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कार्तिक प्रतिपदा को भगवान आते हैं कौंडण्यपुर

वारकरियों की धारणा

* विठ्ठल-रुक्मिणी संस्थान में महापूजा
कुर्‍हा /दि.23– कार्तिक प्रतिपदा को स्वयं भगवान पांडुरंग श्री क्षेत्र कौंडण्यपुर में आने की वारकरियों की प्रबल धारणा है. इसी दिन संत सद्गुरु सदाराम महाराज ने 450 वर्ष पहले लिखकर रखा है कि, पांडुरंग डेढ दिन के लिए माता रुक्मिणी के पीहर में आते हैं. भाविकों की धारणा सुदृढ है. इसलिए कार्तिक माह में कौंडण्यपुर के वर्धा नदी के तट पर विदर्भ की पंढरी भाविकों और वारकरियों से भर जाती है. कौंडण्यपुर विदर्भ के राजा भीष्मक की राजधानी है. माता रुक्मिणी उनकी सुपुत्री है. भगवान पांडुरंग का यह ससुराल है.
कार्तिक मास समारोह की 450 वर्षों की परंपरा है. श्री विठ्ठल-रुक्मिणी संस्थान ने इस बार भी कार्तिक उत्सव का यहां आयोजन किया था. 9 नवंबर को तीर्थस्थापना के साथ उत्सव का शुभारंभ हुआ. 12 दिन चलनेवाले उत्सव में दैनंदिन कार्यक्रम काकड आरती, महापूजा, सामूहिक प्रार्थना और संध्या समय में हरिपाठ ऐसे धार्मिक आयोजन किए गए थे.
कार्तिक प्रतिपदा गत 16 नवंबर को महापूजा, काला के कीर्तन, महाप्रसाद और दोपहर 4 बजे गोपालपुर में दहीहांडी उत्सव हुआ. कार्यक्रम हेतु मुंबई जयेश महाराज भाग्यवंत के कीर्तन संत अच्युत महाराज के शिष्य सचिनदेव महाराज, देवनाथ मठ के पीठाधीश जीतेंद्रनाथ महाराज और जगद्गुरु माऊली सरकार राज राजेश्वराचार्य का उद्बोधन हुआ. सैकडों वारकरियों की उपस्थिति में भक्तिपूर्ण वातावरण में उत्सव संपन्न हुआ. गुरुवार 21 नवंबर को कार्तिक मास उत्सव का समापन हुआ.
इस समय सचिव सदानंद साधू ने पत्नी के साथ संत सद्गुरु सदाराम महाराज समाधी का अभिषेक और पूजन किया. इस समय अध्यक्ष नामदेव अमालकर, विश्वस्त अशोक पवार उपस्थित थे. उपाध्यक्ष वसंत डाहे, विश्वस्त हिम्मत टाकोने, सुरेश चव्हाण, अतुल ठाकरे, प्रबंधक प्रशांत गावंडे और संस्थान के कर्मचारी उपस्थित थे.
* अधिकांश उत्सव, व्रतों के कारण चातुर्मास को महत्व
आषाढी एकादशी से कार्तिक इन चार माह की अवधि को चातुर्मास कहा जाता है. इसी अवधि में अधिकांश उत्सव, त्यौहार, व्रत मनाए जाते हैं. भगवान विष्णु कार्तिक एकादशी को निद्रा से जागते हैं. उपरांत उनका तुलसी के साथ विवाह होता है. इसके पश्चात ही घर-घर मंगलकार्यो की शुरुआत होती है. इस दृष्टि से कार्तिक माह का महत्व है. कौंडण्यपुर में माता रुक्मिणी के माहेर (पीहर) में कार्तिकोत्सव मनाए जाने की सैकडों वर्षों की परंपरा होने से वारकरियों में विशेष महत्व है.

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