महाराष्ट्र

‘रघु-बशीर’ के घर से गूंजती है एकता की आवाज

ईद की पवित्रता और अक्षयतृतीया का सतयुग रहते हैं साथ-साथ

जलगांव/दि.3- इस समय मस्जिदों पर लाउडस्पिकर के जरिये होनेवाली अजान को लेकर राजनीतिक वातावरण तपा हुआ है और दो अलग-अलग समुदायों में लगभग खिन्नता पैदा कर दी गई है. जिसके लिए राज्य के एक प्रमुख राजनीतिक दल द्वारा राज्य सरकार को दिया गया अल्टीमेटम जिम्मेदार है. किंतु इन सबसे परे समाज में कुछ उदाहरण ऐसे भी है, जो आज भी धार्मिक व सामाजिक एकता के लिहाज से मिसाल कहे जा सकते है. ऐसी ही एक मिसाल जलगांव की ‘रघु-बशीर’ की जोडी को कहा जा सकता है. जिनके साथ-साथ लगे निवासस्थान से सद्भाव व सौहार्द के स्वर उठते है. जहां पर दीवार के एक ओर रघुनाथ श्यामराव चौधरी व दूसरी ओर बशीर यासीन शाह के परिवार रहते है और बचपन से साथ-साथ रहनेवाले रघुनाथ चौधरी व बशीर शाह की दास्तान को अपने आप में प्रेरक माना जाता है.
‘रघु-बशीर’ के जीवन में बचपन नाम का प्यारा सा शब्द कभी आया ही नहीं. घर में दो जून की रोटी की मुश्किल थी और उनके लिये हर दिन सुबह दो वक्त के भोजन के जुगाड करने का अल्टीमेटम हुआ करता था. अपने खेलने के लिए भी कहीं से ‘भोंगा’ निकालकर या भोंगे के लिए दंगा करके कोई फायदा नहीं होनेवाला था. ऐसे ही हालात में बेहद कम उम्र के समय रघुनाथ चौधरी व बशीर शाह की एक-दूसरे से मुलाकात हुई और दोनों ने साथ मिलकर ‘रोजी’ पर रहते समय ‘रोटी’ के लिए अपने हाथ आगे बढाये. दोनों की बचपन से ही अच्छी-खासी दोस्ती हो गई और दोनों ने साथ मिलकर काम करना शुरू किया. अपनी दोस्ती की इमारत को बुलंद करने के साथ ही ‘रघु-बशीर’ की जोडी भवन निर्माण के क्षेत्र में भी प्रख्यात होने लगी और शून्य से अपने विश्व का निर्माण करनेवाले इन दोनों ने वर्ष 1980 के दौरान जलगांव के कासमवाडी परिसर में अपने लिए घर बनाते हुए अपने सपनों का ताजमहल साकार किया. जहां पर दीवार के एक ओर रघुनाथ चौधरी का परिवार रहता है और दीवार के दुसरी ओर बशीर शाह के परिवार का निवास है. लेकिन दोनों परिवारों के बीच आपसी संबंधों को लेकर कोई दीवार नहीं है. ऐसे में शायद दोनों घरों के बीच रहनेवाली दीवार को भी अपना अस्तित्व निरर्थक महसूस होता हो.
सबसे उल्लेखनीय यह भी है कि, जब रघुनाथ चौधरी पूजा करने के लिए बैठते थे, तो साथ बैठने में बशीरभाई को कोई समस्या नहीं हुई और बशीरभाई के साथ रोजा रखने में रघुनाथ चौधरी के आडे धर्म व पोथी-पुराण कभी नहीं आया. वहीं दोनों घरों के लिए किराणा और साग-सब्जी भी एक ही समय आया करते थे. साथ ही दोनों परिवार ‘सांझा-चूल्हा’ जलाकर दीपावली का फराल भी बनाते थे और ईद का शीरखुरमा भी. ऐसे में रघुनाथ चौधरी व बशीर शाह की दोस्ती और सौहार्दपूर्ण संबंधों को मौजूदा दौर में वाकई एक मिसाल कहा जा सकता है.

* दोनों के परिवार संभाल रहे सांझी विरासत
वर्ष 1997 में हुए एक हादसे के चलते रघुनाथ चौधरी का निधन हो गया और बशीरभाई अकेले रह गये. जिसके बाद बशीरभाई अक्सर कहा करते थे कि, ‘रघुनाना बहुत जल्दी रूखसत कर गये, उनको अभी होना चाहिए था.’ वहीं वर्ष 2010 में बशीरभाई भी रूखसत हो गये, लेकिन आज उन दोनों के बच्चे अपने बुुजुर्गों की सांझी विरासत को आगे संभाल रहे है और दोनोें के बच्चों ने अपनी मेहनत के दम पर अच्छा नाम भी कमाया है.

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