लेख

शेर-ए-सिंध क्रांतिवीर अमर शहीद हेमू कालाणी

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में सिंध का नाम स्वर्ण अक्षरों में लिखा जाएगा. 16 लाख की आबादी वाले इस छोटे से राज्य ने भारत के स्वतंत्रता संग्राम में बहुत बडे-बडे राज्यों से भी अधिक योगदान दिया. महात्मा गांधी के आवाहन पर 9 अगस्त, 1942 को मुंबई में कांग्रेस के अधिवेशन में भारत छोडो आंदोलन का प्रस्ताव सर्वसम्मति से पारित किया गया. भारत छोडो आंदोलन के शंखनाद ने स्वतंत्रता आंदोलन के यज्ञ में घी जैसा काम किया. गांधीजी, जवाहर लाल नेहरु, वल्लभभाई पटेल, जे.बी. कृपलानी एवं हुंदराज दुखायल के संपर्क में हेमू कालाणी के आने के बाद आंदोलन की चिंगारी से सिंध प्रांत भी अछूता नहीं रहा. सिंध प्रांत के सक्खर शहर में इस चिंगारी ने ज्वाला का रुप धारण कर लिया. सन् 1932 में उनके चाचा डॉ. मंधराम कालाणी ने स्वराज सेना गठित कर हेमू को सेनानायक पद पर नियुक्त किया. पिता पेसूमल कालाणी और माता जेठी बाई की कोख से 23 मार्च, 1923 में जन्मे बालक हेमू कालाणी की प्रारंभिक शिक्षा सक्खर में हुई. वह शुरु से मेधावी छात्र था. स्वराज्य सेना के एक गुप्तचर ने खबर लाई कि, स्वतंत्रता सेनानियों को कुचलने के लिए हथियारों, गोला-बारुद से लैस हजारों अंग्रेज सैनिकों से लदी एक विशेष रेलगाडी सिंध के रोहडी, सक्खर से होती हुई बलूचिस्तान प्रांत के गांधी खान अब्दूल गफ्फार के आंदोलन को कुचलने लिए क्वेटा नगर जाएगी. हेमू कालाणी का तो खून ही खौल गया. रेलगाडी को गिराने का जिम्मा देश के छोटे सिपाही हेमू कालाणी को दिया गया. सक्खर रेलवे स्टेशन से कुछ दूर सुनसान स्थान पर रेल की पटरियों के पास अपने दो अन्य साथियों के साथ रुककर कुछेक औजारों की मदद से हेमू फिश प्लेट खोलने लगा. पर शायद होनी कुछ और ही थी. गश्त कर रहे सिपाहियों की नजर उनपर पडी. वे बाज की भांति हेमू पर टूट पडे. दो साथी सिपाहियों की आंख से धूल झोंककर उनके चंगुल से बच निकले. किंतु 18 वर्षीय यह वीर निडरता के साथ हिमालय की भांति सिर उंचा कर अडिग खडा रहा. सिपाही उन्हें गिरफ्तार कर जेल ले गए. फिर शुरु हुआ अंग्रेज शासन की यातनाओं व जुल्मों सितम का दौर. जिसमें हेमू कालाणी को नरक यातनाएं देकर उसके साथियों के बारे में पूछताछ की जाती रही. लेकिन हेमू कालाणी ने मुंह से एक भी शब्द नहीं उगला. आखिरकार अंग्रेज अधिकारी कर्नल रिचर्डसन ने छोटे से क्रांतिवीर से घबराकर उस पर सक्खर की मार्शल कोर्ट में देशद्रोह का मुकदमा दायर कर दिया. कोर्ट में उसे आजन्म कैद की सजा सुनाई. क्रूर अंग्रेज अधिकारी कर्नल रिचर्डसन् जो क्रांतिकारियों का कट्टर दुश्मन था, उसने आजन्म सजा को फांसी की सजा में बदलने का हुक्म लिख दिया. फांसी रोकने हेतु काफी प्रयासों एवं देशव्यापी प्रदर्शन के बावजूद कर्नल रिचर्डसन् अपने जिद्दी स्वभाव के अनुरुप अपने फैसले पर अडिग रहा. अंतत: देश की आजादी रुपी शमा पर एक परवाने की तरह अपने प्राण न्यौछावर कर वह आजादी का दीवाना मात्र 19 वर्ष की उम्र में 21 जनवरी 1943 की सुबह 7.55 बजे फांसी की सूली पर हंसते-हंसते चढ गया.
अमर शहीद हेमू कालाणी की याद में भारत सरकार की तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने 1984 में डाक टिकट जारी की. देश की सडकों का नामकरण, धर्मशालाएं, कालोनियां, स्कूल आदि हेमू कालाणी के नाम पर रखे गए. 21 अगस्त 2003 में सिंधी काउंसिल ऑफ इंडिया के अध्यक्ष सुरेश केसवानी के अथक प्रयास से भारत के संसद भवन में हेमू कालाणी की आदम कद की प्रतिमा का तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवानी, सोनिया गांधी, मनमोहन सिंह खुराना, लोकसभा अध्यक्ष मुरली मनोहर जोशी जैसे वरिष्ठ राजनेताओं की उपस्थिति में स्थापित की गई.
– ओमप्रकाश पुंशी

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