अमरावतीमहाराष्ट्र

घुमते चक्के पर पल रहा पेट

कब मिलेगा मिट्टी कला बोर्ड योजना का लाभ

धामनगांव रेल्वे/दि.06– गिली मिट्टी से सुराही, मटके, घडे, खुजे, रांजन, गमले, दिए, कवेलु, ईट आदि बना कर अपना संसार की गाडी चलाने वाले विदर्भ के 30 लाख कुंभार बंधुओं को तकनीकी ज्ञान के युग में भी पीछे रहने पर मजबुर होना पड रहा है. राज्य शासन व्दारा स्थापन किए गए मिट्टी कल बोर्ड को पांच वर्ष में एक भी रुपया नहीं दिया गया. जिसके परिणाम स्वरुप उनकी योजना को कार्यान्वित न होने पर इन समाज बंधुओं पर भूखमरी की नौबत आन पडी है.

कुंभार समाज यहा बारा बलुतेदार में से एक है. इसके पूर्व संत गोरा कुंभार की परंपरा वे कहते है. जबकि वंश परंपरागत रहने से उनके कुंभार कला को आधुनिक तकनिकी ज्ञान व चिनी वस्तु के कारण नीचे गीर गई है. जिसके कारण आज की स्थिती में उनको परिवार के उदर निर्वाह का सवाल उठ खडा है.

विदर्भ के अमरावती, यवतमाल, वर्धा, अकोला, गोंदिया इन जिलों के कुंभार समाज बडी संख्या में है. उनके व्दारा सहेजी गई वंश परंपरागत व्यवसाय गांव-गांव में देखने को मिलती है. मगर उनके मिट्टी से तैयार किए गए बर्तनों को कोई भी जिले में स्थायी बाजारपेठ उपलब्ध न होने के कारण गांव खेडे में घुमकर ये मिट्टी के बर्तन बेचना पडता है. बढती महंगाई व आकाल के कारण वे परिवार का उदर निर्वाह कैसे करें, यही सवाल मन में उठने की बात वर्धा नदी के किनारे रहने वाले ओमेश वझे बताते है.

दो समय
लगातार तीन महिने में तैयार किए गए मिट्टी के बर्तन लेकर बाजार से बिक्री के लिए जाने के बाद ग्राहक भी कम किम में मांग करते है. एक ओर मिट्टी से लेकर ईंधन सभी खरीदकर लाना पडता है. धंधे के लिए लगने वाले खर्च व इससे मिलने वाले उत्तपन्न बहुत कम होने के कारण दो जून की रोटी के भी वांदे हो रहे है. ऐसी व्यथा कुंभारों ने सुनाई.

मिट्टी के बर्तनों की जगह ली प्लास्टिक ने
30 वर्ष पूर्व मिट्टी के बर्तन की बडी मांग थी. घर-घर में खाना बनाने के लिए, पानी गरम करने के लिए, पीने के पानी के लिए, नहाने के लिए, मिट्टी से बने बर्तन का इस्तेमाल होता था. मगर आज के इस युग में मिट्टी के बर्तनों की बजाय स्टील व प्लास्टिक के बर्तनों ने जगह ले ली है.

मिट्टी कला बोर्ड सिर्फ नाम का
राज्य शासन व्दारा कुंभार बंधुओं की उन्नती के लिए राज्य में मिट्टी कला बोर्ड की स्थापना की गई है. खादी ग्रामद्योग अंतर्गत दस करोड का अनुदान व मिट्टी से बने दिए, गंगाल, घागर ऐसे अलग-अलग वस्तू को बनाकर प्रदर्शन व बिक्री के लिए देने की घोषणा की गई थी. मगर अभी तक एक रुपए की भी निधी नहीं दी गई है.

विदर्भ में 30 लाख कुंभार समाज है. यह समाज ओबीसी प्रवर्ग में आता है. फिर भी खुद की पढाई विद्यार्थियों को खुद ही करना पडता है. किसी भीतरह की सुविधा का लाभ समाज के विद्यार्थियों को नहीं मिलता है. सरकार समाज के विकास के संदर्भ में योजना चलाती है. मगर वह सिर्फ कागजों पर ही है. अब भी सकारात्मक दृष्टी कोण से कुंभार समाज के लिए योजना चलाई जानी चाहिए.
डॉ. श्रीराम कोल्हे, अध्यक्ष संत गोरोबाकाका समाज संस्था

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