बच्चों के साथ माता-पिता भी बनाए किले
शैक्षणिक पर्यटन में शिवाजी महाराज तथा महाराष्ट्र की धरोहर को दिया जाए महत्व

* सुनील पांडे का प्रतिपादन
अमरावती/ दि.19 – दीपावली पर्व को ध्यान में रखते हुए पिछले तीन दशकों से कल्पक किले बनाओ स्पर्धा का आयोजन किया जा रहा है. महाराष्ट्र के बच्चों को शिवाजीकालीन किलों के बारे में जानकारी मिले तथा वे महाराष्ट्र की संस्कृति के अच्छी तरह से अवगत हो. इसके लिए स्कूली बच्चों के कल्पक किले बनाने की स्पर्धा शुरू की गई . इन स्पर्धा में बच्चों ने भाग लिया लेकिन जितनी उम्मीद थी उतने बच्चेें इसमें शामिल नहीं हुए. बच्चों के साथ- साथ अगर उनके माता-पिता भी किले बनाए तो निश्चित रूप से इस स्पर्धा के प्रति उत्सुकता और ज्यादा बढेगी, ऐसा प्रतिपादन कल्पक किले बनाओं स्पर्धा के मुख्य आयोजक सुनील पांडे ने बताया कि ज्यादातर माता- पिता इस तरह के आयोजन में अपने बच्चों को इसलिए नहीं भेजते कि उन्हें लगता है कि यह तो समय की बरबादी है. शिवाजीकालीन किलों को राष्ट्रीय धरोहर में स्थान मिला है, ऐसे में इन किलों के बारे में बच्चों को जानकारी देना बहुत जरूरी है, इसी लक्ष्य को ध्यान में रखते हुए 30 वर्ष पहले इस स्पर्धा का बीज बोया गया. लेकिन तमाम कोशिशों के बावजूद वह पनपा तो जरूर पर वट-वक्ष नहीं बन पाया. मनपा स्कूल नंबर 16 में अंबिका नगर मैदान में शनिवार 18 अक्तूबर से किला बनाने की स्पर्धा शुरू हुई तो उम्मीद की जा रही थी कि इस बार भाग लेनेवाले छात्रों की संख्या 200 से अधिक होगी. लेकिन आंकडा 150 पर आकर टिक गया. यह पूछे जाने पर कि इतनी अच्छी स्पर्धा में विद्यार्थी भाग लेना क्यों नहीं चाहते, क्यों वे इस तरह की प्रतियोगिता को समय की बर्बादी मानते हैं, ऐसा पूछने पर उन्होंने बताया कि किले बनाने को मनोरंजन या समय की बर्बादी बताने वाली मानसिकता के कारण ही इस तरह के आयोजन में शामिल होेने वाले विद्यार्थियों की संख्या में वृध्दि नहीं हो पा रही है. पांडे ने बताया कि इस तरह के आयोजन में भाग लेनेवाले बच्चों के साथ उनके माता-पिता भी हिस्सा लेंगे. पांडे ने बताया कि हमारा लक्ष्य महाराष्ट्र की कला- संस्कृति, यहां की धरोहरों से स्कूली बच्चों को परिचित कराना है, हम जिस मिशन को लेकर सामने आए थी, उसे लक्ष्य तक पहुंचाना बडा मुश्किल है, लेकिन हमें इस बात का पूरा भरोसा है कि हम अगले कुछ वर्षो में स्पर्धा में भाग लेनेवाले बच्चों की संख्या में साल हर साल बढते हुए क्रम में ही रहेंगे. स्पर्धा में ज्यादा से ज्यादा बच्चे शिरकत करें. इसके लिए बच्चों में बचपन से ही बीजारोपण किया जाना चाहिए. शिवाजी हो पर हमारे घर पर नहीं, सैनिक हो पर हमारे घर में नहीं, इस मानसिकता के कारण ही किला बनाओं स्पर्धा को उतना महत्व नहीं मिल पाया, जितना अपेक्षित था. शैक्षणिक पर्यटन के तहत शिवाजी महाराज के समय के किलों के अध्ययन की व्यवस्था करने से शिवाजीकालीन किलो समेत राज्य की अन्य साहित्यिक – सामाजिक धरोहर के प्रति आज की पीढी को सही तथा सारगर्भित ज्ञान देना भी बहुत बडा कार्य है.
किसी भी कलाकृति को बनाते समय उस कलाकृति के बारे मेें भी जानकारी हो तो उस कलाकृति को बनाने के प्रति उत्साह बढ जाता है. क्या स्कूलों में जाणता राजा जैसे नाटक का मंचन लगातार किया जाना चाहिए. क्या इस तरह की मानसिकता से किले बनाओं स्पर्धा में शिरकत करनेवाले बच्चों की संख्या में वृध्दि होगी.यह एक अच्छा जरिया बन सकता है, लेकिन इसके साथ ही यह भी जरूरी है कि माता-पिता अपने बच्चों को स्कूली परीक्षा में ही अव्वल आनेवाली पढाई के मोह जाल से अलग किला बनाना या फिर अपनी कला संस्कृति का ज्ञान देनेवाली वस्तु बनाने से अपना ज्ञान बढता यह कोई समय बरबाद करने की स्पर्धा नहीं है. एक ऐसे दौर में जब स्कूलों से खेल तथा खेल के मैदान समाप्त हो रहे हैं, कला संस्कृति के प्रति रूझान घट रहा है, ऐसे में किला बनाने की स्पर्धा में भाग लेनेवाले बच्चों की संख्या साल दर साल बढाना बहुत मुश्किल काम है. मुख्य आयोजक सुनील पांडे के साथ साथ उनकी सुपुत्री अनुराधा पांडे के संयोजन में कल्पक, किले बनाने की स्पर्धा सिर्फ कला बनकर न रह जाए, उसके माध्यम से शिवाजी कालीन किलों के बारे में बच्चों को जानकारी मिले. इसलिए इस तरह के आयोजन में हर माता-पिता का प्रोत्साहन साल दर साल इस आयोजक के महत्व को और ज्यादा मजबूती प्रदान करेगा और एक समय ऐसा आयेगा कि इस किला बनाओं स्पर्धा में 200 क्या उससे कही ज्यादा बच्चे एक साथ किले बनाते नजर आएंगे.





