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अमरावती/ दि. 15-राजस्थानी समाज के गणगौर उत्सव का शनिवार से प्रारंभ हो गया. जिसमें मां गौरी अर्थात पार्वती की पूजा की जाती है. राजस्थानी समाज में गणगौर का पर्व न केवल धार्मिक दृष्टि से बल्कि सामाजिक और सांस्कृतिक रूप से भी अत्यंत महत्वपूर्ण माना जाता है. यह पर्व स्त्रियों के सौभाग्य, प्रेम और समर्पण का प्रतीक है. विवाहित महिलाएं अपने पति की लंबी उम्र और सुख-समृध्दि के लिए इस व्रत को करती है, जबकि अविवाहित कन्याएं अच्छे वर की प्राप्ति के लिए इस पूजा का अनुष्ठान करती हैं.
गणगौर प्रतिमाओं की स्थापना
लकडी मिट्टी या धातु से बनी गणगौर (गौरी और ईसर) की प्रतिमाएं घरों और मंदिरों में स्थापित की जाती है. श्रृंगार और पूजन- गणगौर माता को सुहाग की वस्तुएं अर्पित की जाती है, जैसे लाल चूडियां, सिंदूर, मेहंदी और बिंदी, कथा वाचन-पूजा के दौरान गणगौर माता की कथा सुनाई जाती है, जिसमें मां पार्वती और भगवान शिव के विवाह की कथा प्रमुख होती है,
गाए जाते लोकगीत- महिलाएं पारंपरिक गणगौर के गीत गाती है और नृत्य करती हैं .
पानी भरना (जल भराई)- पूजा के दौरान नदी, तालाब या कुएं से जल लाने की रस्म निभाई जाती हैं.
श्रध्दा, प्रेम और पारिवारिक समरसता का प्रतीक
गणगौर में श्रध्दा, प्रेम और पारिवारिक समरसता का प्रतीक हैं. यह न केवल धार्मिक अनुष्ठान है, बल्कि सामाजिक एकता और सांस्कृतिक विरासत को भी सहेजनेवाला पर्व है. समय के साथ इस पर्व को मनाने की विधियां भले ही बदल रही हो, लेकिन इसकी आत्मा और महत्व आज भी उतना ही प्रासंगिक है.
राजस्थानी समाज में गणगौर उत्सव बडे हर्षोल्लास से मनाया जाता है. खासकर राजस्थान, महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश और गुजरात में एक बडे मेल- मिलाप के रूप में देखा जाता है. जहां परिवार और रिश्तेदार एकत्र होते हैं. गणगौर के गीत और भजन माहेश्वरी समाज की सांस्कृतिक धरोहर के रूप में संजोए जाते हैं.
गणगौर से जुडी लोककथाएं
गणगौर की पूजा के पीछे एक लोकप्रिय कथा है कि मां पार्वती ने भगवान शिव को पति के रूप में प्राप्त करने के लिए इस व्रत को किया था. उनके समर्पण और प्रेम से प्रसन्न होकर भगवान शिवजी ने उन्हें पति के रूप में स्वीकार किया. इसी कारण यह व्रत महिलाओं के सौभाग्य का प्रतीक माना जाता है.