जो इतिहास नहीं गढ़ पाते हैं, वही इतिहास मिटाते हैं
पोस्टर से नेहरू का नाम हटाने पर मोदी सरकार पर बरसे संजय राउत
मुंबई/दि. 5- राहुल गांधी, प्रियंका गांधी, सोनिया गांधी से मोदी सरकार और बीजेपी की लड़ाई समझ में आती है. लेकिन पंडित नेहरू से बैर क्यों? शिवसेना सांसद संजय राउत ने आज के ‘सामना’ में छपे अपने आर्टिकल ‘रोखठोक’ में यह सवाल उठाया है. भारत की आज़ादी का 75 वां यानी अमृत महोत्सव वर्ष शुरू है. भारत के इतिहास पर रिसर्च करने वाली संस्था ‘इंडियन काउंसिल ऑफ हिस्टोरिकल रिसर्च’ ने ‘आजादी का अमृत महोत्सव’ से संबंधित पोस्टर से जवाहरलाल नेहरू की तस्वीर हटा दी. इस पर संजय राउत ने कटाक्ष किया है. संजय राउत ने लिखा है, “नेहरू द्वारा अर्जित की गई राष्ट्रीय संपत्तियों को बेचकर (पब्लिक सेक्टर अंडरटेकिंग्स का विनिवेश) ही वर्तमान सरकार अर्थचक्र को गति दे रही है. स्वतंत्रता संग्राम में नेहरू का स्थान पक्का है. इतिहास को मिटाना बहादुरी नहीं है!” संजय राउत ने लिखा है, “आजादी का अमृत महोत्सव के पोस्टर से पंडित नेहरू की तस्वीर हटा दी है. इस पोस्टर पर महात्मा गांधी, सुभाष चंद्र बोस, भगत सिंह, डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर, सरदार वल्लभभाई पटेल, राजेंद्र प्रसाद, पं. मदन मोहन मालवीय और स्वतंत्रता सेनानी वीर विनायक दामोदर सावरकर की तस्वीरें प्रमुख हैं, लेकिन पंडित जवाहरलाल नेहरू और मौलाना अबुल कलाम आजाद को छोड़ दिया गया. नेहरू-आजाद को निकालकर स्वतंत्रता संग्राम का इतिहास पूरा नहीं हो सकता, लेकिन विशेष रूप से नेहरू को निकालकर वर्तमान सरकार ने अपने संकीर्ण मन का परिचय दिया है. जिनका इतिहास गढ़ने में कोई योगदान नहीं था और जो आजादी की लड़ाई से दूर थे, ऐसे लोगों द्वारा स्वतंत्रता संग्राम के एक नायक पंडित नेहरू को स्वतंत्रता संग्राम से हटाया जा रहा है. यह उचित नहीं है.”आगे अपने लेख में संजय राउत ने लिखा है, ” पंडित नेहरू और उनकी कांग्रेस पार्टी को लेकर मतभेद हो सकते हैं. नेहरू की राष्ट्रीय, राजनीतिक, अंतर्राष्ट्रीय नीति कदाचित किसी को स्वीकार नहीं होगी, लेकिन देश के स्वतंत्रता संग्राम में नेहरू के योगदान को राजनीतिक पूर्वाग्रह के कारण मिटा देना स्वतंत्रता संग्राम के प्रत्येक सैनिक का अपमान है.” इसके बाद शिवसेना के मुखपत्र सामना में छपे अपने आर्टिकल में संजय राउत ने इतिहास बोध बताते हुए नेहरू का चित्र हटाने के मकसद पर सवाल किया है, ” इतिहास मतलब मानव प्रगति और दोषों का अभिलेख होता है. इतिहास उस-उस कालखंड के लोगों की सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक, राजनीतिक और आर्थिक सोच, आशा-आकांक्षाओं, घटनाओं और स्थितियों का प्रतिबिंब है. घटनाओं, क्रिया-कलापों, विचारप्रवाहों की एक तरह की व्याख्या होता है. संक्षेप में, इतिहास मानव समाज का एक अभिन्न, अटूट और अविभाज्य तस्वीर ही होता है. पंडित नेहरू को निकालकर किसी को क्या हासिल करना है? ” इसी बात को आगे बढ़ाते हुए वे कहते हैं, “मौजूदा मोदी सरकार का सोनिया गांधी, राहुल गांधी और प्रियंका गांधी के साथ राजनीतिक विवाद होने में कोई हर्ज नहीं है. सरकार ने अपना द्वेष राजीव गांधी के नाम पर दिए जानेवाले ‘खेल रत्न’ पुरस्कार का नाम बदलकर भी जगजाहिर कर दिया. लेकिन स्वतंत्रता संग्राम और देश के निर्माण में पंडित नेहरू और इंदिरा गांधी का योगदान एक अमर इतिहास है. इसे नष्ट करने से क्या हासिल होगा? ” ‘आजादी का अमृत महोत्सव’ के पोस्टर में महात्मा गांधी की तस्वीर है, उनके अनुयायी राजेंद्र प्रसाद और सरदार पटेल की तस्वीर है लेकिन नेहरू को पोस्टर से हटा दिया गया है. इस पर कटाक्ष करते हुए संजय राउत ने लिखा है, ” नेहरू, गांधी के मृदु अनुयायी थे. कांग्रेस के नेतृत्व में हिंदुस्थान की स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए हुए महासंग्राम में अंतिम प्रमुख नेता के रूप में नेहरू को ही मान्यता देनी होगी.” यहां हालांकि संजय राउत ने इतिहास के अपने कच्चे ज्ञान का परिचय दिया है. दरअसल नेहरू गांधी के मृदु अनुयायी तो बिलकुल भी नहीं थे. इतिहास के जानकारों को यह पता है. नेहरू गांधी के शिष्य भी थे और कांग्रेस के भीतर सबसे बड़े आलोचक भी. यह अलग बात है कि वे गांधी के निर्णय की आलोचना उनके मुंह पर किया करते थे, लेकिन उनके निर्णय के ख़िलाफ़ कभी नहीं गए. जबकि सुभाष चंद्र बोस ने अपनी अलग राह चुन ली और कांग्रेस छोड़ दिया. बल्कि गांधी की हां में हां मिलाने वाले या मृदु अनुयायी या कट्टर समर्थक राजेंद्र प्रसाद और सरदार पटेल थे. ये दोनों कट्टर गांधीवादी थे. जबकि नेहरू-सुभाष कांग्रेस में समाजवादी विचारधारा और रूसी क्रांति से बेहद प्रभावित नेताओं में थे. आगे संजय राउत लिखते हैं, ” हिंदुस्तान के स्वतंत्रता संग्राम में नेहरू ने जो क्रांतिकारी भूमिका निभाई, उस इतिहास को कभी भुलाया नहीं जा सकता है. उनकी लोकप्रियता अपार थी. रईस अमरोही नामक उर्दू के शायर ने कहा है-
हमने नेहरू की शक्ल-ओ-सूरत में हिंद का एक मिसलिया देखा
लब-ओ-आरिज़ पे मौज-ए-गंग-ओ-जमन तेवारों में हिमालया देखा
(नेहरू के चेहरे में हमने हिंदुस्तान की मूर्ति देखी. उनके होंठों और गालों में हमें गंगा-यमुना की लहरों का आभास हुआ और उनके माथे पर हमें हिमालय नज़र आया.) ”
आखिर में नफ़रत की सियासत पर फ़िक्र, तमिलनाडु के सीएम का ज़िक्र
जिस तरह की देश में ‘मतभेद’ के बदले ‘मन में द्वेष’ की सियासत चल पड़ी है, उसे देखते हुए संजय राउत आखिर में तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम.के.स्टालिन का ज़िक्र करना नहीं भूलते. वे लिखते हैं, “अपने राजनीतिक विरोधियों के साथ प्यार, दया और सम्मान पूर्ण व्यवहार करने के मामले में एम.के. स्टालिन ने एक आदर्श स्थापित किया है. सरकार तमिलनाडू में 65 लाख छात्रों को मुफ्त ‘स्कूल बैग’ वितरित करती है. उन बैगों पर पूर्व मुख्यमंत्री जयललिता और ई. पलानीस्वामी की तस्वीरें छपी थीं. इस बीच सरकार बदल गई और स्टालिन मुख्यमंत्री बन गए. पहले के मुख्यमंत्रियों की तस्वीरोंवाले उन लाखों बैगों का क्या किया जाए? ऐसा सवाल अधिकारियों के समक्ष खड़ा हो गया. तत्कालीन मुख्यमंत्री स्टालिन ने तब स्पष्ट आदेश जारी किया, ‘इन तस्वीरों के कारण बैगों को न बदलें. उन्हें वितरित करें.’ जयललिता की ‘तस्वीरों’ के कारण बैग बदले जाते तो सरकारी खजाने पर करीब 15 करोड़ रुपए का बोझ बढ़ जाता. इस 15 करोड़ का इस्तेमाल तमिलनाडु में कोविड के खिलाफ लड़ाई में किया जा सकता है. ” आगे संजय राउत यह याद दिलाना नहीं भूलते कि जयललिता ने आधी रात के समय पुलिस भेजकर स्टालिन के पिता एम. करुणानिधि को घर से घसीटते हुए बाहर निकलवाया और गिरफ्तार करवाया था. स्टालिन इन सभी द्वेषों को भुलाकर राज्य का काम कर रहे हैं. आखिर में एक बार फिर वे दोहराते हैं कि ‘पंडित नेहरू से नफरत क्यों करते हो? इसका जवाब देश को देना होगा.’