प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्व विद्यालय के साकार संस्थापक पिताश्री ब्रह्मा के नाम से आज जन-जन भिज्ञ हो चुका है. सन 1937 से सन 1969 तक की 33 वर्ष अवधि में तपस्यारत रह वे संपूर्ण ब्रह्मा की उच्चतम स्थिति को प्राप्त कर आज भी विश्व सेवा कर रहे हैं. उनके द्बारा किए गए असाधारण, अद्बितीय कर्तव्य की मिसाल, सृष्टि-चक्र के 5 हजार वर्षो के इतिहास में कहीं भी मिल ही नहीं सकती. अल्पकालिक और आंशिक परिवर्तनों के पुरोधाओं की भीड से हटकर उन्होंने संपूर्ण और सर्वकालिक परिवर्तन का ऐसा बिगुल बजाया जो परवान चढते-चढते सातों महाद्बीपों को अपने आगोश में समा चुका है. वे आज की कलियुगी सृष्टि का आमूल-चूल परिवर्तन कर इसे सतयुगी देवालय बनाने की ईश्वरीय योजनानुसार, परमपिता परमात्मा शिव के भाग्यशाली रथ बने. जैसे हुसैन की शान बहुत थी परंतु जिस घोडे पर वे सवार होते थे, उसकी शान भी कम नहीं थी. इसी प्रकार सर्वशक्तिमान, सर्वज्ञ, सर्वरक्षक परमात्मा शिव की महिमा अपरम्पार है परंतु जिस मानवीय रथ पर सवार हो वे विश्व परिवर्तन का कर्तव्य करते हैं उसकी आभा, प्रतिभा का वर्णन भी कम नहीं है. आखिर दादा लेखराज के जीवन के वे कौन से गुण थे, कौन सी विशेषताएं थी, जो भोलानाथ शिव पर आकर्षित हो गए, उनके तन में सन्निविष्ट हो गए और विश्व परिवर्तन जैसे असम्भव दिखनेवाले कार्य के निमित्त उन्हें बना दिया.
* आइये, पिताश्री के जीवनसागर में अवगाहन कर कुछ गुण-मोती चुन लें
पिताश्री का दैहिक जन्म हैदराबाद (सिन्ध) में 15 दिसबर 1876 को एक साधारण परिवार में हुआ था. उनका शारीरिक नाम दादा लेखराज था. उनके लौकिक पिता निकट के गांव में एक स्कूल के मुख्याध्यापक थे. दादा लेखराज अपनी विशेष बौध्दिक प्रतिभा, व्यापारिक कुशलता, व्यावहाकि शिष्टता, अथम परिश्रम, श्रेष्ठ स्वभाव एवं जवाहरात की अचूक परख के बल पर सफल व प्रसिध्द जवाहरी बने. उनका मुख्य व्यापारिक केंद्र कोलकाता में था.
* भक्ति भावना और नियम के पक्के
जवाहरात के व्यवसाय के कारण पिताश्री का संपर्क उस काल के राज परिवारों से काफी घनिष्ठ हो गया. विपुल धन-सम्पदा और मान प्रतिष्ठा पाकर भी उनके स्वभाव में नम्रता, मधुरता और परोपकार की भावना बनी रही. उन्होंने किसी भी परिस्थिति में किसी भी प्रलोभन के वश अपनी भक्ति-भावना और धार्मिक नियमों को नहीं छोडा. कई बार ऐसा होता था कि कुछ राजाओं तथा धनाढ्य व्यापारियोें का दादा के यहां भोज होता तो भी दादा उन्हें शुध्द शाकाहारी भोजन ही देते थे. कई बार ऐसा भी संयोग होता कि राजा या अन्य विशिष्ट व्यक्ति का दादा के यहां अतिथि के तौर पर गाडी द्बारा ऐसे समय पर आना होता जब दादा के भक्ति-पूजा या गीता पाठ का समय होता, तब दादा उनके स्वागत पर न जाकर अन्य किसी को भेज देते परंतु वे नित्य नियम नहीं तोडते.
* प्रभावशाली व्यक्तित्व और मधुर स्वभाव
दादा प्रभावशाली व्यक्तित्व के मालिक थे. उनके मस्तिष्क उन्नत, शरीर सुडौल, मुखमण्डल कांतियुक्त और होठो पर सदा मुस्कान रहती थी. 90 वर्ष की आयु में भी वे सीधी कमर बैठ सकते थे, दूर तक अच्छी तरह से देख सकते थे, धीमी आवाज भी सुन सकते थे, पहाडों पर चढ सकते थे, बैडमिंटन खेल सकते थे और बिना किसी सहारे के चलते थे. वे प्रतिदिन 18-20 घंटे कार्य करते थे. आलस्य और निराशा ने तो कभी उनका स्पर्श तक नहीं किया. राजकुलोचित व्यवहार, शिष्ट मधुर स्वभाव और उज्जवल चरित्र के कारण उनकी उच्च प्रतिष्ठा थी.
* अलौकिक जीवन का प्रारंभ- दिव्य साक्षात्कारों द्बारा
दादा का व्यापारिक और पारिवारिक जीवन लौकिक दृष्टि से सफल एवं संतुष्ट जीवन था परंतु जब दादा लगभग 60 वर्ष के थे. तब उनका मन भक्ति की ओर अधिक झुक गया. वे अपने व्यापारिक जीवन में अवकाश निकालकर ईश्वरीय मनन- चिंतन में लवलीन तथा अन्तर्मुखी होते गए. अनायास ही एक बार उन्हें विष्णु चतुर्भुज का साक्षात्कार हुआ और उन्होंने अव्यक्त शब्दों में दादा से कहा ‘अहम चतुर्भुज तत त्वम’ अर्थात आप अपने वास्तविक स्वरूप में श्री नारायण हो. कुछ समय के बाद वाराणसी में वे अपने एक मित्र के यहां एक वाटिका में जब ध्यान अवस्था में थे तब उन्हें परमपिता परमात्मा ज्योतिर्लिंगम शिव का साक्षात्कार हुआ और उन्होंने इस कलियुगी सृष्टि का अणु व उदजन बमों तथा गृहयुध्दों और प्राकृतिक आपदाओं द्बारा महाविनाश होते देखा.
* परमपिता परमात्मा शिव का दिव्य प्रवेश
इसके द्बारा कुछ ही दिनों के बाद, एक दिन जब दादा के घर में सत्संग हो रहा था, तब दादा अनायास ही सभा से उठकर अपने कमरे में जा बैठे और एकाग्रचित हो गए. तब उनके जीवन का सबसे महत्वपूर्ण वृतांत हुआ. उनकी धर्मपत्नी व बहू ने देखा कि दादा के नेत्रों में इतनी लाली थी कि जैसे उनके अंदर कोई लालबत्ती जल रही हो. दादा का कमरा भी प्रकाशमय हो गया था. इतने में आवाज उपर से आती हुई मालूम हुई जैसे कि दादा के मुख से दूसरा कोई बोल रहा हो. आवाज के ये शब्द थे-
निजानंद रूपं, शिवोअहम शिवोअहम
ज्ञान स्वरूपं, शिवोअहम शिवोअहम
प्रकाश स्वरूपं, शिवोअहम ।
फिर दादा के नेत्र बंद हो गए. कुछ क्षण के पश्चात जब उनके नयन खुले तो वे कमरे में आश्चर्य से चारों ओर देखने लगे. उनसे जब पूछा गया कि वे क्या देख रहे हैं तो उनके मुखारविंद से ये शब्द निकले वह कौन था ? एक लाइट थी. कोई माइट शक्ति थी. उसके बहुत ही दूर, उपर सितारों की तरह कोई थे और जब वे स्टार नीचे आते थे तो कोई देवी राजकुमार बन जाता था तो कोई दैवी राजकुमारी बन जाती थी. उस लाइट और माइट ने कहा यह ऐसी दुनिया तुम्हे बनानी है. वास्तव में दादा के तन में परमपिता परमात्मा शिव ने ही प्रविष्ट होकर ये महावाक्य उच्चारण किए थे. उन्होने ही दादा को नई सतयुगी दैवी सृष्टि की पुनर्स्थापना के लिए निमित्त बनने का निर्देश दिया था. अब दादा परमात्मा शिव के साकार बने. जयोतिबिन्दु परमात्मा शिव ब्रह्मलोक से आकर दादा के तन में प्रविष्ट होते और उनके मुख द्बारा ज्ञान एवं योग के ऐसे अदभुत रहस्य सुनाकर चले जाते प्राय: लुप्त हो चुके थे.
* परिस्थितियां ही परमपुरूष का आह्वान करती हैं
उन दिनों देश- विदेश में प्राय: लोगों की ऐसी दशा थी कि वे मांस, मदिरा इत्यादी का खूब सेवन करते थे. नारी का तिरस्कार होता था. पुरूष वर्ग नारी को विषय वासना की ही गुडिया मानते थे. वास्तव में संसार भर में लोग काम क्रोधादि विकारों के वशीभूत थे और इसे ही स्वाभाविक जीवन माने हुए थे. दैवी सम्पदा प्राय: मिट चुकी थी और आसुरी सम्पदा का बोलबाला था.
दादा के मुख द्बारा परमपिता शिव ने बताया कि सभी दु:खों एवं समस्याओं का मूल देह-अभिमान एवं छह मनोविकार-काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार और आलस्य है. अत: इन पर विजय पाना जरूरी है. इसलिए हर एक को आहार- विहार, संग इत्यादि को सात्विक बनाने के लिए कहा गया है तथा यह बताया गया कि विश्व एक अभूतपूर्व चारित्रिक संकट के दौर से गुजर रहा है. इसलिए सभी को ब्रह्मचर्य का पालन करना जरूरी है. इसके बिना योगी बनना अथवा अन्य विकारों पर पूर्ण विजय पानी असंभव है. इस शिक्षा से कुछ विकारी लोगों ने सोचा कि इससे भोग के विषय छीने जा रहे है. उनका हदय विदीर्ण हो उठा . उन्होंने हल्ला-गुल्ला किया. दादा के भवन को भी आग लगा दी
मरजीवा जन्म होने पर उनका नाम -प्रजापिता ब्रह्मा
पिताश्री ने विरोध करनेवालों के प्रति भी घृणा नहीं की बल्कि उनके प्रति भी उनकी कल्याण भावना सदा बनी रही. उन्होंने सब प्रकार की कडी आलोचना सही, विरोधियों का सामना किया परतु परमात्मा के आदेश का पालन किया. इस प्रकार, यह नया आध्यात्मिक जीवन प्रारंभ होने पर अथवा मरजीवा जन्म होने पर, परमपिता परमात्मा शिव ने दादा को नाम दिया-प्रजापिता ब्रह्मा उनके मुखारविंद द्बारा ज्ञान सुनकर पवित्र बनने का पुरूषार्थ करनेवाले नर-नारी क्रमश: ब्रह्माकुमार और ब्रह्माकुमारी कहलाए.
* प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्व विद्यालय की स्थापना
पिताश्री श्रेष्ठ पुरूषार्थ करनेवाली कन्याओं एवं माताओं का ही एक ट्रस्ट बनाकर अपनी समूची चल रही एवं अचल संपत्ति उस ट्रस्ट को मानव मात्र की ईश्वरीय सेवा में समर्पित कर दी. इस प्रकार सन 1937 में प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्वविद्यालय की स्थापना हुई. लगभग 14 वर्षो तक ईश्वरीय ज्ञान तथा दिव्य गुणों की धारणा का और योग- स्थित होने का निरंतर अभ्यास करने के बाद अर्थात तपस्या के बाद सन् 1951 में जब यह ईश्वरीय विश्व विद्यालय आबू पर्वत (राजस्थान) पर स्थानांतरित हुआ तब से लेकर अब तक ब्रह्माकुमारियों और ब्रह्माकुमार बहनें-भाई समूचे विश्व की ईश्वरीय सेवा में संलग्न है.
सनृ् 1969 में पिताश्री ने दैहिक कलेवर का परित्याग कर संपूर्णता को प्राप्त किया. उनके अव्यक्त सहयोग से ईश्वरीय सेवाएं पहले की अपेक्षा द्रुत गति से बढी जो आज विश्व भर में 140 देशों में फैल चुकी हैं. सूक्ष्म रूप से आज भी बाबा हर बच्चे को अपने साथ का अनुभव कराते हुए कदम-कदम पर सहयोग, स्नेह और प्रेरणाएं प्रदान कर रहे है. बाबा का जाना ऐसा ही है जैसे कोई अपना कमरा और कपडा बदल लेता है. साकार के स्थान पर सूक्ष्म लोक में उनका वास है और साकार शरीर के स्थान पर आकारी फरिश्ता रूप में वे नित्य ही बच्चों से मिलन मनाते हैं. छत्रछाया इन बच्चों को निरंतर सुरक्षा कवच प्रदान करनेवाले 18 जनवरी को पिता श्री ब्रह्माबाबा का स्मृति दिवस, पूरे देश-विदेश में ब्रह्माकुमारी संस्थाओं में ( विश्वशांति दिवस के रूप में)मनाया जाता है.