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अब मतदान होगा सुविधापूर्ण

किसी भी लोकतंत्र की सफलता इसी बात में है कि हर नागरिक अपने मताधिकार का प्रयोग करे. मगर पढ़ाई-लिखाई, नौकरी, रोजगार, दिहाड़ी मजदूरी आदि के चलते बहुत सारे लोग अपना मूल स्थान छोड़ कर विभिन्न राज्यों में रहने को विवश होते हैं, इसलिए वे अपने मूल स्थानों पर चुनाव के समय लौटकर अपने मताधिकार का उपयोग नहीं कर पाते. निर्वाचन आयोग के मुताबिक पिछले आम चुनाव में करीब तीस करोड़ लोग अपने मताधिकार का इस्तेमाल नहीं कर पाए. ऐसा हर चुनाव में होता है. इसलिए लंबे समय से मांग उठती रही थी कि ऐसे लोगों के लिए मतदान का कोई व्यावहारिक उपाय निकाला जाना चाहिए. उसी के मद्देनजर निर्वाचन आयोग ने घरेलू प्रवासियों के लिए ‘रिमोट वोटिंग मशीन’ यानी आरवीएम शुरू करने का प्रस्ताव पेश किया है. इस पर विचार-विमर्श के लिए अगले महीने सभी राजनीतिक दलों को आमंत्रित किया गया है. आयोग का कहना है कि इस मशीन को त्रुटिहीन बनाया और इंटरनेट से नहीं जोड़ा जाएगा.
हालांकि इस प्रक्रिया को लागू करने की राह में कई कानूनी और तकनीकी रोड़े हैं, जिन्हें दूर करना जरूरी होगा. मगर आयोग फिलहाल इसे प्रायोगिक तौर पर लागू करना चाहता है और फिर इस दिशा में आगे बढ़ा जा सकेगा. कई चुनाव विशेषज्ञ इसे एक क्रांतिकारी पहल मान रहे हैं. सैद्धांतिक तौर पर यह पहल निस्संदेह सराहनीय है. मगर जिस तरह अभी तक ईवीएम को लेकर भ्रम बने हुए हैं और हर चुनाव के बाद कुछ आवाजें मतदान में हुई गड़बड़ी को लेकर उठती रहती हैं, उसमें स्वाभाविक ही आरवीएम भी संदेह से परे नहीं होगी. जब मतदाता पहचानपत्र को आधार कार्ड से जोड़ने का प्रस्ताव आया, तब भी इसी शंका के चलते सवाल उठे थे कि कोई भी बाहरी व्यक्ति मतदान में गड़बड़ी कर सकता है. इसलिए आरवीएम को पूरी तरह भरोसेमंद बनाना होगा.
विपक्षी कांग्रेस ने इसे लेकर शुरू में ही विरोध जाहिर किया है कि इससे मतदान के प्रति लोगों का भरोसा कमजोर होगा. जाहिर है, दूसरे दलों की तरफ से भी ऐसे एतराज उठने की संभावना है. मगर यह प्रस्ताव अगर किन्हीं वजहों से व्यावहारिक रूप नहीं ले पाता, तो ऐसे करोड़ों लोगों का मताधिकार प्रश्नांकित होता रहेगा. अब हर चुनाव में गिरता मतदान प्रतिशत निर्वाचन आयोग के लिए चुनौती बना हुआ है.
तमाम अपीलों और जागरूकता अभियानों के बावजूद हर चुनाव में कई निर्वाचन क्षेत्रों में पचास प्रतिशत से भी कम मतदान हो पाता है. इस तरह जन प्रतिनिधित्व का मकसद ही अधूरा हो जाता है. इसे दूर करना निर्वाचन आयोग का नैतिक और संवैधानिक दायित्व है. चुनावों में गिरते मत प्रतिशत के पीछे अपने मूल स्थान से दूर शहरों या कस्बों में जा बसे लोगों को अपने मताधिकार का उपयोग न कर पाना भी बड़ा कारण है. अगर ऐसे लोगों को मतदान में शरीक कर लिया जाता है, तो निस्संदेह मत प्रतिशत बढ़ेगा. मगर दिक्कत यह है कि ऐसे लोगों की पहचान सुनिश्चित करना और वे जहां रह रहे हैं, वहां मतदान केंद्र स्थापित कर पाना कैसे संभव होगा. मसलन, अगर बिहार में चुनाव है और वहां के लाखों मतदाता दिल्ली, गुजरात, मुंबई, पुणे, श्रीनगर आदि जगहों पर बिखरे हुए हैं, तो उन्हें कैसे मतदान की सुविधा उपलब्ध कराई जाए और फिर उनकी गणना आदि कैसे की जाए, यह एक जटिल काम हो सकता है. सबसे प्रमुख सवाल कि मतदाता कैसे स्वतंत्र रूप से अपने मताधिकार का उपयोग करे. मगर जैसा कि निर्वाचन आयोग का दावा है, उससे लगता है कि उसने इन तमाम पक्षों पर गंभीरता से विचार कर लिया है.

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