियमों, योजनाओं , कार्यक्रमों, शिक्षण-प्रशिक्षण तथा विभागों एवं कार्यालयों में उसे ज़मीनी तौर पर लागू करने के व्यावहारिक तौर-तरीकों और संसाधनों तक की प्रामाणिक जानकारी देती है। इसलिए हर स्तर के जिज्ञासुओं के लिए यह एक आवश्यक संदर्भ-ग्रंथ सिद्ध होगी। हालांकि प्रत्यक्ष रूप में लेखक ने ऐसा कोई दावा नहीं किया है और उसे केवल राजभाषा-कर्म में सहूलियत उपलब्ध कराने का एक उपकरण माना है, फिर भी, पुस्तक में समाहित विषयों की विविधता और तत्संबंधी पुख़्ता जानकारी उसकी विश्वसनीयता को बढ़ाती हैं और पाठक के मन में ऐसी धारणा को पुष्ट कर देतीं हैं। यदि हिंदी भाषा और उर्दू ज़बान तथा संघ की राजभाषा के रूप में हिंदी की विकास-यात्रा पर भी संक्षिप्त जानकारी दे दी गई होती तो वह सोने में सुगंध जैसी होती।

पुस्तक को प्रकाशित किया है राधाकृष्ण प्रकाशन(राजकमल प्रकाशन समूह) दिल्ली ने, और  504 पृष्ठों की इस पुस्तक का मूल्य है  750/- (रूपये सात सौ पचास) मात्र!

-श्रीलाल प्रसाद
पूर्व कार्यपालक
पंजाब नेशनल बैंक एवं लेखक
गाजियाबाद

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