‘वन टाइम सेटलमेंट’ यह कर्जधारक का अधिकार नही

नागपुर हाईकोर्ट ने इंडियन बैंक को दी बडी राहत

* 62 करोड का कर्ज डूबानेवाली कंपनी को झटका
नागपुर /दि.25- मुंबई हाईकोर्ट की नागपुर खंडपीठ ने अपने एक महत्वपूर्ण निर्णय में यह स्पष्ट किया है कि कोई भी कर्जदार या गारंटर वन टाइम सेटलमेंट (ओटीएस) योजना का लाभ अधिकार के रूप में नहीं मांग सकता है. न्यायालय ने यह भी स्पष्ट किया कि ओटीएस योजना के लाभ को स्वीकार करने या अस्वीकार करने का निर्णय बैंक के वाणिज्यिक विवेक पर आधारित होना चाहिए. न्या. अनिल किलोर और न्या. रजनीश व्यास ने महत्वपूर्ण फैसला देते हुए दायर रिट याचिका को खारिज कर दिया.
याचिकाकर्ता ने अदालत से भारतीय रिजर्व बैंक को खाते की जांच/लेखा परीक्षा के लिए एक स्वतंत्र वरिष्ठ अधिकारी नियुक्त करने का निर्देश देने और बैंक को उनके ओटीएस प्रस्ताव को स्वीकार करने के लिए बाध्य करने की मांग की थी. याचिका के अनुसार इंडियन बैंक (पूर्ववर्ती इलाहाबाद बैंक) ने मुख्य कर्जदार को ठेकेदार के व्यवसाय के लिए 8 मार्च 2011 को 62 करोड़ रुपये का सावधि कर्ज दिया था. प्रतिवादी संख्या 5 ने गारंटी एग्रीमेंट निष्पादित किया और कर्ज को सुरक्षित करने के लिए बंधक दस्तावेज़ भी निष्पादित किए. मुख्य कर्जदार द्वारा कर्ज चुकाने में चूक करने के कारण, इस क्रेडिट सुविधा को 31 मार्च 2017 को गैर-निष्पादित परिसंपत्ति (एनपीए) के रूप में वर्गीकृत किया गया. इसके परिणामस्वरूप बैंक ने ड-ठऋ-एडख अधिनियम, 2002 और दिवाला और दिवालियापन संहिता, 2016 की धारा 7 के तहत कार्रवाई शुरू की. याचिकाकर्ता ने यह दावा भी किया था कि बैंक एक निजी साहूकार की तरह काम कर रहा है और उसने ओटीएस के कई प्रस्तावों को यह कहते हुए अस्वीकार कर दिया कि वे ‘मानदंड’ को पूरा नहीं करते हैं. याचिकाकर्ता ने यह तर्क दिया कि बैंक ने यह मानदंड कभी भी उजागर नहीं किया.
याचिकाकर्ता की ओर से किए गए दावों के जवाब में बैंक ने तर्क दिया कि कर्ज समझौता एक एग्रीमेंट है और बैंक को ओटीएस प्रस्ताव के अनुसार राशि निपटाने के लिए कहने का अर्थ होगा अनुबंध के नियमों और शर्तों को फिर से लिखना. बैंक ने जोर दिया कि वह सार्वजनिक धन से संबंधित है. ऐसे में दोनों पक्षों की दलीलों के बाद कोर्ट ने फैसले में कहा कि सिर्फ इसलिए कि कर्जदार ने ओटीएस का प्रस्ताव प्रस्तुत किया और बैंक ने इसे मानदंड पूरा न करने के कारण खारिज कर दिया, यह कर्जदार के पक्ष में किसी अधिकार का आभास पैदा नहीं करता है. यह तर्क कि बैंक ने मानदंड का खुलासा नहीं किया, मान्य नहीं है, क्योंकि कोर्ट को ऐसा कुछ भी नहीं दिखाया गया जिससे यह साबित हो कि मानदंड का खुलासा करना किसी प्रावधान के तहत अनिवार्य था. इसलिए, यह नहीं कहा जा सकता कि बैंक ने मनमाने ढंग से कार्य किया है. सर्वोच्च न्यायालय के फैसलों का हवाला देते हुए, हाई कोर्ट ने दोहराया कि अनुच्छेद 226 के तहत परमादेश जारी करके बैंक को ओटीएस का लाभ देने का निर्देश देना न्यायहित में नहीं होगा.
इस मामले में याचिकाकर्ता कंपनी की ओर से वरिष्ठ विधिज्ञ सी. एस. सप्तान व एच. एन. वर्मा तथा इंडियन बैंक की ओर से एड. एन. आर. साबू द्वारा पैरवी की गई.

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