संगीत निष्णांत बनने श्रद्धा और आस्था आवश्यक
पं. रघुनंदन पणशीकर का कहना

* अंबादेवी संगीत सेवा समारोह में आना भाग्य की बात
* क्लास आखिर क्लास होता है
अमरावती /दि.22 – संगीत की सामान्य विधा में भी आपको परिश्रम और प्रयासों की आवश्यकता होती है. शास्त्रीय संगीत में इससे भी अधिक प्रामाणिक प्रयत्नों की आवश्यकता रहती है. संगीत निष्णांत बनने श्रद्धा और आस्था मूल रुप से आवश्यक तत्व है. बडी साधना पश्चात संगीत जीवन में उतरता है, तब आनंद आता है, बढता है. यह बात देश के अग्रणी शास्त्रीय संगीत गायक पंडित रघुनंदन प्रभाकर पणशीकर ने कही. शुक्रवार शाम श्री अंबादेवी संगीत सेवा समारोह उपरांत पंडित पणशीकर ने ‘अमरावती मंडल’ के लक्ष्मीकांत खंडेलवाल से बातचीत की. इसी चर्चा दौरान वे बोल रहे थे. उनकी पत्नी अपर्णा पणशीकर भी इस समय उपस्थित थी.
पंडित पणशीकर ने अपने शैशवकाल से लेकर आज की घडी तक अनेक प्रसंगों और किस्सों को उद्धृत कर अपनी संगीत कला यात्रा को संक्षेप में बताने का प्रयत्न किया. अनेकानेक पुरस्कारों, सम्मानों से अलंकृत शास्त्रीय गायक पणशीकर जयपुर-अतरौली घराने के गायक के रुप में विश्वविख्यात है. देश-विदेश में कई समारोहों में शास्त्रीय संगीत की अनूठी छटा बिखेरने वाले पणशीकर गत रात भी अंबादेवी कीर्तन सभागार में संगीत प्रेमियों, विशेषज्ञों और छात्र-छात्राओं को इस कदर प्रभावित कर गए कि, मंच से उतरते ही उनके ऑटोग्रॉफ और फोटोग्रॉफ लेने की होड मची.
* अमरावती आना भाग्य की बात
अमरावती में देवी संस्थान द्वारा सेवा समारोह में बुलाना भाग्य की बात कहते हुए पंडित पणशीकर ने अपनी प्रत्येक प्रस्तुति से पूर्व लघु भूमिका विषद की थी. उन्होंने बेजोड गायन प्रस्तुति पश्चात ‘अमरावती मंडल’ से चर्चा में विशेष रुप से कहा कि, छोटा शहर होने के बावजूद अमरावती में संगीत की महीन समझ रखनेवाले, कद्रदान देखने मिले. इसीलिए उन्होंने निर्धारित समय से अधिक देर तक न केवल प्रस्तुति दी, अपितु उन्हें अपनी गुरु किशोरी जी अमोनकर का चर्चित दैवीय आभास होने का प्रसंग स्मरण हो आया. वे बारंबार अमरावती संगीत सेवा समारोह में आना चाहेंगे, ऐसी बात युवा और किशोर शास्त्रीय संगीत विद्यार्थियों से घिरे पं. पणशीकर ने उत्साह से कही. यहां की आवभगत की भी पंडित जी और उनकी पत्नी अपर्णा जी ने सराहना की.
* 20 वर्षों तक समर्पण
खास उत्तराखंड शैली की गोल टोपी सदैव धारण करनेवाले पंडितजी ने बताया कि, कक्षा तीसरी में रहते उनके पिता प्रभाकर पणशीकर की नाट्य संस्था के माध्यम से उन्होंने एक संगीत नाटक में नारद की भूमिका निभाकर अपने सांगीतिक करिअर का मानों प्रारंभ किया था. उन्होंने पं. वसंतराव कुलकर्णी व कालांतर में किशोरी जी अमोनकर से संगीत की संपूर्ण शिक्षा प्राप्त की. 20 वर्षों तक उन्होंने स्वयं को समर्पित कर दिया था. इसी कारण आज वे विश्वासपूर्वक प्रस्तुति देते है. साथ ही कहते है कि, क्लास आखिर क्लास होता है. विदेशों में भी आपकी क्लास ही आपको मान-सम्मान दिलाती है. अत: युवाओं से पंडित जी ने क्लास अर्थात निष्णांत होने की दिशा में प्रयासरत रहने और प्रत्येक कार्यक्रम, समारोह से कुछ न कुछ सीखने की सलाह दी.
* परंपरा को तकनीक का समन्वय
34 वर्षों से सतत भारतभर के अनेक प्रसिद्ध समारोह में शास्त्रीय गायन पेश कर रहे और अनेक पुरस्कारों व गौरवों से अलंकृत पं. पणशीकर ने कहा कि, आज के दौर में विद्यार्थियों के लिए अधिक साधन उपलब्ध है. किंतु मुख्य बात आपकी राग और आवाज निखरकर आनी चाहिए. इसके लिए आपका संगीत में विश्वास और श्रद्धा, समर्पण होना चाहिए. गायकी प्रधान ताल के साथ परंपरावादी तकनीक सीखना तथा उसका तादात्म्य लाना आवश्यक है. वैचारिक स्टडी, सुरों की पक्की पहचान आवश्यक है. सुर का बिंदु पता होना चाहिए. बंदिशें कर्णमधुर करने के लिए बेशक अभ्यास, कठोर अभ्यास ही उपाय है.
* अद्वितीय शैली विकसित
संगीत के लिए समर्पण भाव के कारण ही पं. पणशीकर अद्वितीय शैली विकसित कर सके हैं. उन्होंने इसके लिए भारत की विदुषी किशोरी अमोनकर का बारंबार नाम लिया. संगीतज्ञ किशोरी जी अमोनकर पंडित पणशीकर की गुरु है. उन्होंने अपार साधना से पंडित पणशीकर को भाव, रस, दैवीय आभास तक निखारा है. यह बात स्वयं पणशीकर ने कृतज्ञतापूर्वक बतलाई.





