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शिक्षक ही विद्यार्थियों के भविष्य की उत्तम सीढ़ी है

भावी पीढ़ी यह राष्ट्र का भविष्य है तथा उनको मार्गदर्शन करनेवाली पीढ़ी यह उनका आधारस्तंभ है. बालको का पहला गुरू उसकी माता तथा परिवार ही नागरिक जीवन की प्रथम पाठशाला है. परंतु बालको की उम्र जैसे-जैसे बढ़ती जाती है.वैसे-वैसे उसका परिचय बाहरी वातावरण से होता है. सर्वप्रथम बालिकाओं के लिए बाहर की दुनिया यानी उसकी पाठशाला! फिर वह ग्रामीण क्षेत्र की बुनियादी प्रायमरी शाला हो या तहसील स्तर पर जिला परिषद की शाला हो व शहरी संस्कृति की शिक्षा सम्राट के उच्चश्रेणी नागरिको के बच्चों के लिए श्रीमंत शाला हो. अंत में सभी शालाओं में से अथवा महाविद्यालय में से भी सिखाने के अथवा ज्ञानदान के कार्य शिक्षक ही करते है. गिली मिट्टी की गोलिया की तरह बचपन से मन के कोरे कागज पर, घर के बाद संस्कार देनेवाले महत्वपूर्ण घटक है तो वह है शिक्षक.
गुरू को साक्षात परब्रम्ह माननेवाली हमारी संस्कृति है. प्राचीन काल में गुरू आश्रम में रहकर शिक्षा ली जाती थी. समय बदला और धीरे-धीरे सभी बदलने लगा. गुरूवर्य से लेकर पंतोजी, बाद में गुरूजी और आज सर ऐसा कहने में बदलाव हुआ. किंतु कृति ज्ञानदान की ही है. अनेक आक्रमण का सामना करनेवाले भारत देश पर अंगे्रेजों ने डेढ़ सौ वर्षो तक राज्य किया. आज अस्तित्व में नर्सरी, बालकमंदिर यह संकल्पना उन्ही की है. जिसे अपन मांटेसरी कहते है वह बालशिक्षा की शुरूआत है मारिया मांटेसरी इस महिला ने सर्वप्रथम इटली देश के रोम में इ.स.१९०७ में शुरू किए. छोटे बच्चों को नैसर्गिक तरीके से शिक्षा देना, उनमें नैसर्गिक गुणों को बचपन में आकार देना यह बालशिक्षा संकल्पना का उद्देश था. यही तरीका लागू होकर भारत को स्वतंत्रता मिलने के बाद बालक मंदिर की यह संकल्पना शहर की तरह गांव में चलाई गई. जिसके कारण बच्चों को धीरे-धीरे शिक्षा की आदत हुई और आज तक इस मांटेसरी,प्ल्केहाऊस का भव्यस्वरूप अपन देख रहे है.विस्तार से और खर्च से महिला आज मैडम बनीे. हर दो तीन सालों में पाठ्यक्रम में कुछ बदलाव दिखाई देता है. शिक्षको को शाला के समय में पाठ्यक्रम पूरा करना संभव नहीं होता. इसलिए अलग से क्लासेस लगानी पड़ती है. ११ से ५ इस शाला के समय के अतिरिक्त बच्चों का समय क्लास में जाता है. बुध्दिमान बालक को यह सब पसंद नहीं है. शिक्षा के लिए भरपूर होनेवाला खर्च के कारण पालको का पाल्यों के प्रति बढ़ी हुई अपेक्षा, कुछ तनाव निर्माण करनेवाला वातावरण शिक्षा क्षेत्र में निर्माण हुए है. जिसके कारण शिक्षक और विद्यार्थी में समन्वय साधा जाना चाहिए वह नहीं दिखाई देता. ‘मेरे शिक्षकÓ यह विद्यार्थी के लिए अत्यंत अभिमान की बात थी वह आज भी है लेकिन इसके लिए शिक्षक व विद्यार्थी केन्द्रीत होना चाहिए और विद्यार्थी केवल परीक्षार्थी न होकर विद्याग्राहक शिष्य बनना चाहिए. परंतु दुर्भाग्य से यह क्षेत्र में बदलाव दिखाई दे रहा है. शिक्षक ही सच्चे अर्थो में शिक्षक रहते है. ऐसे कहने की नौबत आ गई है. शिक्षक, पालक और विद्यार्थी इनकी स्थिति पहले की तरह नहीं रही. यह भले ही न हो लेकिन मानना पड़ेगा. प्रत्येक व्यक्ति तनाव में ही रहता हैे. विगत ६ माह से कोरोना के संकट के कारण विद्यार्थी विचित्र मानसिक तनाव में अटक गया है. ऑनलाईन तरीके से शाला शुरू होने पर भी विद्यार्थी कहां तक पहुंचेगा यह बता नहीं सकते. शहर के विद्यार्थियों के लिए तो भी ठीक है लेकिन ग्रामीण विद्यार्थियों का क्या होगा? कभी बिजली नहीं तो कभी रेंज नहीं, तो किसी के पास स्मार्टफोन नहीं. इन सभी संकटों का सामना आज का विद्यार्थी कर रहा हैे.
आज तक १९४८ वर्ष में माध्यमिक शिक्षा आयोग, १९५२, कोठारी शिक्षा आयोग,१९६४ राष्ट्रीय शैक्षणिक नीति १९८६ और अंत में सुधारित राष्ट्रीय शिक्षा नीति १९९२ द्वारा शिक्षा का विकास हो रहा है. भारत को स्वतंत्रता मिलने को ७३ वर्ष पूरे हो गये हैे. इन ७३ वर्षो में १९५०से १९७०-८० तक शिक्षा क्षेत्र में विद्यार्थी और शिक्षको में परस्पर एकता थी. परंतु अब ऐसा नहीं हैे. २९ जुलाई को केन्द्र सरकार ने घोषित की गई नई नीति कैसी, उस पर अमल कैसे किया जायेगा? आज करे क्या, कौन सी शिक्षा ले? कौन सी शिक्षा से अपनी उपजीविका चलेगी और ऐसे अनेक विचार से परेशान विद्यार्थी और युवाओं को नई शिक्षा नीति उचित मार्ग दिखायेगी क्या? शिक्षक केवल साक्षर न होकर सच्चे अर्थो में सुशिक्षित होना चाहिए,विचार क्षमता, निर्णय क्षमता, बढ़ाए, केवल नौकरी के लिए शिक्षा यही केवल एकमात्र उद्देश्य है. संस्कारक्षम उम्र में शिक्षा के माध्यम से भावी पीढ़ी इंसान बन सके तभी भारत देश का भविष्य उज्वल होगा. भविष्य बनानेवाली सबसे बड़ी जिम्मेदारी शिक्षको की होती है. विद्यार्थी बड़े होने के बाद शाला, महाविद्यालय, मित्र-सहेलियों में उनका समय अधिक व्यतीत होता है. तब यह वातावरण में कितना निर्मल, पारदर्शक और निरामय रखा जाए इसमें शिक्षको का योगदान बहुत होता है. आज के शिक्षको ने विद्यार्थियों को श्रममूल्य, नीतिमत्ता,उत्तम स्वास्थ्,प्रामणिक वर्तन इसका महत्व बढ़ाने के लिए अपन को कैसा होना चाहिए यह निर्णय ले.विद्यार्थी अनुकरणप्रिय होते है यह ध्यान रखना पड़ेगा.
हम जिसे भगवान कहते है ऐसे राम-कृष्ण ने भी गुरूआश्रम में रहकर विद्या ग्रहण की है. जहां भगवान ने भी गुरूवंदना की. हमें भी मिलकर गुरू वंदना करनी चाहिए. वहीं हमारा आदर्श हैे
आज सर सर्वपल्ली डॉ.राधाकृष्णन की जयंती निमित्त शिक्षक दिन उत्साह से मनाया जाता है. इस निमित्त से तलगाला के जनसामान्य को शिक्षा का महत्व बताने वाले व उनके लिए शिक्षा के दरवाजे खोलनेवाले म. ज्योतिबा फुले,सावित्रीबाई फुले को भूलाया नहीं जा सकता. उनका आदर्श आज के गुरूजनो को रखना चाहिए यही अपेक्षा,दुर्गुण दूर करनेवाले गुरूजन विद्यार्थियों के लिए सरस्वती के मंदिर के भगवान ही होते है. आज के शिक्षक दिन पर ज्ञानदान देनेवाले गुरूजनों के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करना यह प्रत्येक विद्यार्थी का परम कर्तव्य है. मनुष्य जीवनभर विद्यार्थी ही रहता है. जिन्दगी में अनेक लोग मिलते है.प्रत्येक से कुछ न कुछ सीखने को मिलता है. ऐसी सभी सद्विचारी गुरूवंदना
सौ. आशा प्र.फुसे

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