क्या वाकई किसी निर्गत जाति प्रमाणपत्र को किया जा सकता है रद्द?
सांसद नवनीत राणा मामले को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने उठाया बडा सवाल
* एक राज्य की जाती को दूसरे राज्य में अनुसूचित करने या नहीं करने पर भी हुआ मंथन
* अब सभी की निगाहे 28 फरवरी को सुप्रीम कोर्ट में होने वाली सुनवाई पर टिकी
नई दिल्ली/दि.23– अमरावती संसदीय क्षेत्र की सांसद नवनीत राणा द्वारा अनुसूचित जाति हेतु आरक्षित अमरावती लोकसभा क्षेत्र से चुनाव लडने के लिए पेश किये गये जाति प्रमाणपत्र की वैधता का मामला इस समय सुप्रीम कोर्ट के समक्ष विचाराधीन है. जहां पर सांसद नवनीत राणा ने अपने जाति प्रमाणपत्र को निरस्त किये जाने के संदर्भ में बॉम्बे हाईकोर्ट द्वारा दिये गये फैसले को चुनौती दी है. ऐसे में सुप्रीम कोर्ट ने बॉम्बे हाईकोर्ट के फैसले की समीक्षा करते हुए सरकार एवं प्रतिवादी पक्ष से जानना चाहा है कि, क्या वाकई जाति प्रमाणपत्र वैधता व पडताल समिति द्वारा जारी किये गये जाति प्रमाणपत्र को रद्द किया जा सकता है और यदि ऐसा किया जा सकता है, तो फिर इसकी प्रक्रिया क्या होनी चाहिए. साथ ही साथ अदालत ने इस तथ्य पर भी रोशनी डालनी चाही कि, क्या किसी एक राज्य ने किसी विशिष्ट जाति से वास्ता रखने वाले व्यक्ति को किसी अन्य राज्य में उस जाति हेतु देय रहने वाले सरकारी योजनाओं व सहूलियतों के लाभ प्राप्त हो सकते है अथवा नहीं. इस समय जहां प्रतिवादी पक्ष की ओर से बॉम्बे हाईकोर्ट के फैसले को आधार बनाते हुए या पूरजोर दलील दी गई कि, सांसद नवनीत राणा द्वारा अपने व्यक्तिगत लाभ के लिए नियमों में हेरफेर करते हुए फर्जी तरीके से जाति प्रमाणपत्र हासिल किया गया था और वे महाराष्ट्र में अनुसूचित रहने वाली ‘मोची’ जाति से वास्ता ही नहीं रखती, बल्कि उनका वास्ता ‘सिख चमार’ जाति से है, जिसे महाराष्ट्र में अनुसूचित जाति का दर्जा ही प्राप्त नहीं है. वहीं याचिकाकर्ता यानि सांसद नवनीत राणा की ओर से पेश हुए एड. ध्रुव मेहता ने युक्तिवाद करते हुए कहा कि, सिख एक धार्मिंग उपसर्ग है और यह कोई जाति नहीं है, बल्कि नवनीत राणा की जाति ‘चमार’ है, जो ‘मोची’ का ही पर्यायवाची है तथा ‘चमार’ और ‘मोची’ दोनों को सन 1950 के संवैधानिक राष्ट्रपति आदेश में सूचिबद्ध किया गया है. अत: सांसद नवनीत राणा सीधे तौर पर महाराष्ट्र में भी अनुसूचित जाति से ही वास्ता रखती है और उनका जाति प्रमाणपत्र पूरी तरह से वैध है. उल्लेखनीय है कि, इससे पहले भी सांसद नवनीत राणा की ओर से पेश हुए वरिष्ठ अधिवक्ता एड. मुकूल रोहतगी ने अपनी दलिल में ‘चमार’ और ‘मोची’ को पर्यायवाची शब्द बताया था. ऐसे में गत रोज दोनों पक्षों के बीच हुए युक्तिवाद के बाद सुप्रीम कोर्ट में जस्टिस एम. के. माहेश्वरी व जस्टिस संजय करोल की बेंच ने इस मामले में आगे की सुनवाई के लिए 28 फरवरी की तारीख तय की है. जिसके चलते उम्मीद जताई जा रही है कि, इस दौरान सुप्रीम कोर्ट की द्विसदस्यीय खंडपीठ द्वारा पूरे मामले का अध्ययन किया जाएगा और संभवत: 28 फरवरी को इस मामले में अंतिम फैसला सुनाया जाएगा. जिसकी वजह से अब सभी की निगाहे 28 फरवरी को सुप्रीम कोर्ट द्वारा सुनाये जाने वाले फैसले की ओर लगी हुई है.
सांसद नवनीत राणा के जाति प्रमाणपत्र की वैधता से जुडे मामले की सुनवाई के दौरान इस संदर्भ में बॉम्बे हाईकोर्ट द्वारा दिये गये फैसले की समीक्षा करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि, अगर किसी जाति विशेष से वास्ता रखने का दावा करने वाले व्यक्ति ने जाति वैधता जांच समिति के सामने अपने दावे को सिद्ध किया है और उसके बाद समिति द्वारा जाति प्रमाणपत्र जारी किया गया है, तो ऐसे प्रमाणपत्र को गलत ठहराकर उसे रद्द करने की प्रक्रिया क्या होनी चाहिए. साथ ही यदि यह प्रमाणपत्र गलत साबित होता है, तो फिर इसका भार और उत्तरदायित्व किस पर होना चाहिए. इसकी जवाबदेही भी जरुर तय की जानी चाहिए. सुप्रीम कोर्ट ने कल गुरुवार 23 फरवरी को अमरावती की सांसद नवनीत कौर राणा की जाति प्रमाणपत्र को रद्द करने के मुद्दे पर अपनी सुनवाई को दोबारा शुरु करने के साथ ही संविधान (अनुसूचित जाति) आदेश 1950 के उद्देश्य और दायरे के पहलूओं पर गौर किया. साथ ही बताया कि, कैसे विभिन्न राज्यों में अनुसूचित जातियों का पदनाम समाज शास्त्रीय आधार पर अलग-अलग था.
जिसके बाद नवनीत राणा की जाति की स्थिति का विरोध करने वाले प्रतिवादियों में से एक की ओर से पेश होते हुए वरिष्ठ अधिवक्ता कपील सिब्बल ने कहा कि, वर्ष 1950 के आदेश का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना था कि, अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति के प्रावधानों का दुरुपयोग करने के लिए कोई फर्जी प्रमाणपत्र जारी न किये जाये. साथ ही उन्होंने इस बात की ओर भी ध्यान केंद्रीत किया कि, कैसे संविधान के अनुच्छेद 341 में राष्ट्रपति को किसी जाति को अनुसूचित जाति के तौर पर अधिसूचित व नामित करने की शक्ति प्रदान की और अनुच्छेद 366 (24) ने अनुसूचित जनजाति की परिभाषा प्रदान की, जो सर्वसमावेशी थी. इसके साथ ही कपील सिब्बल ने तर्क दिया कि, नवनीत राणा रविदासिया जाति से वास्ता रखती है और रविदासिया जाति को पंजाब सूची के तहत अधिसूचित किया गया था, जबकि यह जाति पंजाब सूची के तहत नहीं थी. अत: याचिकाकर्ता यानि नवनीत राणा को महाराष्ट्र में रविदासिया होने के चलते अनुसूचित जाति हेतु देय रहने वाले लाभ हेतु पात्र नहीं माना जा सकता. इसी आधार पर बॉम्बे हाई कोर्ट ने, 2021 में नवनीत राणा के जाति प्रमाण पत्र को यह कहते हुए रद्द कर दिया था कि उन्होंने धोखाधड़ी से ’मोची’ जाति प्रमाण पत्र प्राप्त किया था, जबकि रिकॉर्ड से पता चलता है कि वह ’सिख-चमार’ जाति से थी. इसके कारण अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित सीट से उनका चुनाव अमान्य हो गया.
वरिष्ठ अधिवक्ता श्री कपिल सिब्बल ने जोर देकर कहा कि संविधान में यह सुनिश्चित करने के लिए कि मैं यह कहने के लिए दस्तावेज़ और सबूत पेश न करूँ कि इस जाति का उल्लेख यहाँ किया गया है, हालाँकि मैं इस वर्ग (एक अनुसूचित जाति के भीतर) से हूँ, हालाँकि इसका सीधे तौर पर यहाँ उल्लेख नहीं किया गया है, लेकिन घोषणा करता हूँ कि मैं इस जाति का हिस्सा हूँ. 1950 में राष्ट्रपति का आदेश क्यों घोषित किया गया. यह सुनिश्चित करने के लिए कि ऐसी कोई जांच न हो. क्योंकि राजनीति में क्या होगा कोई नियम नहीं ऐसे दावों की संख्या की जाएगी. विचार यह है कि राजनीतिक क्षेत्र में उन लोगों की घुसपैठ से बचा जाए जो सीधे या विशेष रूप से उस जाति से संबंधित नहीं हैं. सिस्टम में घुसपैठ करने के लिए दावा करें और संसद में लड़ें. एड. कपील सिब्बल के इसी युक्तिवाद पर जस्टिस संजय करोल ने जानना चाहा कि, यदि कोई व्यक्ति किसी ऐसे राज्य में ‘मोची’ है जहां इसे अधिसूचित नहीं किया गया है और यदि वह किसी ऐसे राज्य में चला जाता है, जहां उसे ‘मोची’ होने के लिए अधिसूचित किया गया है, तो क्या वह लाभ प्राप्त करने के लिए योग्य माना जाएगा, अथवा नहीं, तो एड. कपील सिब्बल ने स्पष्ट किया कि, ऐसे व्यक्तियों को ऐसी अधिसूचना के तहत तय की गई अहर्ता दिनांक से पहले संबंधित राज्य में आना आवश्यक है. अत: यह संबंधित व्यक्ति के स्थलांतरण की तारीख पर निर्भर करेगा.
वहीं इस मामले की सुनवाई के दौरान यह तथ्य भी सामने आया कि, याचिकाकर्ता नवनीत राणा के पूर्वज ‘सिख-चमार’ जाति से थे. जिस पर सांसद नवनीत राणा की ओर से पेश हुए वरिष्ठ वकील धु्रव मेहता ने बताया कि, ‘सिख’ एक धार्मिक उपसर्ग है और यह कोई जाति नहीं है. बल्कि सांसद नवनीत राणा की जाति ‘चमार’ या ‘मोची’ है और इन दोनों को वर्ष 1950 के संवैधानिक राष्ट्रपति आदेश में सूचिबद्ध किया गया है. साथ ही जहां तक रविदासिया का सवाल है, तो इसका ‘सिख’ समाज की दशम गुरु परंपरा में शामिल गुरुग्रंथ साहिब में भी उल्लेख है और रविदासिया को ‘मोची’ व ‘चमार’ दोनों के रुप में जाना जाता है. इसके साथ ही एड. धु्रव मेहता ने सांसद नवनीत राणा एवं उनके पिता के शालेय दस्तावेजों का भी हवाला दिया. जिसमें उनकी जाति के तौर पर ‘सिख-चमार’ का उल्लेख किया गया था और इसी आधार पर आगे चलकर जाति वैधता प्रमाणपत्र समिति में नवनीत राणा को अनुसूचित जाति के तहत ‘चमार’ यानि ‘मोची’ जाति का प्रमाणपत्र दिया था. हालाँकि, इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए कि जाति प्रमाण पत्र में निर्दिष्ट क्षेत्र में केवल ’मोची’ का उल्लेख है, न्यायमूर्ति जेके माहेश्वरी ने पूछा, आप सिख हैं, ठीक है? ’सिख चमार’ या ’रविदासिया मोची’ यह शब्द कहां से आया है? क्योंकि प्रमाणपत्र केवल मोची कहता है. जिस पर श्री मेहता ने जवाब दिया कि किरायेदारी के जिस अनुबंध पर याचिकाकर्ता अपने जाति प्रमाण पत्र को सत्यापित करने के लिए भरोसा करती है, उसमें ’सिख चमार’ का उल्लेख है, इसलिए वर्ष 1946 के मूल रजिस्टर (जांच समिति द्वारा स्वीकार किए गए दस्तावेज) के साथ वास्तविक प्रमाण पत्र में भी ’सिख चमार’ का उल्लेख है. बंशावली (वंशावली आदि) और राजस्व रिकॉर्ड में जाति का उल्लेख ’रविदासिया मोची’ के रूप में किया गया है और सत्यापन जांच उसी पर निर्भर करती है.
याचिकाकर्ता ने पीठ का ध्यान आक्षेपित फैसले में निम्नलिखित टिप्पणी की ओर आकर्षित किया और इसे और विच्छेदित किया. उच्च न्यायालय के निर्णय का अनुच्छेद 118 इस प्रकार है, जहां तक प्रतिवादी क्रमांक 3 के दादाजी के दिनांक 28 जुलाई, 1932 के कथित किराया समझौते का संबंध है, जिसमें पता ’22, 2 फोफलवाडी, भुलेश्वर का उल्लेख लेख है, सतर्कता सेल अधिकारी ने कहा कि उक्त उच्च न्यायालय के निर्णय पर दस्तावेज के संबंध में जांच की गई थी. भुलेश्वर क्षेत्र में आयोजित किया गया लेकिन अपर्याप्त पता और भवन का नाम नहीं होने के कारण उस क्षेत्र का कोई भी व्यक्ति उक्त पते की जानकारी नहीं दे सका. उक्त रिपोर्ट में, सतर्कता सेल अधिकारी ने कहा कि स्कूल छोड़ने का प्रमाण पत्र संख्या 11166, जो नगर प्राथमिक विद्यालय, पोइसर, बोरीवली द्वारा प्रतिवादी संख्या 3 के पिता के पक्ष में जाति मोची दर्शाता है, उक्त विद्यालय द्वारा जारी नहीं किया गया था. 28 जुलाई 1932 के किराया समझौते का सत्यापन नहीं किया जा सका क्योंकि नाम और पता अपर्याप्त था. उसी पर भरोसा करते हुए श्री मेहता ने तर्क दिया कि ऐसा लगता है जैसे उच्च न्यायालय मुकदमे को फिर से चला रहा है और सबूतों की फिर से सराहना कर रहा है. आगे तर्क दिया गया कि जांच समिति एक विशेषज्ञ निकाय है, जिसने दस्तावेजों की जांच की है और निष्कर्ष पर पहुंची है. पर्यवेक्षी क्षेत्राधिकार में, तथ्य या कानून में कोई त्रुटि होने पर भी उच्च न्यायालय हस्तक्षेप नहीं कर सकता.
इसके साथ ही याचिकाकर्ता यानि नवनीत राणा की ओर से यह भी बताया गया है कि, उच्च न्यायालय अपने फैसले में इस कारण से आश्वस्त नहीं हो सका कि स्कूल छोड़ने के प्रमाण पत्र में याचिकाकर्ता के पिता की जाति का उल्लेख क्यों किया गया था, जो कि पीठ के अनुसार असामान्य था. उसी का खंडन करते हुए, श्री मेहता ने माधुरी पाटिल और अन्य बनाम अतिरिक्त मामले में शीर्ष न्यायालय के फैसले के पैराग्राफ 10 पर भरोसा किया. आयुक्त, आदिवासी विकास यह दर्शाने के लिए कि संविधान-पूर्व युग में स्कूल प्रमाणपत्रों में जातियों का उल्लेख करना एक आम बात थी. पैराग्राफ 10 के मुताबिक संविधान से पहले स्कूल रजिस्टर में दर्ज प्रविष्टियों किसी जाति की स्थिति की घोषणा के लिए महान संभावित मूल्य प्रस्तुत करती हैं. हिंदू सामाजिक व्यवस्था का पदानुक्रमित जाति स्तरीकरण सार्वजनिक रिकॉर्ड की सभी प्रविष्टियों में परिलक्षित होता है. इसलिए, स्कूल या कॉलेज के रिकॉर्ड सहित लोगों की जाति की स्थिति को क्या दर्शाया जाएगा, जैसा कि तत्कालीन जनगणना नियमों पर जोर दिया गया था. निस्संदेह, हिंदू सामाजिक व्यवस्था पदानुक्रम पर आधारित है और संविधान-पूर्व काल में जाति प्रमुख कारकों में से एक थी. दुर्भाग्य से इसके आक्रमण को खत्म करने के बजाय इसे अनावश्यक रूप से बढ़ाया जा रहा है, बढ़ावा दिया जा रहा है और स्वार्थी उद्देश्यों के लिए स्तरीकरण को वैधता दी जा रही है बजाय इसके कि हतोत्साहित किया जाए और प्रशासनिक और विधायी सहित सभी उपायों से इसे समाप्त कर दिया जाए. जो भी हो, लोगों की पहचान 3 उनकी किसी न किसी जाति से होती है, यह एक वास्तविकता है. इसलिए, इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि जाति संबंधित समय पर सार्वजनिक रिकॉर्ड या स्कूल या कॉलेज प्रवेश रजिस्टर में प्रासंगिक प्रविष्टियों में परिलक्षित होती है और प्रमाण पत्र इसके आधार पर जारी किए जाते हैं. मेहता ने याचिकाकर्ता के ’सिख चमार’ होने पर प्रतिवादियों द्वारा आपत्ति जताने का एक उदाहरण पेश करते हुए बताया कि शिकायतकर्ता (वर्तमान मामले में निजी प्रतिवादी) ने खुद को हिंदू-चमार होने का दावा किया था, जिसे उसने स्वयं एक हिंदू-चमार के रूप में मान्यता दी थी.
इस सुनवाई की शुरुआत में प्रतिवादियों की ओर से पेश हुए शादान हरासत ने कहा कि, पेशे से अभिनेत्री रहने वाली नवनीत कौर ने वर्ष 2011 में सामान्य वर्ग से वास्ता रखने वाले रवि राणा से विवाह किया था और इस विवाह के बाद ही उन्होंने एससी संवर्ग हेतु आरक्षित अमरावती लोकसभा निर्वाचन क्षेत्र से चुनाव लडने के लिए अनुसूचित जाति का प्रमाणपत्र हासिल किया गया था, जो किसी राजनीतिक हथखंडे व धोखाधडी से कम नहीं था. अत: इसे केवल जाति प्रमाणपत्र की बर्खास्तगी का मामला नहीं माना जाना चाहिए, बल्कि यह जुर्माना लगाने और मुकदमा चलाने का भी मामला है. फरासत ने यह भी कहा कि, उच्च न्यायालय ने तीखी टिप्पणी की है कि यह पूरी तरह से धोखाधड़ी के अलावा और कुछ नहीं है और माई लॉर्ड्स हम इसे अच्छा बनाने का प्रयास करेंगे. यह सिर्फ साधारण बर्खास्तगी का मामला नहीं है, बल्कि यह जुर्माना लगाने और मुकदमा चलाने का भी मामला है.
फरासत के मुताबिक उत्तरदाताओं ने तर्क दिया कि ’मोची’ का उल्लेख करने वाले जाति प्रमाण पत्र को ’सिख चमार’ दर्शाने वाले दस्तावेजों द्वारा समर्थित नहीं किया जा सकता है सवाल यह है कि वह यह सत्यापित करने में सक्षम है कि वह एक मोची है, यह तर्क दिया गया कि उनके सभी दस्तावेजों में सिर्फ ’मोची’ का उल्लेख है और ’सिख चमार’ नहीं. यह भी प्रस्तुत किया गया कि सत्यापन के 2 दौर हुए और पहले दौर में कोई सहायक दस्तावेज नहीं दिखाया गया. फरासत ने बताया कि सत्यापन के लिए आवेदन के पहले दौर में, याचिकाकर्ता ने बिना किसी उचित जांच के अपने प्रमाणपत्र की वैधता की मांग की. हालांकि इसे चुनौती दी गई और स्कूटनी कमेटी के दिनांक 25.9.2013 के सत्यापन आदेश को रद्द कर दिया गया. इसके बाद सत्यापन की प्रक्रिया दूसरी बार हुई. बेंच को स्कूटनी कमेटी के 25.9.2013 के आदेश को ऑफ द रिकॉर्ड बताया गया.
न्यायमूर्ति माहेश्वरी ने इसे प्रस्तुत करने के लिए कहा और टिप्पणी की, हम रिकॉर्ड पर यह समझना चाहते हैं कि आदेश में क्या था. पिछले न्यायिक उदाहरणों पर भरोसा करते हुए, फरासत ने तर्क दिया कि यदि एक राज्य के वैध जाति प्रमाण पत्र को दूसरे राज्य में मान्यता नहीं दी जाती है, तो ऐसे दस्तावेज का सवाल ही कहां है जो दूसरे राज्य में जाति प्रमाण पत्र प्राप्त करने का आधार हो सकता है. उन्होंने आगे बताया, उन्होंने पंजाब के दस्तावेजों पर भरोसा किया, लेकिन जाति जांच समिति ने इसे खारिज कर दिया क्योंकि यह अधूरा था, लेकिन फिर भी जाति जांच समिति के पास दस्तावेजों की जांच करने और महाराष्ट्र के लिए प्रमाण पत्र देने का अधिकार नहीं था. फरासत ने आगे बताया कि अनुच्छेद 341 के तहत एक राज्य में अनुसूचित जाति के रूप में अधिसूचित जाति के लिए यह आवश्यक नहीं है कि उसे दूसरे राज्य में भी इसी तरह अधिसूचित किया जाए, क्योंकि ऐसे अनुसूचित पदनाम राज्य के समाजशास्त्रीय ढांचे पर आधारित होते हैं. ऐसा तर्क देते हुए, उन्होंने देश के विभिन्न क्षेत्रों में न्यायसंगत सामाजिक स्थितियों के सार को रेखांकित किया और बताया कि कैसे एक समुदाय को उसी देश के दूसरे क्षेत्र में विशेष सुरक्षा/आरक्षण लाभ की आवश्यकता नहीं हो सकती है.
तमाम युक्तिवादों को सुनने के बाद सुप्रीम कोर्ट ने सरकार एवं प्रतिवादी पक्ष से एक बार फिर पूरा जोर देकर जानना चाहा कि, तमाम जरुरी दस्तावेजों व साक्ष्यों की पडताल के बाद सरकारी समिति द्वारा निर्गत जाति प्रमाणपत्र को रद्द करने की प्रक्रिया क्या हो और यदि सरकारी समिति की ओर से जारी प्रमाणपत्र फर्जी या गलत है, तो फिर इसकी जवाबदेही किस पर तय की जाये. इसके साथ ही अदालत ने इस मामले की सुनवाई के लिए 28 फरवरी की अगली तारीख मुकर्रर की है.
* हाईकोर्ट ने खारिज किया था सांसद नवनीत राणा का जाति प्रमाणपत्र
बता दें कि, नवनीत कौर राणा ने अनुसूचित जाति हेतु आरक्षित अमरावती संसदीय क्षेत्र से वर्ष 2014 में पहली बार लोकसभा का चुनाव लडा था और इस हेतु खुद को अनुसूचित जाति से बताते हुए चुनावी हलफनामे के साथ अनुसूचित जाति प्रमाणपत्र भी जोडा था. जिसे उनके प्रतिद्वंदी एवं शिवसेना प्रत्याशी आनंदराव अडसूल गुट की ओर से अवैध बताते हुए हाईकोर्ट में याचिका दायर की गई थी. उस चुनाव में नवनीत राणा को हार का सामना करना पडा था तथा अदालत में मामला विचाराधीन रहने के दौरान ही नवनीत राणा ने एक बार फिर अनुसूचित जाति प्रमाणपत्र के आधार पर अमरावती संसदीय क्षेत्र से चुनाव लडा और सांसद के रुप में जीत दर्ज की. जिसके बाद उनके जाति प्रमाणपत्र को लेकर एक बार फिर मुंबई व नागपुर हाईकोर्ट में याचिकाए दायर की गई. जिस पर सुनवाई करते हुए हाईकोर्ट ने वर्ष 2021 में सांसद नवनीत राणा के जाति प्रमाणपत्र को लेकर फर्जी करार देते हुए निरस्त कर दिया था. साथ ही सांसद नवनीत राणा को आदेशित किया गया था कि, वे अपना जाति प्रमाणपत्र जाति वैधता जांच समिति के पास जमा कराने के साथ ही जुर्माना भी अदा करें. हाईकोर्ट के इस फैसले को सांसद नवनीत राणा ने सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी थी तथा वर्ष 2021 में ही सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट के फैसले पर स्थगिती दी थी. जिसके बाद से यह मामला लगातार सुप्रीम कोर्ट के समक्ष विचाराधीन चल रहा है तथा गत रोज हुई सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने एक तरह से बॉम्बे हाईकोर्ट के फैसले की समीक्षा करते हुए जानना चाहा कि, आखिर निर्गत जाति प्रमाणपत्र को रद्द करने की प्रक्रिया क्या होनी चाहिए तथा दो अलग-अलग राज्यों में समाजशास्त्रीय आधार पर अलग-अलग पदनाम रखने वाली जाति से वास्ता रखने वाले व्यक्ति के लिए किसी अन्य राज्य में क्या व्यवस्था होनी चाहिए.